डिम्पल राठौड़ की दो कविताएं
औरत
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औरतों के देह में होती है
एक अलग गंध
जिससे महकता है पुरुष
औरत की देह में होता है पसीना
जिससे झुंझला जाता है पुरुष
औरतों की देह में होता है आकर्षण
जिसमें खोये रहना चाहता है पुरुष
औरत की देह में होती है थकान
जिससे ऊब जाता है पुरुष
औरतों की देह में खोजता है वासना की ज्वाला
जिसमें जल जाना चाहता है पुरुष
औरत की देह में होती है चूल्हे की आग
जिससे तप जाता है पुरुष..
औरतों से होती है औरत
औरतों को जानती है औरत
औरतों को देखती है औरत
औरतों पर झुँझलाती है औरत
औरत देखती है औरतों के पास पुरुष
औरत हर लम्हा देखती है कहीं
औरतों की ही तरह
हर रात महकती है,
गमकती है,
इठलाती है औरत..
औरत सुबह की पहली किरण से ही
औरत से औरत बन जाती है
क्या कमाल की होती है औरत
बेमिसाल होती है औरत
एक पुरूष की नज़र में
एक औरत की नज़र में …
क्या-क्या होती है औरत
—
तुम कवि हो
तुम कवि हो कलम तुम्हारा हथियार हैं
तुम अपने अधिकार से भी डर रहे हो!!
तुम हो ज्वाला एक, तपन में मर रहे हो
तुम क्रांति हो एक, घुँघरू की आवाज़ सुन रहे हो
तुम हो एक उजला सवेरा, धुन्ध से घिर रहे हो
तुम हो एक चमकता सितारा, झुण्ड में खड़े हो
कालसर्प हो तुम, पिटारी में पड़े हो,
खुला आसमान हैं तुम्हारे पास
पंख फैलाने से तुम डर रहे हो
तुम्हें डर हैं विद्रोह होगा, तुम इसी सोच में मर रहे हो
तुमसे उम्मीद है इस युवा पीढ़ी को
तुम अपने साथ-साथ, डर से इनको भयभीत कर रहे हो
तुम कवि हो, कलम तुम्हारा हथियार है
तुम अपने अधिकार से डर रहे हो!!
तुम नया सवेरा हो भावी पीढ़ी का
अपनी कलम में वो ताकत लाओ
जो मिटा दे ऊंच नीच की भावना दिलों से
अपने शब्दों से इन युवा को समझाओ
तुम तीर हो, पा सकते हो अपना लक्ष्य
इस लक्ष्य को अब तुम भेद जाओ
विद्रोह के डर से तुम यूं न मूकबधिर बन जाओ
उठाओ ये जाति धर्म का पर्दा
इंसान को इंसान की अहमियत समझाओ
लिख दो वो हर शब्द जो भर दे जान
युवा पीढ़ी में
ना भटके फिर कोई इस बीहड़ में
तुम्हारे शब्दों से एक उजला सवेरा हो
इस सवेरे में तुम अब खुद को पाओ
तुम कवि हो अपने हथियार को यूं ना भूल जाओ
चूरू (राजस्थान)