डिम्पल राठौड़ की कविताएं
नीम बेहोशी में
खोई रहती हूँ
सोई रहती हूँ
देखती हूँ रोज़ एक स्वप्न
ये दुनिया तबाह हो रही है
समन्दर ने ले लिया है विकराल रूप
पूरा संसार जलमग्न हो रहा है
मेरा परिवार मुझे ढूँढ रहा है
मै किसी ऐसी जगह गुम हूँ
खुद को चट्टानों के बीच
जल की गहराई में पाती हूँ
ताजुब्ब ये कि मुझे तैरना नहीं आता
पर मैं ही बचा रही हूँ सृष्टि
जाने कैसे कौतूहल में उलझी रहती हूँ
कभी समंदर, कभी झरने, कभी दूर तलक फैला रेगिस्तान
वेवजह सपनों में भटकती हूँ
ये सब मुझे क्या कहना चाहते है?
मुझे मरने से डर लगता है
बहुत ख्वाहिशें अधूरी है अभी
यही उलझन मेरे जीवन को
उलझा रही है
वो क्या है जिसने मुझे लड़ने का साहस दिया
वो कौनसी शक्ति है,
जिसने मुझे कभी हारने नहीं दिया
जवाब सिर्फ एक है इच्छाशक्ति
अगर मुझे जीना है तो लड़ना है जीवनभर
एक स्त्री के जीवन में कितने ही कष्ट हो
उसे जीना है
उसे जीतना है
चट्टाने, समन्दर, रेगिस्तान
सब है उसके भीतर
जिसे किसी स्वप्न सदृश दृश्यों में
वो रोज़ पार करती है…