चार दिनों का यार ओ रब्बा
1947 में बीकानेर राजस्थान में जन्मीं
रेशमा ने बेहद कम उम्र से गाना शुरू कर दिया था। जब वह 12 साल की थीं !
वो अक्सर कहतीं थीं ..
“अल्लाह जानता है मैंने कहीं से नहीं सीखा !
हम बीकानेर के रहने वाले हैं….
राजस्थान के,
रेगिस्तान के. रतनगढ़ का नाम सुना होगा आपने,
उससे तीन मील दूर हमारा गांव था.
मेरे पिता घोड़ों तथा ऊंटों का व्यापार करते थे ..
हम बंजारे हैं.
आज यहां, कल वहां…
जब हमारा काफ़िला चलता तो जहां रात हो जाती हम वहीं डेरा डाल लेते तथा तारों के नीचे सो जाते.
हमारे कबीले के पंद्रह-बीस परिवार थे तथा डेढ़-दो सौ प्राणी !
सभी इकट्ठे ही चलते रहते तथा आपस में शगुनों और त्योहारों को मनाते.
एक ही साथ चार-चार मील का लंबा सफ़र. पैदल.
रेत में ..
बीकानेर से बहावलपुर, मुलतान, सिंध, हैदराबाद. ऊंटों की घंटियां बजती तथा मैं ऊंची आवाज़ में गाते हुए मीलों तक चलती जाती…
खुली फ़िज़ा में गाने का अपना ही मज़ा है. अल्लाह आपके साथ होता है.”
पहली बार उन्होंने रेडियो पाक पर गाना गाया और उसके बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ..
पाकिस्तान में एक लोग गायिका के तौर पर वह बेहद लोकप्रिय हो चुकी थीं,
लेकिन
भारत में उनकी आवाज गूंजी सुभाष घई की फिल्म हीरो ( 1983) के गाने
‘लंबी जुदाई’ के जरिए !
यह गाना 80 के दशक का सुपरहिट गाना रहा ..
हीरो फिल्म का गाना
‘चार दिनां दा प्यार हाय रब्बा, बड़ी लम्बी जुदाई…
गाना
एक तरह से रेशमा के लिए भारत से जुदाई का ही ऐलान साबित हुआ था।
इस गाने के बारे में रेशमा का कहना था,
‘हीरो में गाया हुआ मेरा यह गाना सचमुच मेरे ऊपर फिट हो गया।
उस गीत ने मुझे जितनी प्रसिद्धि दिलाई,
उसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।
इसी की बदौलत मैं रातों-रात स्टार बन गई।’
इसके बाद भी उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग के लिए कोशिशें की थीं,
लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली।
एक इंटरव्यू में इस बारे में बात करते हुए रेशमा ने कहा था,
‘दरअसल पारिवारिक कारणों से इस गाने के बाद मैं पाकिस्तान चली गई,
जबकि उस समय मेरे पास टॉप म्यूजिक डायरेक्टर्स के ऑफर थे।’
रेशमा का कहना था कि भारत और पाकिस्तान उनके लिए दो आंखों की तरह हैं।
उनका कहना था कि कलाकारों के लिए देश की सीमाएं कभी बाधा नहीं बनतीं ..
और भारत में उन्हें हमेशा बेहद प्यार और सम्मान मिला !
वो बताती हैं ..
एक दिन मैने गले में सोने का मोटा कंठा पहना ..
नाक में नथ जिसमें हीरे जड़े हुए थे, तथा सिर पर हरे सितारों वाला दुपट्टा.
पांवों में चांदी की पाज़ेबें.
कार में रेशमा तथा उसके साथी बैठे और हम पौने पांच बजे,
1, सफदरजंग रोड पहुंच गए.
जब कोठी के भीतर प्रवेश करने लगे तो दो सुरक्षा गार्डों ने हमारी कार रोकी तथा हमारा नाम पूछा.
मैंने रेशमा का नाम बताया तथा कहा कि पांच बजे प्रधानमंत्री से मुलाक़ात है.
बिना कोई और सवाल किए उन्होंने हमें भीतर जाने दिया.
आगे विशेष सचिव ऊषा भगत खड़ी थीं.
वे हमें भीतर ले गईं.
साधारण बड़े कमरे में कालीन बिछा हुआ था. खिड़की के पास दो सोफे पड़े हुए थे तथा दूसरे सिरे पर सफेद चादर बिछी हुई थी,
जिस पर रेशमा तथा उसके साथी बैठ गए.
थोड़ी देर के पश्चात ..
इंदिरा गांधी दाखिल हुईं तो सभी उठ खड़े हुए. ..
मुहम्मद युनुस तथा दस और क़रीबी महिलाएं.
इंदिरा गांधी रेशमा के पास गईं तथा उसका स्वागत किया.
फिर वे सामने सोफे पर बैठ गईं तथा उनके साथ कई अन्य महिलाएं.
सोनिया कालीन पर अन्य लोगों के साथ बैठी थी.
रेशमा ने अपनी बंजारन वाली विशाल मुस्कान बिखेरते हुए कहा,
“इजाज़त है?
गाऊं?”
ऊषा भगत ने रेशमा के लिए चाय का ऑर्डर दिया था तथा बैरा चाय ले आया था.
श्रीमती गांधी ने कहा,
“आप पहले चाय पी लें.”
रेशमा बोलीं, “चाय नहीं,
अब तो गाने को जी करता है.”
श्रीमती गांधी के होठों पर मोतिया मुस्कान खेल गई,
“हमारे पास बहुत वक्त है.
बहुत वक्त है.
आप पहले चाय पी लें.”
रेशमा ने हाथ जोड़कर कहा, “अब तो सिर्फ़ ग़ाने को ही जी चाहता है.”
कमरे का एयर कंडीशनर तथा पंखे बंद कर दिए गए.
सन्नाटा छा गया.
रेशमा की आवाज़ गूंजी,
“हायो रब्बा…”
सुनने वालों के बदन में एक कंपकंपी सी दौड़ गई !!
क़रीब बैठी सोनिया से मैंने पूछा,
“आपको यह गीत समझ में आता है?”
वे बोलीं, “हमारे पास रेशमा के टेप हैं.
हमने इनको बार-बार सुना है.
मुझे रेशमा की आवाज़ बहुत अच्छी लगती है.”
रेशमा एक घंटे तक गाती रही.
सभी को उसकी आवाज़ ने कील दिया था.
श्रीमती गांधी ने उठकर रेशमा को गले लगाया और तोहफे के तौर पर एक सुनहरी घड़ी पेश की तथा दरवाज़े तक छोड़ने आई !
रेशमा ने मुझसे कहा,
“यकीन ही नहीं हो रहा था कि मेरे सामने श्रीमती गांधी बैठी मेरा गीत सुन रहीं हैं.
वे बादशाह हैं, पर मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी बड़ी बहन हो.
यह सिर्फ़ ख्वाब लगता है.”
उनकी
मृत्यु गले के कैंसर से 3 नवम्बर 2013 को लाहौर में हुई ..
Hari Bhushan Singh