April 8, 2025

लोक साहित्य सनातन काल से समाज के वंचित लोगों की आवाज है!

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लोक साहित्य का पिछले 200 सालों में जो सृजन हुआ या कबीर, सूर, मीरा, तुलसी आदि का जो लोक साहित्य है और हजारों साल के क्लासिकल ग्रंथों में जिन लोक कथाओं को स्थान मिला, वे सभी समाज के कमजोर और वंचित लोगों की आवाजें हैं। महाभारत में नल– दमयंती और शकुंतला– दुष्यंत की कथा की उपस्थिति लोक कथा के रूप में ही है।

जुआ में हारने के बाद युधिष्ठिर जब निराश थे, एक ऋषि ने उनमें आशा पैदा करने के लिए नल और दमयंती की कथा सुनाई। नल भी जुआ में अपना राजपाट हार गया था, पर अन्ततः संघर्ष से गुजर कर फिर पा गया। फर्क यह था कि नल ने राजपाट हारने के बाद जुआ में दमयंती को दांव पर नहीं लगाया था, जबकि युधिष्ठिर ने द्रौपदी को वस्तु बनाकर दांव पर लगा दिया था। इससे लोक कथा में स्त्री के स्वत्व को मिले महत्व का बोध होता है! शास्त्र में स्त्री वस्तु है, लोक में वह गरिमा से भरी है। लोक साहित्य शास्त्र से एक आत्मीय द्वंद्व है!

सूर एक पद में कहते हैं, ’जा दिन श्याम मिले सो नीको’! भद्रा या भरनी नक्षत्र हुआ तो क्या, किसी को छींक आ गई तो क्या, कृष्ण से मिलने के लिए हर क्षण शुभ है! गोपिकाएं धर्म ग्रंथों और ज्योतिष को मानने से इंकार कर देती हैं!
यह चीज छठ पर्व तक है, जिसमें स्त्री न सिर्फ अपना स्वत्व घोषित करती है, बल्कि पुरोहित वर्ग को परिदृश्य से बिलकुल हटा देती है! जो स्त्री पहले हिम्मत दिखाती थी, उसे अब ऐसे लोक गीतों और लोक संस्कृति से बांधने की कोशिश हो रही है जो अंधविश्वासों से भरी है।

राजस्थान की एक जनजातीय लोककथा सीता से संबंधित है। राम द्वारा सीता को त्याग देने के बाद जब लक्ष्मण निर्दयतापूर्वक उन्हें जंगल में छोड़ देते हैं, सीता बेहोश हो जाती है। तभी चार हिरण उनकी सुरक्षा में उन्हें घेर कर बैठ जाते हैं। कौआ आता है और कांव–कांव करके पक्षियों को बुला लेता है। कबूतर आता है और बेहोश सीता को अपने पंख से हवा करने लगता है। बगुला आता है, वह झील से चोंच में पानी लाता है और सीता के चेहरे पर डालता है और जल पिलाता है। गिद्ध आता है, वह गूलर का फल पेड़ से लाकर खिलाता है! यह भी एक लोककथा है जो ’राज्य’ के समानांतर प्रकृति का न्याय है! लोक साहित्य में प्रकृति से निकटता है, समानता की आवाज है और श्रेष्ठि वर्गों की जगह श्रमजीवियों के जीवन का सौंदर्य है!

लोक साहित्य इस अर्थ में भी जीवंत है कि उसका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरण ही नहीं रूपांतरण भी होता रहा है। महाभारत की शकुंतला की कथा को कालिदास ने अपनी महान कृति ’अभिज्ञान शाकुन्तलम’ में नई जगह दी।इसपर भी गौर करना चाहिए ज्यादा लोकगीत स्त्रियों की विवशता को उजागर करते हैं, उनमें स्त्रियों की आवाज है। मानो स्त्रियां न होतीं तो लोक गीत न होते!

मीरा छप्पन भोग को दागों से भरा बताती हैं और कहती हैं, मेरे कृष्ण को तो सादा साग पसंद है! आज मीरा से बड़ा भक्त कौन है?
तुलसी के मानस में केवट राम के चरण धोने के लिए कहता है, उसे डर है कि राम की वजह से उसकी नाव अहल्या जैसी कुछ बन गई तो उसकी आजीविका छिन जाएगी! आजीविका का क्या महत्व है, यह आज किसी से छिपा नहीं है! केवट संदेह करता है और साहस से अपनी बात कहता है! लोक चेतना का एक प्रमुख गुण है संदेह करना और साहस से अपनी बात कहना!

