आदिवासियों की अनूठी परम्परा- भंगाराम जात्रा
यूं तो छत्तीसगढ़ में बस्तर के गोंड आदिवासी अपनी लोक परम्परा और संस्कृति की विशेषताओं के लिए दुनिया भर में पहचाने जाते हैं, लेकिन इस समुदाय में “भंगाराम जात्रा” का पर्व का विशेष महत्व है। यह पर्व बस्तर के हलबा गोंड जनजातीय समुदाय के देवताओं के न्याय प्रणाली से जुड़ी विशिष्ट परंपरा है ।
आदिकाल से लेकर वर्तमान समय तक, सभ्यता के विकास के विभिन्न स्तरों पर न्याय व्यवस्था, आदिम संस्कृति का एक प्रमुख अंग रही है।
इसी तरह उनके देव समूह में भी सभी देवियों में कार्य विभाजन पाया गया है। इसमें उच्च और निम्न वर्ग के देवता पाए जाते हैं जैसे माता भंगाराम देवी को सभी आसपास के 09 परगना के देवी-देवताओं की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त है. इसलिए उन्हें परगना का सर्वोच्च न्यायाधीश भी कहा जाता है। माता भंगाराम की अदालत में इन 09 परगनाओं के अंतर्गत 57 ग्रामों की देवी-देवताओं की सुनवाई के लिए अदालत लगाया जाता है ।
इस भंगाराम जात्रा में हबीब तनवीर के किसी लोक नाट्य की तरह तुरही, मृदंग और नगाड़ों की थाप पर नाचते हल्बा, गोंड आदिवासी, एक अद्भुत अनुभूति की तरह हमारे भीतर उतरने लगते हैं। लोक वाद्य यंत्रों की आवाज में सिरहा, मांझी और चालकी के ऊपर देवताओं का झूमते हुए आना जादुई आकर्षण पैदा करता है । जैसे आप पर भी उन देवी देवताओं के गोत्रज, टोटम का इतना असर हो जाए कि आप भी आदिवासियों के लोक-रंग में डूब कर उनके अपने देवताओं के साथ प्रेम, करुणा त्याग, अपमान, अपराध, दंड और माफी के गीत में पूरी तरह से सराबोर हो जाते हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे किसी बरसों पुरानी लोक-कथा और किवदंती को केशकाल के हरे-भरे चट्टानों के बीच जीवंतता से लोक जीवन में उतार लिया गया हो।
केशकाल, कांकेर से महज 35 किमी की दूरी पर स्थित है । कुल 13 सर्पिलाकर घाटी के मोड़ के रास्ते पार करने के बाद हम केशकाल पहुँचते हैं, और यहाँ से डेढ़ किमी की दूरी के बाद टाटामारी पिकनिक स्पॉट का रास्ता जाता है। उसी रास्ते के उपर “भंगाराम देव” का स्थान है। इस रास्ते से गुजरते हुए आप सहसा ठिठक जाते हैं, जब पीछे के रास्ते वाली घाटी पर आदिवासियों के देवता और प्रतीक चिन्ह को या तो फेंक दिया गया है, या फिर जंजीर अथवा रस्सी से बांधकर छोड़ दिया जाता है। जहां दुनिया के दूसरे धर्मों में महज ईश्वर की निंदा करने को भी “पाप” समझा जाता है । वहीं आदिवासियों की संस्कृति में देवताओं की निंदा करने, आरोप लगाने और सजा देने का भी प्रावधान है ।
इस जात्रा में ऐसे पारिवारिक एवं सामुदायिक देवी-देवताओं की बोहरानी (रवानगी) की जाती है जो लोगों को प्रताड़ित करते हैं, या सताते हैं। यहाँ केवल दुष्ट देवी-देवताओं की ही बोहरानी नहीं की जाती, बल्कि अनेक प्रकार की बीमारियों की भी बोहरानी की जाती है ।
हिंदी कैलेंडर के भाद्रपद महीने में प्रथम सप्ताह के शनिवार को “भंगाराम जात्रा” का आयोजन किया जाता है, लेकिन उस शनिवार को पूर्णिमा या अमावस्या नहीं होना चाहिए। इस जात्रा से पहले प्रत्येक गांव में गंगाराम देवी पर 7 सप्ताह तक शनिवार के दिन सेवा (हल्दी तेल) चढ़ाया जाता है. और अंतिम सप्ताह में जात्रा का आयोजन किया जाता है ।
