कविता-मजदूर है हम….
हल भी चलाएं और बीज भी बोए ।
सबको खिलाए और हम भूखे सोए ।।
कितने लाचार मजबूर है हम ।
क्योंकि सदियों से मजदूर है हम….
छैनी-हथौड़ा उठाएं पत्थर बजरी ढोए ।
भव्य महल बनाए और झोंपड़ी में रोए ।।
श्रम की थकन से चूर है हम ।
क्योंकि सदियों से मजदूर है हम…..
कल-पुर्जे चलाए और धातु भी गलाएं ।
अपने पसीने से नहरे और बांध बनाएं ।।
युगों से टूटा हुआ गुरुर है हम ।
क्योंकि सदियों से मजदूर है हम….
गांव और शहरों को स्वच्छ बनाएं ।
फिर अपनी बस्तियां क्यों दूर बसाएं ।।
शिक्षा और विकास से दूर है हम ।
क्योंकि सदियों से मजदूर है हम….
2. ग़ज़ल
अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़अल
तक़ती : 1222 1222 1222 12
किसी रोते हुए चेहरे की मुस्कान बनो।
दबे, कुचले, मज़लूमों की ज़ुबान बनो।।
क्यों करते हो हंगामा क़ौम के नाम पर,
बनना ही है तो एक अदद इंसान बनो।
कब तक खिंचोगे यूँ एक दूजे की टाँग,
जिनके पर नुच गए उनकी उड़ान बनो।
मिले सबको मुकम्मल आशियाने यहाँ,
किसी की ज़मीं किसी का आसमान बनो।
बदल डालो इन सब पुरानी रवायतों को,
अब तो इंसानियत की नई पहचान बनो।
इतना ज़हर कहाँ से लाते हो ए “निर्मोही”,
भुलाकर रंजिशें ख़ुशियों का जहान बनो।
©️ श्याम निर्मोही
बीकानेर राजस्थान
8233209330