लोक साहित्य हर युग में हृदय से हृदय के बीच सार्वभौम पुल है। वह दीवारें नहीं खड़ा करता। लोक कथाएं आज भी स्मृति में हैं, हालांकि हाल के दशकों के मनोरंजन उद्योगों द्वारा व्यापक विकृतिकरण और झुंड संस्कृति द्वारा फैलाए गए अंधविश्वासों के बावजूद वे मिटाई नहीं जा सकी हैं। फिर भी उनके द्वारा ’भावनात्मक सतहीकरण’ के प्रयास हुए हैं और हो रहे हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्म में ’ बीड़ी जलाई ले जिगरे से पिया’ हो या अंधविश्वासों को ही लोक साहित्य बनाकर उपस्थित करने के प्रयत्न हों, ये भावनात्मक सतहीकरण के विभिन्न रूप हैं!

लोक साहित्य स्थानीयता को उकसाने वाले ’पावर डायनेमिक्स’ का अंग नहीं, वह शोषित मानवता की आवाज है! उसमें चंदन है और अग्नि भी। चंदन अर्थात जीवन की शीतल सुगंध और अग्नि अर्थात जीवन को तपा कर खरा बना देना! जीवन की हर आराधना में दोनों चीजें चाहिए– चंदन और अग्नि! हमें लोक साहित्य को बाजार द्वारा विकृतिकरण और सांस्कृतिक प्रिमिटिविज्म से मुक्त करना होगा! उसके सौंदर्य तत्व और अग्नि तत्व को बचाना होगा!!

हिंदी की वास्तविक जननी हैं इस विशाल क्षेत्र की 50 लोक भाषाएं। ये लोक भाषाएं ही हिंदी की माएं हैं! हमारे देश की राष्ट्रीय भाषाओं में हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसमें लोक भाषाएं अपनी उदात्त चेतना के साथ बची हुई हैं और उनमें मुखरता है। इन सभी भाषाओं के महान लोक साहित्य और इनकी महान परंपराओं का नए सिरे से अध्ययन जरूरी है। केवल एक–दो लोक भाषाओं तक सीमित रहने से काम नहीं चलेगा। बल्कि हिंदी क्षेत्र के हजारों साल के लोक साहित्य का नए परिप्रेक्ष्य में अध्ययन जरूरी है।

लोक साहित्य के अध्ययन को ’ग्रेट ट्रेडीशन –लिटिल ट्रेडीशन’ या ’हाई कल्चर– लो कल्चर’ जैसी पश्चिमी धारणाओं से बचाना होगा। लोक साहित्य न ’लो ट्रेडीशन’ है और न ’लो कल्चर’ है। वह अंधविश्वास का भी पर्याय नहीं है। वह भारत की महान समावेशी आत्मा की आवाज है। वह जीवन की अच्छाइयों और सुंदरताओं की अभिव्यक्ति है। वह झुमा– झुमाकर सुलाने वाली चीज नहीं आनंदोदबुद्ध कर जगाने वाली लोकचेतना है!

लोक साहित्य का महत्व सांस्कृतिक पहचान और विश्वासों के एक प्रमुख तत्व के रूप में ही नहीं है। उसे जतसार, संस्कार गीत, कजरी, चैता आदि तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए। अवधी में हिरण को खो चुकी हिरणी की एक मार्मिक आवाज है, ’छावक पेड़ छिउलिया…’ यहां तक लोक साहित्य का विस्तार है।

हिंदी लोक साहित्य के अध्ययन का अर्थ है, हिंदी क्षेत्र की 50 लोक भाषाओं के साहित्य का अध्ययन। पिछले 200 सालों के लोक साहित्य में विदेसिया– संस्कृति एक प्रमुख यथार्थ है, पर लोक साहित्य का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जिसका संबंध 1857 के स्वाधीनता संघर्ष, किसानों के श्रम और समाज के कमजोर वर्गों की आवाज से है।

इसपर भी गौर करना चाहिए ज्यादा लोकगीत स्त्रियों की विवशता को उजागर करते हैं, उनमें स्त्रियों की आवाज है। मानो स्त्रियां न होतीं तो लोक गीत न होते! स्त्रियां मिलकर गाती हैं, मिलकर नाचती हैं। लोक साहित्य अहिंसक सामूहिकता की एक उदात्त आवाज है! – प्रो शंभुनाथ

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