असहमतियों और निर्मल वर्मा पर चर्चा…
जैसा कि आजकल देख, सुन और पढ़ रही हूँ अब हमारी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म होती जा रही है । कोई भी चीज़ यदि हमारे पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो हमको लगता है कि वह सारी दुनिया को भी ठीक वैसी ही लगनी चाहिए जैसा उसके लिए हम महसूस कर रहे हैं ।
एक बात बताइए, क्या यह ज़रूरी है कि सभी लेखन सबकी समझ में आना ही चाहिए या सबको पसंद होना चाहिए ? नहीं न ? तो किसी नापसंद वस्तु के अस्तित्व पर सवाल क्यों करना ? ठीक है आपको कोई भाषा-शैली नहीं पसंद आयी लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उसका कोई वजूद ही नहीं है ।
चलिए मैं अपनी समझ अनुसार तथ्य पर बात करने की कोशिश करती हूँ…
निर्मल की भाषा-शैली को “मैजिकल रेयलिज़्म” कहते हैं ।
यह लेखनी एक अतियथार्थवादी दुनिया के रास्ते खोलती है । बिम्ब से बनी एक ऐसी दुनिया जहाँ बात को कहने का एक अलग तरीका है । क्योंकि निर्मल को “एकाकीपन का लेखक” भी कहा गया है इसलिए जब यह जादुई यथार्थवाद एकाकीपन से मिलता है तो भाषाशैली में केवल पीड़ा, यातना, इंतज़ार, त्रासदी और गहरी संवेदनशीलता ही दृष्टिगत होती है । जिन्हे इस तरह का लेखन नहीं पसंद आता है उन्हें निर्मल कभी पसंद नहीं आएंगे । अतः किसी को नापसंद करना ग़लत नहीं है बस यह सोचना ग़लत है कि उस लिखे जाने का कोई उद्देश्य ही नहीं है ।
चलिए अब मैं निर्मल वर्मा के अलावा कुछ ऐसे लेखक और उनकी किताबों का नाम Quote करती हूँ जो जादुई यथार्थवाद या Absurd [(असंगत-विसंगत) जैसे कुछ लिखते हुए अचानक कोई दूसरी बात कहने लगना या अतरंगी। ] लिखते हैं…
* Samuel Backet – Waiting for godot
* Jerry pinto – Em and the big hoom
* Matt Haig – The midnight library
* Gabriel Garcia Marquez – One hundred years of solitude
* Haruki Murakami – Birthday girl (and many more)
* Neil Gaiman – The ocean at the end of the lane
* Toshikazu Kawaguchi – Before the coffee gets cold (series)
* Olga Tokarczuk – Flights (and many more)
* Naja Marie Aidt – When death takes something from you give it back
* Nikolai Gogol – Diary of a madman
* विपिन कुमार अग्रवाल – बीती आप बीती आप
* गीतांजलि श्री – रेत समाधि
* विनोद कुमार शुक्ल – दीवार में एक खिड़की रहती थी
* मानव कौल – तुम्हारे बारे में/कतरनें
* सुषमा गुप्ता – तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम
* प्रत्यक्षा – ग्लोब के बाहर लड़की
* कुमार अंबुज – थलचर
* प्रियंवद – उस रात की वर्षा में
* माया मृग – एक चुप्पे शख्स की डायरी
* राधे श्याम – अफ़ीम के फूल
* गिरीश कर्नाड – हयवदन
इन कुछ उदाहरणों से स्पष्ट है कि यह भी एक प्रकार की लेखन विधा है, जिसे समझने के लिए अलग तरह के दृष्टिकोण और समझ की आवश्यकता होती है ।
अब बात करते हैं पुस्तकों के सही चुनाव की…
मान लीजिए आपने सोशल मीडिया पर या किसी दोस्त से किसी Random किताब के बारे में सुना और उसने, उस किसी किताब पर अपना मन (पसंद या नापसंद) लिखा तो आपको भी वह किताब पढ़ना बिल्कुल आवश्यक नहीं है ।
सबसे पहले आप अपना Genre समझिए कि आपको किस तरह का साहित्य समझ में आता है या पसंद आता है, उसके बाद ही किताबों का चुनाव कीजिए । मेरा विश्वास कीजिए इस दुनिया में इतनी किताबें हैं कि आपको अपने पसंदीदा Genre की किताब पढ़ने से फुर्सत ही नहीं मिलेगी और आप न केवल अपने मन का साहित्य पढ़ेंगे बल्कि किसी की निंदा करने से भी बचे रहेंगे । यदि चुनाव करने में कोई परेशानी हो रही हो तो सबसे पहले किताब किन्डल पर डाउनलोड करके उसके कुछ पन्ने पढ़कर देख लीजिए और उसके बाद ही उस किताब को मँगवाइए । या उस किताब के बारे में गूगल कर लीजिए ।
इन सब जानकारियों के बाद भी लेखन शैली न समझ में आए तब भी किताब या लेखक की निंदा न कीजिए क्योंकि आपको इससे कुछ हासिल नहीं होगा लेकिन आप उस लेखक के पाठक ज़रूर कम कर देंगे जिन्हे उस तरह का लेखन पसंद आता है ।
इसे एक उदाहरण के तौर पर समझिए…
‘लेव टोल्सटॉय’ अपनी किताब ‘अन्ना कारेनिना’ के पहले भाग में आधी किताब ख़त्म हो जाने के बाद मुख्य पात्र के बारे में बात करते हैं जिस कारण उपन्यास उबाऊ लगता है लेकिन इसके बावजूद वह बहुत लोगों का पसंदीदा उपन्यास है । (ऐसे कई उदाहरण हैं)
अब मैं निर्मल साहब की निंदित उन तीन कहानियों में से “जलती झाड़ी” के बारे में बात करूँगी…
“कहानी “जलती झाड़ी” केवल दो लोगों के झाड़ में घुस जाने, कुछ करने और प्रोटागनिस्ट के उनको देखते रहने और फिर लड़की के वापस आकर उससे यह पूछने पर समाप्त नहीं होती कि तुम यहाँ क्या करते रहे ?