जात्रा में शनिवार को सभी नौ परगना के माझी मुखिया तथा देव-कार्यों की बैठक होती है. इसमें आए हुए सभी देवी-देवताओं की उपस्थिति दर्ज की जाती है तथा वर्ष भर के कार्य योजना का लेखा-जोखा तैयार किया जाता है ।
यात्रा के दिन कुंवर पाठ की बाजे-गाजे के साथ अगवानी की जाता है. पूजा के बाद अंतिम देवी-देवता नगाड़ा, तुरही और बाजे की धुन पर नाचते हैं, जो लोगों को मेले का आभास देता है । ग्रामीण अपने साथ बर्तन और चावल भी लाते हैं तथा रात्रि में मंदिर के आसपास ही भोजन बनाकर खाते हैं, तथा जंगल में ही विश्राम करते हैं। आगंतुकों के आराम के लिए यहाँ एक छोटा सा कच्चा विश्राम गृह देवी समिति द्वारा बनवाया गया है। किंतु यह अभी पर्याप्त नहीं है, और लोगों को प्रायः खुले आसमान के नीचे ही रात गुजारनी पड़ती है।
भंगाराम देवी की मूर्ति की डोली बेल की लकड़ी की बनी होती है, जिसे काले कपड़े से ढंका जाता है । उन्हें बकरा, मुर्गा, कबूतर सहित कच्चे चावल, गुलाल, अगरबत्ती की सेवा दी जाती है। यहां, पूजा करने या बलि चढ़ाने को ही “सेवा देना” कहते हैं।
ऐसी मान्यता है कि देवी-माता न्याय करने के लिए सिरहा (पुजारी) पर आरूढ़ होती है । फिर उनके पास लगी अनेक छोटे-बड़े देवताओं की अर्जी पर विचार करती है, कि किसी भी देवी-देवता द्वारा अपनी शक्ति का दुरुपयोग तो नहीं किया गया है । इसी प्रकार उन्हें लोक आस्था से पूछा जाता है कि आस्था और विश्वास को पूरा करने में क्या देवता नाकाम रहे हैं? लोक व्यवहार में देवी-देवताओं को सजा देने के लिए बाकायदा अदालत लगाई जाती है ।
सिरहा, जो आदिवासियों के देवताओं का पुजारी होता है, वह देवताओं की ओर से वकील नियुक्त होता है । दिन भर सभी ग्राम वासियों द्वारा अपने देवी-देवताओं के ऊपर आरोप लगाया जाता है और इन आरोपों की दिन भर सुनवाई भी की जाती है भंगाराम देवी के जो पुजारी हैं, वह देवी की ओर से उनका सन्देश या निर्णय शाम को सुनाता जाता है । कभी कभी सपने के रूप में भी यह निर्णय सुनाया जाता है ।
देवताओं को अपनी नाकामी के कारण अपने देवत्व को त्यागना भी पड़ता है । वहीं, कोई साधारण मनुष्य भी यदि आदिवासी समुदाय के लिए मानवता का कार्य करे, तो उसकी आत्मा को आहूत करके उसे देवता का दर्जा भी दे दिया जाता है। इसका उदाहरण डाक्टर देव हैं, जिनकी स्थापना भंगाराम देवी के परिधि में की गई है ।
जनश्रुति के अनुसार नागपुर निवासी डॉक्टर खान ने बस्तर में हैजे बीमारी की महामारी को नियंत्रित किया था। नागपुर लौटते समय केशकाल में एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई थी । तभी से डॉक्टर साहब को देवताओं में शामिल कर लिया गया । धर्म से मुसलमान होने के कारण गांव के लोग उन्हें “काना-पठान” के नाम संबोधित करते हैं । आश्चर्य की बात यह है कि उन्हें आदिवासी परंपरा के अनुसार मुर्गे की बलि दिए जाने वाले मुर्गे को भी इस्लाम रीति-रिवाज का निर्वाह करते हुए “हलाल” ही किया जाता है। आदिवासी संस्कृति मे अनेक देवी-देवताओं के साथ ही पूर्वजों की आत्माओं का मानवीकरण किए जाने की प्रथा है । इसे हम बस्तर के ही दंतेवाड़ा जिले में मनाई जाने वाली फागुन-मड़ई की प्रथा से भी समझ सकते हैं।
