आलोचना का शुक्ल पक्ष
ज्ञानेन्द्र पति ने बनारस में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी की आवक्ष प्रतिमा को देख कर लिखा था कि शुक्ल जी ने धड़ होना नहीं, शीश होना चुना है ” । ग्रियर्सन और मिश्र बन्धुओं से आधार सामग्री लेकर उनसे बेहतर और मौलिक “हिन्दी साहित्य का इतिहास” लिखने वाले शुक्ल जी का विराट अध्यवसाय और पाण्डित्य चकित करता है। अंग्रेजी में बेकन ने मनोविकारों पर निबन्ध लिखा किन्तु शुक्ल जी के निबन्धों में जो विषय निष्ठता, कसावट और गाम्भीर्य है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वे विषय के खूंटे से बंधकर उसका सांगोपांग विवेचन करते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की तरह विषय की खूंटी पर स्वयं को टांग नहीं देते। अलक्षित लालित्य, गवेषणात्मक शिल्प, आगमन, निगमन और सूत्र – शैलियों का उपयोग, जीवन और साहित्य के मर्मस्पर्शी स्थलों की पहचान, लोकमंगल की अवधारणा, शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबन्ध, प्रकृति के आलम्बन परक चित्र संश्लिष्ट बिम्ब विधान और अमोघ तर्क – पद्धति के कारण शुक्ल जी आज भी निबन्ध – लेखन और आलोचना के मानदंड और मील के पत्थर हैं। यद्यपि आज आलोचना की भाषा काफी आगे बढ़ गई है किन्तु हम आलोचना के इस क्लासिक को अलक्षित नहीं कर सकते। संस्कृत काव्य शास्त्र का पुनराख्यान और पाश्चात्य काव्य शास्त्र को भारतीय शिल्प में ढालकर एक समन्वित आलोचना – पद्धति का निर्माण हिन्दी साहित्य को उनकी अद्वितीय देन है। पश्चिम के साहित्य का अध्ययन उनकी भारतीयता को और पुष्ट करता है। तुलनात्मक समीक्षा करते हुए वे अपनी जातीय अस्मिता के पौरुष, उत्कर्ष और औदात्य को रेखांकित करते हैं। वे आधुनिक हिंदी कविता को भारतीय परंपरा में रखकर परखने के कायल हैं। वे संस्कृत से आयत्त नाद – सौन्दर्य से अंग्रेजी की नकल पर हिन्दी कविता को वंचित करने के घोर विरोधी हैं। वे विलासिता परक दृष्टि को छोड़ कर प्रकृति के समस्त रूपों से प्रेम करते हैं। और अपने भूगोल से परिचित हुए बिना राष्ट्र प्रेम को असम्भव मानते हैं। जायसी की नागमती के विश्लेष – दु:ख से तदाकार होते हुए काग उसका संदेसड़ा लेकर रत्न सेन के पास जाता है। ठेठ लोक मानस का यह समासोक्ति मूलक महाकाव्य अद्भुत है। शुक्ल जी ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना के नये प्रतिमान गढ़े। उन्होंने भारतीय रस – सिद्धांत की युगानुरूप नयी व्याख्या की और नवाचारों को पुरस्कृत किया। वे अलंकार का उसी सीमा तक आदर करते थे, जहाँ तक वह रस का उपकारक बनकर आए। वे भाषा की आन्तरिक गतिशीलता को पकड़ने में समर्थ हैं। ऐसे महामनीषी से नामवर सिंह से लेकर विनोद शाही तक टकराते रहे और इस आदमकद आलोचक के सम्मुख खड़े होकर खुद अपना कद मापते रहे किन्तु उनके अंगद – पांव को हिला नहीं पाए। ‘तुलसीदास’ शीर्षक उनकी पुस्तक तो व्यावहारिक आलोचना का प्रतिमान है। जायसी ग्रंथावली और भ्रमरगीत सार की भूमिका हमारे सांस्कृतिक मानस और सामूहिक अवचेतन या संचित चित्त वृत्ति को समझने की कुंजी है। जयदेव, विद्यापति और सूरदास को एक परंपरा में रखकर परखने की अंतर्दृष्टि चमत्कृत करती है। शुक्ल जी से गहरा तादात्म्य स्थापित करके कृष्ण बिहारी पाठक ने विधेयात्मक दृष्टि से उनके ऊपर एक पुस्तक लिखी है जो उनके लेखन के अन्त:करण को भेदती है और भारतीय चिन्तन – पद्धति को प्रोत्साहित करते हुए विलायती बोध से आविष्ट छिन्न मूल सृजनात्मक वैशिष्ट्य को आइना दिखाने का काम करती है।
अजित कुमार राय, कन्नौज