यह कहानी है, स्वयं की खोज में लिप्त एक व्यक्ति की जो उन चीज़ों या घटनाओं की कल्पना करता है जो ठीक उस वक़्त नहीं घट रही हैं । या तो कभी घट चुकी हैं या फिर कभी नहीं घटेंगी । वह उन लोगों को किसी ऐसे टापू के सामने रखी हुई बेंच पर बैठे हुए देख रहा है जहाँ दो नदियों का मिलन होता है । सबसे पहले वहाँ एक बूढ़ा व्यक्ति आकर मछलियाँ पकड़ने को बैठता है । फिर मुख्य पात्र स्वयं को वहाँ बैठा हुआ देखता है और कुछ लोग आकर उसे वही आदमी समझते हैं जो अभी कुछ देर पहले मछलियाँ पकड़ रहा था । उसके बाद वह दो लड़कों को वहाँ आते हुए देखता है जो एक सफ़ेद रुमाल में कुछ पत्ते लेकर आये हैं जिनमें से एक लड़का उन पत्तों को नदी में प्रवाहित कर देता है और व्यक्ति को ऐसा महसूस होता है कि किसी जलती हुई झाड़ी में बिखरे कुछ पत्तों को शीतलता प्राप्त हुई । अंत में वह दो युगल झाड़ी के अंदर दिखाई पड़ते हैं । जिनमें से औरत बाहर आकर बेंच पर पुनः ठीक उसी जगह बैठती है जहाँ सबसे पहले वह बूढ़ा व्यक्ति बैठा था । उस औरत का यह पूछना कि तुम यहाँ क्या करते रहे थे ? अपने बारे में सवाल करना नहीं था बल्कि उस व्यक्ति के अंतर्मन से सवाल करना था कि तुम अबतक अपने जीवन में क्या करते रहे थे ?
उसकी कल्पना में उन सभी लोगों का आना और उनसे हुई बातचीत लेखक को बार-बार उसके हारे हुए जीवन की याद दिलाते हैं । जिस कारण वह उस जगह को छोड़कर जाते हुए सोचता है कि उस रात वह इतना परेशान था कि चाहता तो बड़ी आसानी से आत्म हत्या कर सकता था लेकिन भावनाओं, उम्मीदों और आत्मा की मृत्यु के लिए आत्महत्या की कोई आवश्यकता नहीं होती ।”
निर्मल की कहानियों में आलोचक को उनके लिखने के ढंग से भी परेशानी थी जहाँ इस कहानी में उन्होंने निर्मल का लिखा यह वाक्य quote किया था कि…
“ऐसा ही एक पतझड़ का दिन था जब मैं वहाँ चला आया था ।”
यदि ध्यान दिया जाए तो मालूम होगा कि यह वाक्य एक पैराग्राफ में दो बार लिखा गया है जोकि जादुई यथार्थवाद की दुनिया का ही एक हिस्सा है । इससे ज्यादा मैं इस जॉनरा का अस्तित्व और इसकी संवेदनशीलता प्रमाणित नहीं कर पाऊँगी ।
जादुई यथार्थवाद सबको नहीं पसंद आता है । और ज़रूरी भी नहीं है कि पसंद आए । इसलिए फिर कहती हूँ जो मन को भाए पढ़िए, जो नहीं भाए उसे छोड़ कर आगे बढ़ जाइए । अपनी नापसंदगी जता भले दीजिए लेकिन लोगों से उसपर मोहर लगवाने की कोई ज़रूरत नहीं है । किसी को चेलेंज मत कीजिए कि वह व्यक्ति जो आपकी नापसंदगी को पसंद करता है, वह यह सिद्ध करे की रचना उत्कृष्ट है केवल तभी उसको इसे पढ़ने का अधिकार होगा ।
हम सबके अपने अलग-अलग दुःख और सुख होते हैं । कोई भी दुःख या सुख उससे जूझ रहे व्यक्ति से छोटा या बड़ा नहीं हो सकता । किसी के भी दुःख/सुख की तुलना किसी दूसरे के दुःख/सुख से नहीं की जा सकती और सबका इससे जूझने और इसे व्यक्त करने का अपना अलग तरीका होता है ।
इसलिए मैं हाथ जोड़कर निवेदन करती हूँ कृपया अपना मन बड़ा कीजिये । यदि हम दूसरों को नीचा दिखाने या फिर ख़ुद को सही साबित करने से ऊपर उठ कर पूरी शिद्दत से अपने आत्म और आत्मिक विकास पर ध्यान देंगे तब कहीं जाकर हम वास्तव में मनुष्य होने की तरफ़ आगे बढ़ पाएँगे और हमारा बौद्धिक विकास भी हो सकेगा ।
बहुत धन्यवाद
निष्ठा अभिजित अग्निहोत्री