November 21, 2024

कहीं शोक का शमन करने वाली ,अपने ताप से मन शीतल करने वाली ,अपने तेज से घर का कोना-कोना सुवासित करने वाली हवन की अग्नि और वही अग्नि धू-धू कर जल ती हुई चिता से जब निकलती है तो मन हाहाकार कर उठता है।
प्रशांत की मनःस्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। अनगिन चिताओं की अग्नि उसके तन और मन को तप्त कर रही थी । धीर- गंभीर, शांत रहने वाला प्रशांत ऊपर से तो धैर्य धारण किए था पर मन उसका उन्हीं चिताओं की अग्नि की भांति उद्विग्न हो रहा था ।श्मशान के बाहर अंतिम संस्कार के लिए आयीं शव गाड़ियों की लम्बी लाइन लगी थी। उसे मालूम है कि जीवन क्षण भंगुर है पर जीवन का अंत इतनी भयावह पीड़ा के साथ …..। कोरोना की महामारी ने अपनों की सेवा करने तक से मरहूम कर दिया ….. मरीज के लिए अस्पताल में बेड नहीं, बेड मिला तो ऑक्सीजन नहीं, एक-एक साँस का मोहताज होना पड़ा और फिर भी परिणाम क्या ?? शून्य….!!
कोरोना की विभीषिका में जहां वह दूसरों की मृत्यु का समाचार सुनता आ रहा था आज उसकी सास कोरोना का ग्रास बन गयीं थीं l यूं तो दूर का रिश्ता हुआ न ! वह उसकी माँ तो थीं नहीं ……नहीं -नहीं उसकी अपनी पत्नी की मां थीं ,कोरोना का शिकार हो गई थीं ,हमेशा उसे बेटा कह कर संबोधित करती थीं…कितना ध्यान रखती थीं उसका ….प्रशांत की स्मृतियों में सब उमड़- घुमड़ रहा था ।
उसकी पत्नी का रो- रो कर बुरा हाल था।प्रशांत की आंखे भी आंसुओं से लाल हो गयीं थीं ।मां तो मां ही होती है ,अपनी माँ हो…. या पत्नी की,उस जीवनसंगिनी की माँ जो जीवनसंगिनी सब कुछ छोड़ प्रशांत के साथ चली आई थी, आज माँ के विछोह से व्याकुल थी ,उसकी पीड़ा, उसका दर्द आंखों से बहता जा रहा था ।
” प्रिया! मैं हूं न तुम्हारे साथ… मैं हूं “प्रशांत के स्नेह भरे शब्द प्रिया के लिए संबल के समान थे।
” प्रशांत ! भैया को कानपुर फोन कर दो वह वह लखनऊ आ जाएंगे ” प्रिया ने आँसू पोछते हुए प्रशांत से धीरे से कहा
प्रशांत ने फोन लगाया ” भाई साहब !….आपको एक दुःखद सूचना देनी है …..वो मम्मी जी को कोरोना ने……मेरा मतलब मम्मी जी अब इस दुनियां में……” कहते हुए प्रशांत की आवाज रुंध गई थी ।

“ओह क्या मम्मी अब ……”…फोन से एक जोर की
चीख निकली, पर दूसरे ही पल आवाज सम्हल गयी थी “..प्रशांत ! कितना दुःखद समाचार आपने सुना दिया …… मां का नहीं होना ….क्या कहूं समझ में नहीं आ रहा….. मेरे भी छोटे – छोटे बच्चे हैं,वाइफ की भी तबीयत ठीक नहीं ….. क्या करूं…. कुछ समझ नहीं आ रहा ,मैं आना चाहता हूँ पर….. आप संभाल लीजिएगा….मैं बहुत दुःखी हूँ …बहुत ..लेकिन मैं…. वो लॉक डाउन…वो…”फोन पर आवाज मद्धम हो गयी थी।

“मैं तो करूंगा ही सब कुछ पर आप तो उनके एकमात्र बेटे हैं…अकेले आ जाइए, आपकी माँ के अंतिम दर्शन……..”बात अधूरी ही रह गयी, फोन कट गया था,

प्रशांत की क्रोधाग्नि और जलती चिताओं की अग्नि से निकलते स्वेद बिंदु प्रशांत के कानों के नीचे टपकने लग गये और उन स्वेद बिंदुओं के साथ उसकी आंख से निकलती आंसू की लड़ियां भी एकमेक हो रही थी। एंबुलेंस में उसकी सास का मृत शरीर रखा था ।कोई साथ नहीं, लोगों की भीड़ में वो निपट अकेला था वहाँ। प्रशांत की दृष्टि आकाश की ओर टिक गई ‘ हे ईश्वर ! इससे बुरा दिन क्या होगा कि अपनी मां की अंत्येष्टि में अपना बेटा न आए …रिश्ते नाते तो दूर की बात पर अपना बेटा ही ….ये कैसा जीवन औऱ ये कैसा जीवन का अंत ??इससे बुरा क्या हो सकता है ??”
ईश्वर मानों प्रशांत को चुनौती ही दे रहा था ।दो दिन बाद ही प्रशांत की छोटी बहन के पति कोरोना के कारण अस्पताल में भर्ती हुए और उनका ऑक्सीजन लेवल घट गया और उनका देहांत हो गया । प्रशांत के ऊपर तो जैसे वज्रपात हो गया ।छोटी बहन को य़ह बात बताने की हिम्मत नहीं रही थी। कैसे बताए इतना कठोर सच ….।

प्रशांत अपने घर में बने छोटे से मंदिर के आगे फफक- फफक कर रो पड़ा ” हे ईश्वर, तुमने तो मुझे सच
में चुनौती दे दी कि इससे बुरा भी हो सकता है…है न! भगवान !! क्यों भगवान !मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, सबका भला करता आया हूं…. कितने असहाय लोगों का केस मुफ्त में लड़ता आया हूं …..फिर मुझे इतना दुख….इतना कष्ट…. तुम…तुम क्या पत्थर के हो भगवान, इन तस्वीरों में जड़े सब कुछ देख रहे बस मुस्कुराते रहते हो!!… तुम्हें क्यों नहीं दुख हो रहा प्रभु !! … तुमने मुझे चुनौती दे दी देखो इससे भी बुरा हो सकता है …..मैं हार गया हूं प्रभु!….. कैसे ….कैसे बताऊंगा, कैसे ….? इतना दुख, इतनी पीड़ा सहकर कैसे जी पाऊंगा …..नहीं जी पाऊंगा …नहीं जी पाऊंगा…” प्रशांत की हिचकियां बँध गयीं थी । तभी प्रशांत ने अपने कंधे पर स्नेहिल स्पर्श महसूस किया, ।वह स्पर्श संजीवनी सा था, जीवन की अथाह पीड़ा के सागर से उबार लेने वाले खेवनहार की तरह ।उसका स्पर्श ,उसकी आँखें निःशब्द हो जो अभिव्यक्त कर थीं वो प्रशांत महसूस कर पा रहा था।उसकी जीवन संगिनी प्रिया प्रशांत को सहला रही थी ।प्रशांत ने प्रिया का हाथ अपने हाथों में जकड़ लिया ….हाँ, प्रशांत अब किसी भी चुनौती का सामना करने को तैयार था।

-लेखिका
डॉ जया आनंद
प्रवक्ता, (मुम्बई)
स्वतंत्र लेखन

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