होली के समय बस्तर के राजपरिवार की कुल देवी दंतेश्वरी माता के साथ होली खेलने के लिए आसपास के करीब 100 ग्राम्य देवता और रिश्तेदार, देवता के प्रतीक-स्वरूप ध्वज के साथ गांववासी पूरे 10 दिनों तक मड़ई मनाते है। इसके पीछे की यह मंशा है कि दंतेश्वरी देवी अकेले कैसे कोई त्यौहार मनाएगी, तो उनके लिए अन्य प्रतीक देवताओं की संगत दी जाती है ।
यहीं पर आकर हम समझ पाते है कि आदिवासियों द्वारा देवताओं का मानवीकरण किया जाता है । जैसे वे हमारे आसपास के रिश्तेदार हैं, हमारे समुदाय, हमारे समाज और परिवार का हिस्सा हैं, जो रूठते भी हैं, उन्हें मनाया भी जाता है, और उनसे गलतियां भी होती है । और वे सजा पाने के भागी भी होते हैं।
साथ ही, हम यह भी समझ पाते है कि यह परंपरा विश्व की अन्य सभ्यताओं से कैसे अलग है । वास्तव में, गोंड-हल्बी समुदाय, एक ऐसा समुदाय है, जो अपने देवताओं को उनकी गलती करने के आधार पर उन्हें देवता की पदवी से हटा देने, निलंबित करने या उनकी मान्यता रद्द करने की ताकत रखता है । इसके विपरीत यही समुदाय किसी सामान्य मनुष्य द्वारा किये गए मानवीय कार्य के आधार पर उसे भी “देवता” का दर्जा दे देता है । इसकी एक बानगी हम छत्तीसगढ़ राज्य में कोंडागांव जिले की केशकाल घाटी में अवस्थित एक लोक परंपरा के रूप में देखते है । केशकाल की भंगाराम देवी के बस्तर आगमन की कथा भी बहुत ही दिलचस्प है। 17वीं शताब्दी में जगदलपुर के राजा भोरमदेव, भंगान (बंगाल) की रानी भंगाराम देवी से शादी करके उसे यहां लाए थे। ऐसा माना जाता है कि बंगाल की रानी पूजा पाठ के साथ-साथ तंत्र मंत्र की साधना भी करती थीं। किवदंती है कि उनके प्रभाव से इस क्षेत्र में महामारी का प्रकोप फैल गया था, जिसके कारण उन्हें जगदलपुर में रहने का स्थान नहीं दिया गया, बल्कि केशकाल में जगह दी गई ।
भंगाराम देवी में डॉक्टर की आत्मा का प्रवेश होने के कारण उनमें स्त्री और पुरुष दोनों की शक्तियां विद्यमान हैं । इसलिए उन्हें अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है । यही वजह है कि भंगाराम का नाम पुरुषों जैसा हो गया है । बंगाल से आने कारण उनका नाम भंगाराम पड़ा । इस देवी को घाट पर स्थापित करने का एक कारण यह भी माना जाता है कि घाटी के ऊपर बैठकर वह शत्रु सेना के आक्रमण से स्थानीय लोगों को सावधान करें, क्योंकि घाटी के नीचे कांकेर का राज्य था ।
भंगाराम जात्रा में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है किंतु वे मेले में आ सकती है । यह बात बहुत अचरज में डालती है कि ऐसा समाज जिसमें महिलाओं को समानता का अधिकार है, वहां पर किसी पूजा-विधान में महिलाओं के प्रवेश को निषिद्ध किया जाना एक बिल्कुल ही अलहदा सी बात है। लेकिन आदिवासियों की मान्यता के अनुरूप महिलाओं में जादू-टोने और देवताओं को प्रभावित करने की शक्ति होती है । संभव है, इन्हीं कारणों से जात्रा में महिलाओं को शामिल नहीं किया जाता होगा।
“भंगाराम जात्रा” से जुड़ी एक और घटना को बताना यहां लाज़िमी है। बहुत समय पहले की बात है, जब क्षेत्र में केवल कोंडागांव में पुलिस थाना स्थापित था । देवी भंगाराम की पूजा हो रही थी, सिरहा (पुजारी) पर देवी आरूढ़ थी । उसी समय देवी की डोली के रास्ते में ही एक अन्य देवी (पेंड्रावन देवी) की डोली भी ले जाई जा रही थी. इस स्थिति से देवी क्रोधित हो गई और “काना पठान” की छड़ी से पेंड्रावन की डोली को ले जाने वालों को तथा डोली को मार-मारकर क्षत-विक्षत कर दिया था ।
इस घटना के बाद पेंड्रावन देवी की डोली ले जाने वालों ने उसकी रिपोर्ट कोंडागांव थाने में लिखाई थी । थाने से सम्मन जारी हुआ और इस तरह तहसीलदार के सामने पहली बार दो देवियों की लड़ाई सुलझाने का विचित्र मामला सामने आया । फिर भी उन्होंने भंगाराम देवी द्वारा की गई कथित मारपीट की पुष्टि के लिए सबूत मांगा । तब भंगाराम की डोली की छतोड़ी (जिससे उन्हें ढका जाता है) को तीन बार उठाते हुए देवी ने अपना परिचय दिया था।
तब तहसीलदार ने दैवीय-शक्ति को पहचान कर कहा था कि दोनों देवियों की शक्तियों का निर्णय कर पाना मेरे बस में नहीं है । अतः दोनों देवी शक्तियां अपना फैसला खुद करें और दोनों ही देवियाँ एक दूसरे की अनुमति के बिना, एक दूसरे के पास न जाएं । तभी से दोनों देवियां एक दूसरे की यात्रा में शामिल नहीं होती हैं ।
उसी दिन से देवी भंगाराम से संबंधित किसी भी कार्य के लिए भंगाराम के दीवान “कुंवर-पाठ” का “आंगा” सबसे पहले थाने जाता है । वहां से “आंगा” किसी वर्दीधारी सिपाही को लेकर ही पूजा स्थल पहुंचता है । वर्दी की सफाई के बिना, यह देव कहीं भी नहीं जाता है ।
यह परंपरा 50 वर्षों से चली आ रही है, जो आज भी कायम है । जात्रा की समाप्ति के बाद माता की अंतिम आरती की जाती है और सभी आमंत्रित देवी-देवताओं की विदाई उन्हें नारियल और अगरबत्ती देकर की जाती है।
इस बेहद अनूठी परम्परा का सबसे विशेष पहलू यह है कि बस्तर के जिन आदिवासियों को शहरों में रहने वालों की दृष्टि में, आमतौर पर पुरातन, या अशिक्षित समझने की भूल अक्सर की जाती है, उन्ही आदिवासियों के समुदाय में देवी भंगाराम की कौतूहल से भरपूर कहानी आज भी जीवंत है. इसमें देवी-देवता के मानवीकरण की मिसाल तो वाकई अद्भुत है. साथ ही, किसी सद-चरित्र मनुष्य को देवता बनाने का सामर्थ्य भी इन आदिवासियों की परम्परा में निहित है. यह किसी भी समाज में मनुष्य को श्रेष्ठ कार्य करने की प्रेरणा देने वाला “चलन” है. आज के समय में जब तथाकथित आधुनिक मनुष्यों और समाजों के बीच संदेह और छल के सिवाय और कुछ भी नहीं बचा है, ऐसे घुटन भरे वातावरण में केशकाल की देवी भंगाराम की कहानी और यहाँ के आदिवासियों की लोक परम्परा, समूचे जीवन को ही समृद्ध करने वाली है. साथ ही विश्वास और आस्था को एक बिल्कुल ही नई परिभाषा देने वाली है. इसमें कोई संदेह नहीं. स्मिता
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Photo – anzaar nabi via Shakeel Rizvi
Smita Akhilesh
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