सबकी गति एक (लघुकथा)
-रामराव वामनकर
”अरे प्रतीक तुम कब आये बेटा ? पिता ने अपने कमरे से बैठक में कदम रखते हुए पूछा ।
”थोड़ी देर पहले ही आया पापा । मेरा मित्र रमण भी आया है । बस उसी के साथ ऐसे ही देश – दुनिया की बातें हो रही थी ।”
”तुम एक नवयुवक को काम पर रखना चाहते थे । क्या हुआ ?”
‘जी, जरुरत तो है किन्तु ऐसे समय में कहाँ हो पायेगा पापा ।”
”अच्छा बेटा, तुम्हारे व्यवसाय का क्या हाल है ?”
”पापा लाकडाउन से अभी सब कारोबार ठप्प है ।.इसीलिये आदमी भी नहीं रखा है । इस वर्ष अपना टर्नओवर भी कम हो जायेगा ।”
”अरे, रमा के भाई के पुत्र का विवाह है, जाने के लिए क्या निश्चय किया । अपनी गाडी से जाने के लिए अनुमती ले लो ।”
” पापा, अभी स्थितियां बहूत खराब है, घर से बाहर जाना ठीक नहीं है । रमा का भी यही मानना है । वैसे भी साले साहब बता रहे थे, प्रशासन ने बिवाह में बीस लोगों से अधिक की अनुमति नहीं दी है ।”
”ठीक है बेटा, मकान की ईएम्आई देना था ।”
”हाँ पापा, कोरोना के कारण उधारी की वसूली संभव नहीं हो सकी है । उन्हें भी क्या कहें पापा, उनके भी धंधे बंद है । कोरोना के कारण हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ।”
”तो, इस प्रकार कैसे काम चलेगा ?”
”पापा, हालात ठीक नहीं है, यह समय किसी प्रकार गुजार लें, बाद में धीरे से सही, लेकिन सब अपने आप ठीक हो जायेगा ।”
”वाह बेटा, अभी तो अपने मित्र के साथ सरकार की कमजोरियां गिना रहे थे, जिस प्रकार तुम इस कोरोना महामारी के कारण अपने आप को मजबूर पा रहे हो, समझो वैसे ही सरकार भी इस आपदा से जूझने में लगी है । यह कठिन समय निकलने के बाद जीडीपी भी ठीक हो जायेगी, रोजगार के अवसर भी निर्मित होंगे और भारतीय रूपये का मूल्य भी ठीक हो जायेगा । ये सब होगा तो मंहगाई भी नियंत्रित हो जायेगी । आगे सरकार की आलोचना करने के पहले ज़रा अपने चश्में को ठीक कर लेना ।”