November 25, 2024

डॉ. राकेश जोशी की ग़ज़लें

0

1
ख़ूब मुनादी करवा दी है, जश्न मनाओ
बस्ती में कल फिर शादी है, जश्न मनाओ

सबसे नीचे दबी हुई है जनता सारी
सबसे ऊपर तो खादी है, जश्न मनाओ

लोकतंत्र में लोक कहाँ है, ये मत पूछो
अपनी तो चाँदी-चाँदी है, जश्न मनाओ

कैसे बेघर लोगों को घर मिल पाएगा
प्रश्न वहीं पर बुनियादी है, जश्न मनाओ

पत्थर फेंको, आग लगाओ, तोड़ो-फोड़ो
आज़ादी ही आज़ादी है, जश्न मनाओ

ऊँची-सी दीवार तुम्हारे-मेरे मन में
शायद फिर से चिनवा दी है, जश्न मनाओ

आधी आबादी दावत में झूम रही है
भूखी आधी आबादी है, जश्न मनाओ

जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत आग लगी है
सहमी-सहमी हर वादी है, जश्न मनाओ

जाने कब ये काम शुरू हो पाएगा, पर
हमने तख़्ती लगवा दी है, जश्न मनाओ

2
लाचारी के दौर में कोई लाचारों के साथ नहीं था
तूफ़ानों के डर से कोई मछुआरों के साथ नहीं था

जंगल, बस्ती जहां कहीं भी आग लगाई थी जिस दिन भी
उस दिन कोई भी अंगारा अंगारों के साथ नहीं था

हर युग में लड़ने वाला हर सैनिक ख़ूब लड़ा था, पर वो
हथियारों के बीच में रहकर हथियारों के साथ नहीं था

सच्चाई के नाम पे जब-जब झूठ छपा था अख़बारों में
अख़बारों का अक्षर-अक्षर अख़बारों के साथ नहीं था

बिकने वाले की कीमत तो तय कर दी बाज़ारों ने, पर
बिकने वाला माल कभी भी बाज़ारों के साथ नहीं था

जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत, भटका लेकिन क्या जानूं मैं
क्यों बंजारा होकर भी मैं बंजारों के साथ नहीं था

3
हर नदी के पास वाला घर तुम्हारा
आसमां में जो भी तारा हर तुम्हारा

बाढ़ आई तो हमारे घर बहे बस
बन गई बिजली तो जगमग घर तुम्हारा

तुम अभी भी आँकड़ों को गढ़ रहे हो
देश भूखा सो गया है पर तुम्हारा

फिर तुम्हें कोई मदारी क्यों कहेगा
छोड़कर जाएगा जब बंदर तुम्हारा

ये ज़मीं इक दिन उसी के नाम पर थी
वो जिसे कहते हो तुम नौकर तुम्हारा

दूर उस फुटपाथ पर जो सो रहा है
उसके कदमों में झुकेगा सर तुम्हारा

4
सर छुपाने के लिए छप्पर नहीं था
लोग कहते हैं कि उसका घर नहीं था

इन ग़रीबों के लिए केवल सड़क थी
दौड़ पड़ने का कोई अवसर नहीं था

जो बनाने के लिए भटका बहुत वो
घर वहीं था, बस वही घर पर नहीं था

हम ही उसके गांव में रहने लगे थे
सच, हमारे गांव में बंदर नहीं था

पांव थे जो चल रहे थे बेवज़ह ही
मैं सफ़र में था, मगर अक्सर नहीं था

आज सब कुछ है मगर है नींद ग़ायब
वो भी दिन थे, नींद थी, बिस्तर नहीं था

फ़्लैट में रहकर अकेले थे बहुत हम
सर पे छत तो थी मगर अंबर नहीं था

गालियां तो हमने थीं जी-भर के दे दीं
हाथ में बस, आपका कॉलर नहीं था

तोड़ देते सभ्यता के कांच सारे
क्या करें पर, हाथ में पत्थर नहीं था

5
अंधियारों से तो ये डर बोलेगा जाकर
दरबारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

ये बोलेगा इससे, उससे वो बोलेगा
सरकारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

तू भी है उस पार कहीं, इस पार कहीं मैं
दीवारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

