November 21, 2024

“नवा सुरुज फेर आही रे…….”

0

लक्ष्मण मस्तुरिया एक अइसन नाम हे जिनला छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक विरासत के युग-पुरुष कहे जाए तो कोनो अतिशयोक्ति नइ होही। उनमन अपन गीत के माध्यम ले जहाँ छत्तीसगढ़ी भाषा ल सरी दुनिया म स्थापित कर दिन उहें छत्तीसगढ़ के गीत और संगीत ला संस्कारित कर दिन। आवव उनकर गीत के अगास असन कैनवास ऊपर बगरे आने आने रंग के एक झलक देखन –

“”सच्चा माटी पुत्र” –

लक्ष्मण मस्तुरिया के जीवन की सादगी और गीतों की सोंधी महक ही उन्हें एक सच्चा माटीपुत्र निरूपित करती है। उनके गीतों में समूचा छत्तीसगढ़ समाया हुआ है। वे अपनी जन्मभूमि की वंदना करते हुए अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं –

बड़े बिहिनिया सुत उठ के, तोरे पइयाँ लागँव
सुरुज जोत मा करँव आरती गंगा पाँव पखारँव
फेर काया फूल चढ़ावँव रे
मोर धरती मइया जय होवै तोर…..

“कबीर की विचारधारा”

हम तोरे संगवारी कबीरा हो, हम तोरे संगवारी
ले के हाथ लुआठी अपन फूँके हन घरबारी

कबीर की तरह ही लक्ष्मण मस्तुरिया ने आडंबरों का विरोध बहुत ही शिष्टता से किया –

कहाँ जाहू बड़ दूर हे गंगा, पापी इहें तरव रे…

मात्र बाइस वर्ष की उम्र में चंदैनी गोंदा के मुख्य गीतकार और गायक बनने वाले लक्ष्मण मस्तुरिया गर्व से अपना परिचय देते हैं –

मँय छत्तीसगढ़िया अँव गा,
भारत माँ के रतन बेटा बढ़िया अँव गा…

यह बहुत अच्छी बात है कि गाँव गाँव में शिक्षा की सुविधाएँ बढ़ती जा रही । लोग शिक्षित होते है रहे हैं लेकिन एक दुखद पहलू यह भी है कि नई पीढ़ी अब खेती-किसानी के कार्य से दूर होती जा रही है। मस्तुरिया जी अपने गीत में माध्यम से नई पीढ़ी को प्रेरित करते हुए कहते हैं –

मोर राजा दुलरवा बेटा, तँय नागरिहा बन जाबे।

“पलायन”

देश की प्रतिभाएँ भौतिक सुखों की चाह में अन्य देशों की ओर पलायन कर रही हैं। अपनी संस्कृति को बचाये रखने के लिए मस्तुरिया जी अपने गीतों के माध्यम से उन्हें संदेश देकर कहते हैं –

बात मान ले, परदेस झन जा रे
परदेस के हवा-पानी मा मन बौराय
अपन धरम करम अउ बोली, अपने ला नइ सुहाय
झुलवा झूलै करम गति भुलै रे दोस….

“महिमा देश की”

चंदन कस कसमीर कन्याकुमारी कुमकुम
छम छमाछम गुजर भूमि, बंग भूमि रुमझुम
जइसे एक बँसुरी म सात सुर तान हे
जिहाँ राम हे रहीम हे ईसा गुरु गोविंद नाम हे
मोर भारत भुइयाँ धरम धाम हे…..

“महिमा प्रदेश की”

धरम धाम भारत भुइयाँ के मँझ मा हे छत्तीसगढ़ राज
जिहाँ के माटी सोनहा धनहा, लोहा कोइला उगलैं खान।
बाल्मीकि के इहि कुटिया मा कतको पढ़ पढ़ पाइन ज्ञान
तपसी आइन इहि माटी मा, मया करिन बनगिन भगवान।।

“प्रेम”

मानव हृदय में प्रेम न हो तो वह पाषाण बन जाये। मस्तुरिया जी के गीतों में प्रेम की पराकाष्ठा दिखाई देती है। नायक-नायिका का प्रेम, रिश्ते नातों का प्रेम, जीव जंतु और प्रकृति के प्रति प्रेम, गाँव, राज्य, देश और सम्पूर्ण सृष्टि से प्रेम उनके गीतों में दिखाई देता है। गाड़ी वाला गीत में उन्होंने प्रेम को कितनी सुंदरता से परिभाषित किया है –

मया नइ चीन्हे रे देसी बिदेसी मया के मोल न तोल
जात बिजात न जाने रे मया, मया मयारुक बोल
काया माया संग नाच नचावै, मया के एक नजरिया..

“विरह”

संयोग श्रृंगार के अनेक गीतों के साथ ही वियोग श्रृंगार के उनके गीत किसी भी आहत हृदय को असीम शांति प्रदान करते हैं. घुनही बँसुरिया ऐसा ही गीत है जो छत्तीसगढ़ी भाषा को न केवल अन्य भारतीय भाषाओं के समकक्ष खड़ा कर देता है बल्कि इसकी सम्प्रेषण क्षमता की ऊँचाइयाँ दर्शाता है –

कोन सुर बाजँव मँय तो घुनही बँसुरिया
सुनि जेला आई जावै मोरे गँवतरिहा……

“किसान की विवशता”

प्रेम के संवाद उम्रजन्य मनुहार होते ही हैं किंतु इन मनुहारों में भी मस्तुरिया जी छत्तीसगढ़ के यथार्थ का चित्रण करना नहीं भूलते –

नायिका – नाक बर नथनी अउ पैरी मोरे पाँव बर
बिन लाने राजा, झन आहू मोरे गाँव मा
नायक – लातेंव मँय संगी, फेर का करंव दुकाल मा
होन दे बिहाव पहिली, गढ़ा देहूँ सुकाल मा

“मनुहार”

प्रेम गीतों में मस्तुरिया जी ग्रामीण परिवेश के संस्कारों को जीवित रखने में माहिर थे। उनके गीतों में
ठेठ शब्दों का चयन, छत्तीसगढ़ी भाषा की सम्प्रेषण क्षमता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं –

कलकलहिन दाई मोला गारी दिही
भइया हे ग़ुस्सेला मोला मारी दिही
मोला जावन दे न रे अलबेला मोर
अब्बड़ बेरा होगे मोला जावन दे न…..

लोकगीत –

लक्ष्मण मस्तुरिया जी ने ददरिया , करमा गीत, सुआ गीत, देवार गीत, छेरछेरा गीत, खेल गीत, चंदैनी गीत , भड़ौनी गीत, बिहाव गीत, माता सेवा जैसे अनेक पारंपरिक लोकगीतों की धुनों पर भी गीतों की रचना की। वे ऐसे बिरले कवि थे उनके अनेक गीत उनके जीवन काल में ही लोक-गीत बन गए।

भजन –

मस्तुरिया जी के अनेक गीत आध्यात्म और जीवन की निस्सारता पर आधारित हैं । ये गीत भजन के रूप में बहुत लोकप्रिय हुए –

एक नदिया हे दुइ किनार
ठिकाना ये पर न वो पार
चलो भइया रे, जिनगी के नैय्या धारे धार

जागरुक कवि –

लक्ष्मण मस्तुरिया एक जागरूक कवि थे। वे अपने गीतों के माध्यम से शासकीय योजनाओं का प्रचार भी करते थे। वृक्षारोपण, स्वच्छता, शिक्षा अभियान आदि विषयों पर भी उनकी कलम खूब चली है।

राष्ट्र प्रेम –

मस्तुरिया जी के गीतों में राष्ट्रीयता की भावना कूट कूट कर भरी थी।

आगे सुराज के दिन रे संगी
बाँध ले पागा, साज ले बंडी
करमा गीत गा के आजा रे झुम जा संगी मोर….

सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर –

उनके गीतों में छत्तीसगढ़ के तीर्थ भोरमदेव, राजीव लोचन राजिम जैसे पवित्र स्थलों का महिमा-गान है तो सिरपुर जैसी ऐतिहासिक धरोहर का गुणगान भी देखने को मिलता है।

छत्तीसगढ़ के पर्व –

हरेली, तीजा, पोला, दीवाली, होली जैसे पर्वों पर भी मस्तुरिया जी ने गीतों की रचनाएँ की हैं।

“शब्द चयन”

मस्तुरिया जी ने अपनी रचनाओं में सरल और ठेठ देहाती शब्द का प्रयोग किया है ताकि छत्तीसगढ़ का प्रत्येक व्यक्ति उनकी रचनाओं को समझ सके। उनकी भाषा में ध्वन्यात्मकता के साथ ही साथ अलंकार अपनेआप ही जुड़ते चले जाते थे –

बस्तर के बाँस सरगुजा के साजा बंभरी कउहा के छोइला
कोरबा के बिजली भिलाई के लोहा, बइलाडिला कचलोहिया।

एक अन्य गीत में देखिए शब्द चयन का चमत्कार –

खँड़-खँड़ रुखवा पल-छिन के
सुख-दुख लागे दुइ दुइ दिन के
अरथ अकारथ पाप पुन के
जीना मरना हे मुड़ धुन-धुन के

“छत्तीसगढ़ की उदारता”

अतिथि के रूप में आए शोषक को भी दया और मया बाँटने की उदारता सम्पूर्ण विश्व में केवल छत्तीसगढ़िया में ही पाई जाती है –

काँटा खूँटी के बोवइया, बने बने के नठइया
दया मया ले जा रे मोर गाँव ले….

उदारता की एक और बानगी –
अमरित अमरित बाँट बाँट, मँय जहर पी पी करियागेंव
तुम काट काट के जुरिया गेव, मँय बाँध बाँध के छरियागेंव।

“कृषि और कृषक” –
जब काँध म नाँगर धर-धर के, जौंरा-भौंरा सँग पूत चलँय
होरे-होरे डंका बाजय, जस लड़े समर रजपूत चलँय
मोर कुटुम सरी ठिन्नाती हे, मँय राज सागर के नाती अँव
छत्तीसगढ़ के माटी अँव, मँय छत्तीसगढ़ में माटी अँव।
असाढ़ के महीने में धान बोने का आव्हान,
चल चल गा किसान बोए चली धान असाढ़ आगे गा
और फसल तैयार हो जाने पर लुवाई की तैयारी –

भइया गया किसान हो जा तियार
मूड़ म पागा कान म चोंगी, धर ले हँसिया अउ डोरी ना
चल चल गा भइया लुए चली धान…

“प्रकृति चित्रण”

लक्ष्मण मस्तुरिया जी अपने गीतों में प्रकृति को जीवंत कर देते थे। उनके गीतों को सुन कर ग्राम्य दृश्य आखों के सामने दिखाई देने लगते थे –

हरियर हरियर बँभरी मा सोन के खिनवा
आगे साँझ सोनहा आजा रे हितवा ।
बइहर सँग सँग नाचे मोर करिया करिया बादर
मूड़ ढाँके चन्दा मलमल।के लुगरा झांझर।2

“आक्रोश”

अपना राज्य बन जाने के बाद भी छत्तीसगढ़ियों की उपेक्षा देख कर उनका हृदय पीड़ा से विदीर्ण हो उठता था और आक्रोश गीतों में मचलने लगता था –

जुच्छा गरजै मा बने नहीं अब कड़क के बरसे बर परही
चमचम चमचम चमके मा बने नहीं बन गाज गिरे बर अब परही।

“चेतावनी”

छत्तीसगढ़ के दोहन और शोषण से व्यथित छत्तीसगढ़ का सपूत आततायियों को चेतावनी देने के लिए बाध्य हो जाता है –

मँय सागर हँव जब लहराहूँ, धरती ला सबो भिंजो देहूँ
मोर लहू पियइया बइरी ला, मँय ठाढ़े ठाढ़ निचो देहूँ
फेर दोस मोला झन देहू रे, मँय सांगन धरे कटारी अँव..

“क्रांति के स्वर”

आततायियों को चेतावनी देने के बाद लक्ष्मण मस्तुरिया छत्तीसगढ़िया जन सैलाब को क्रांति लाने के लिए प्रेरित करते हैं –

जागव रे जागव बागी बलिदानी मन
धधकव रे धधकव रे सुलगता आगी मन
महाकाल भैरव लखमी
महामाया सीतला काली मन….

“दर्शन”

लक्ष्मण मस्तुरिया अपने गीतों में जीवन दर्शन को भी बहुत सरल शब्दों में बताया करते थे –

जिनगी म मजा हे अनजाने मा
पीरा के पहार हे जग जाने मा
कोनो सुख पाए छीन नँगाए मा
कोनो सुख पाए बाँट गँवाए मा ।।

“स्थानीय मान्यताएँ”

मस्तुरिया जी ने छत्तीसगढ़ की मान्यताओं को भी अपने गीतों में बड़ी ही कुशलता से चित्रित किया है –

भरे हौंला देखेंव ये शुभ घड़ी आय
अइसन मन म उछाँह हे मन मंगल गाय
तोर संग राम राम के बेरा, भेंट होगे संगवारी
मुस्का के जोहार ले ले…..

“जीवंत दृश्यांकन”

लक्ष्मण मस्तुरिया जी किसी भी दृश्य को गीतों में इतनी सहजता से उकेर देते थे कि गीत सुनते सुनते ऐसा लगता था कि सामने ही घटना घट रही है। एक बानगी देखिए –

घरवाली संग देख सिनेमा आत रहेन एक राती
सीटी बजावत बीच सदर मा एक झन मिलिस सिपाही
गाँव से छोरी लाये भगा के, कहिस चलो तुम थाने
अरज करेंव त घुड़किस – साला करता है तकरार
हम तो लुट गएन सरकार, तुँहर भरे बीच दरबार
खुल्लम खुल्ला राज म तुँहर अहा अनाचार

“नीतिपरक”

गुन बिन नाम रूप बेकाम
ज्ञान बुध बिन सेवा बेदाम
त्याग बिन धन-बल हे हराम
धरम बिन तन हे सरहा चाम
बाढ़े मन गुन गौरव सभिमान
होवै गुरु मात-पिता के मान
भइया हो अइसे करो तुम काम
के जग मा होवै तुँहर नाम …..

“छन्दों की झलक”

मस्तुरिया जी कहते थे – “मैं स्वच्छंद मस्ती के गीत गाता हूँ” । उनके गीत भले छन्द-विधान के अनुरूप नहीं होते थे तथापि छंदों के काफी नजदीक हुआ करते थे।

दोहा छन्द –

धन संपत जोरे बहुत, नइ जावय कुछ साथ
पुरखा पीढ़ी खप गए, सब गे खाली हाथ।।

सवैया छन्द –

बाढ़े चुन्दी घन बादर जइसन आजू बाजू घिर आवत हे
गाल छुवै कभू माथ छुवै, कनिहा छुई गुदगुदावत हे
अँचरा गिर काँध ले घेरी बेरी अपने महिमा ला बखानत हे
दुई दिन मा कस छोटे बड़े लुगरी पोलखा होइ जावत हे।

आल्हा छन्द –

लक्ष्मण मस्तुरिया की वीर गाथा, सोनाखान के आगी का प्रवाह आल्हा छन्द से प्रभावित है –

जिहाँ सिहावा के माथा ले, निकले महानदी के धार
पावन पैरी सिवनाथ तीर, सहर पहर के मंगल हार ।
जिहाँ के मनखे फोरैं पथरा , काटैं लोहा कोइला खान
माटी कोड़ें बंधिया बाँधें, जाँगर टोर उगावैं धान।।

घनाक्षरी छन्द –

धागिनाके नकधिन धिड़कै नगाड़ा बाजै
ढम्मक ढम्मक बाजै झाँझ अउ मँजिरवा
होरी हे होरी हे होरी रंग डारौ तन मन
रस बरसावत हे फाग मा फगुनवा।।

“व्यवस्था पर प्रहार”

अफसर पाकिट मारे सिपाही तब का करही
बिक जाथे कप्तान दरोगा तब का करही
भ्रष्टाचार के गढ़ होवत हे भारत भुइयाँ
मरही भूख ईमान जनता अब का करही।

“आह्वान गीत”

मात्र चौबीस वर्ष की उम्र में दिल्ली के लालकिले से लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ी भाषा में आह्वान किया था, वह गीत छत्तीसगढ़ का अघोषित थीम सांग बन गया। पृथक छत्तीसगढ़ के जन आंदोलन में यह गीत प्रेरणा का मुख्य स्रोत बना। अनेक देशों की भाषाओं में यह गीत रिकार्ड हो चुका है। राजनैतिक दल इस गीत का प्रयोग अपनी चुनावी रैलियों में बरसों से करते आ रहे हैं। यह गीत लक्ष्मण मस्तुरिया का पर्याय बन गया।

मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी
ओ गिरे थके हपटे मन, ओ परे डरे मनखे मन
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी

लक्ष्मण मस्तुरिया का विकल्प छत्तीसगढ़ के साहित्याकाश में दूर दूर तक नजर नहीं आ रहा है। छत्तीसगढ़ में उनके जैसा कवि और गीतकर न अभी तक कोई हुआ है और न भविष्य में कोई हो पायेगा। लक्ष्मण मस्तुरिया ने छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ की पीड़ा को अपने हृदय में समाहित कर लिया था। उनके अधिकांश गीतों में यह पीड़ा दिखाई देती है। उनके गीतों में छत्तीसगढ़ की आत्मा दिखाई देती है। कवि का विश्वास कभी व्यर्थ नहीं जाता। एक न एक दिन उनका स्वप्न पूर्ण होगा और छत्तीसगढ़ जरूर ही खुशहाल होगा।

एक न एक दिन यही माटी के
पीरा रार मचाही रे
नरी कटाही बइरी मन के
नवा सुरुज फेर आही रे…….

आलेख – अरुण कुमार निगम

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *