“जाति” जाती नहीं
जाति है कि जाती ही नहीं
नहीं छोड़ती पीछा कभी
छोड़ कर भागना भी चाहे शन्नो
जाति भी दौड़ते-दौड़ते
पहुँच जाती है वहीं
शन्नो ने पाया जो भी पद अबतक
उस पद का फॉर्म तक भी
पूछ बैठता था उसकी जाति
एक बार उसने इसे छिपाना चाहा
उसने नाम को थोड़ा बड़ा
जाति को लिखा छोटा-सा
उसे लगा था वह छिपा लेगी
कतारबद्ध लोगों के बीच अपनी जाति
रखेगी वह उसे बनाकर रहस्यमयी
अपने और फॉर्म लेने वाले के बीच
फिर भी उसने पाया
शर्मा जी का बेटा उचक कर
देखने को आतुर था उसी कॉलम को
जहाँ समेटी थी शन्नो ने जाति
जब नहीं देख पाया कुछ भी
तो वह पूछ ही बैठा
वर्तमान समय का सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल
कौन जाति हो भई?
जवाब में शन्नो ने “चमार” बताया
सुनकर बेटा कुछ न बोल पाया
लेकिन एक अस्पष्ट गाली देकर
बना ली थी उसने शन्नो से दूरी
शन्नो ने भी दी वही गाली
जाति निर्माता को जिसे उसने तब दी थी
बचपन में जब उस अबोध बच्ची को
स्कूल मिड डे मील की लाइन से
निकाल बाहर बैठा दिया था दूर कहीं
पूछ कर उसकी जाति
कहा गया था उससे
खाना मिलेगा तुम्हें यहीं पर ही
एक घण्टे बैठने के बाद भी
अंत में कहा गया था उस से
खाना बचा ही नहीं
उसी दिन शन्नो ने त्याग दिया था
उस भुखमरों की लाइन को
जो जाति के नाम पर
भरते थे पेट भरे हुओं का
अब शन्नो डॉक्टर बनने के बाद
जब जाती है फ़ख्र से कहीं भी
वहाँ भी घेर ही लेती है जाति
उसे याद है महीना पहले
ले जाना चाहती थी सोनम उसे
भाई की शादी में जबरदस्ती
पर शन्नो थी कि पैरों को बढ़ा नहीं रही थी
उसे पता था बारात गाँव को जानी है
गाँव व शहर के बीच पटे
जाति के फासले से शन्नो
अनभिज्ञ तो बिलकुल नहीं थी
सोनम की जबरदस्ती उसे ले ही गयी
दोनों के बीच जाति कभी नहीं आई
पता नहीं शादी में कैसे वह
बिन बुलाए चली आई
आने की आहट तब महसूस हुई
जब सोनम के साथ बैठे औरतों के झुंड से
एक आवाज शन्नो के कानों में दौड़कर आई
“देखो चमारिन चली आई”
सुनकर अंतर्मन पर उसके
जैसे हथौड़े की मार हो पड़ी
उसने चीखती हुई एक आवाज़
भीतर ही भीतर सुनी
जाति कभी भी जाएगी नहीं।
मनीषा
शोधार्थी
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्विद्यालय
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ई-मेल –Manishagauraniya@gmail.com