चांद, समंदर, साजिश, कश्ती, ख़ामोशी है
मछुआरों से कौन मगर बोलेगा जाकर

जंगल-जंगल आग लगी है, बुझना होगा
अंगारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

थोड़ा चूल्हा सुलगाओ कुछ धुआं दिखे तो
बंजारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

क्या लिखना है, क्या लिखते हो, शर्म करो कुछ
अख़बारों से कौन मगर बोलेगा जाकर

6
अगर जंगल में रहना है तो डर क्या है
तेरा है हाथ सर पर तो फ़िकर क्या है

सफ़र क्या है, नदी से पूछकर आना
समंदर क्या बताएगा सफ़र क्या है

अँधेरे में बता मत तू कि है जगमग
उजाले में बता तेरा शहर क्या है

ख़बर वो है जो तुझको ख़ूब चौंका दे
अगर तुझको ख़बर है तो ख़बर क्या है

किसी फुटपाथ पर सोई ग़रीबी से
किसी मज़दूर से पूछो कि घर क्या है

ये बादल तो है अनपढ़ क्या बताएगा
फ़सल ही अब बताएगी ज़हर क्या है

7
मैं कल सारे प्रश्नों के हल सोच रहा था
जीवन में थोड़ी-सी हलचल सोच रहा था

पूछ रहा था दरिया मुझसे हाल मेरा जब
मैं बस्ती की गलियों में नल सोच रहा था

गारे-वारे, कंकड़-वंकड़, पत्थर-वत्थर
कांटों की दुनिया में चप्पल सोच रहा था

तू शहरों में रहकर सोच रहा था जंगल
मैं जंगल में रहकर जंगल सोच रहा था

तुम सर्दी में कल भी सोच रहे थे फैशन
मैं तो कल भी केवल कंबल सोच रहा था

सोच रही है वो मेरे हाथों के छाले
मैं उसके पैरों में पायल सोच रहा था

8
मालामाल नहीं था,भाई
पर, कंगाल नहीं था, भाई

वो बदहाल थे तन से, मन से
मैं बदहाल नहीं था, भाई
.
कैसे आता उसको लेकर
सूरज लाल नहीं था, भाई

मन में थे सब वही इरादे
केवल जाल नहीं था, भाई

तब बारिश लगती थी अच्छी
जब तिरपाल नहीं था, भाई

आसमान के नीचे थोड़ा-
सा पंडाल नहीं था, भाई

उसको कैसे कहता-‘मत बिक’
मेरा माल नहीं था, भाई

मेहनतकश तेरी दुनिया में
तो खुशहाल नहीं था, भाई

हाँ, मौसम तो वैसा ही था
पर, वो साल नहीं था, भाई

9
मत पूछिए कि किस तरह गाड़ी ख़रीद ली
बस्ती कहीं पे फिर से उजाड़ी, ख़रीद ली

तुमसे कहा गया था कि सपने ख़रीद लो
तुमसे उगे न पेड़ तो झाड़ी ख़रीद ली

उसको तो भूख-प्यास से इज़्ज़त बड़ी लगी
जिसने किसी के वास्ते साड़ी ख़रीद ली

उसको मिला है काम कि लहरें गिना करे
उसने समझ लिया है कि खाड़ी ख़रीद ली

दिन भर खड़ा था धूप में, बेचे थे नारियल
पैसे कमा के शाम को ताड़ी ख़रीद ली

सोने को उसको आज भी थोड़ी सड़क मिली
तुमने ज़मीन आज भी आड़ी ख़रीद ली

10
सारी दुनिया को कुछ ऐसे अच्छा रखने की कोशिश है
तेरे हिस्से में हरियाली ज़्यादा रखने की कोशिश है

इस धरती को, इस अंबर को, इस जंगल, इस पर्वत को
जैसा तुमने सौंप दिया था, वैसा रखने की कोशिश है

अब भी पतझड़ के मौसम में पत्ता-पत्ता झड़ता हूँ मैं
ख़ुद के भीतर ख़ुद को हर दिन ज़िंदा रखने की कोशिश है

सपने सारे रख आया हूं चिड़िया के मैं पंखों पर
सबसे ऊपर तेरा वाला सपना रखने की कोशिश है

नदियों को दे आने की है कोशिश थोड़ा-सा पानी
पेड़ों के नीचे थोड़ी-सी छाया रखने की कोशिश है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *