लक्ष्मीकांत मुकुल की दो कविताएं
विस्तृत है पिता
पर्वत की तरह अटल हैं पिता
जिसकी सीधी ढलान से पाए हैं
हम ऊपर चढ़ने का हौसला
जिसकी चोटी से दिखती है दूर तक की दुनिया
जिसके विस्तार से पापा हूं अद्भुत ज्ञान
कि केवल हम ही नहीं हैं इस धरती पर
हमसे भी हैं कर्मठ और साहसी लोग
छतनार वृक्ष की तरह स्थिर है पिता
अनगनित डालियों ,फूल, पत्तियों से लदे
जिससे पाया है हमने कड़ी धूप
सहकर भी छाया देने की कला
अंधड़ों से जूझने का हौसला
अपनी जमीन से जकड़े रहने का सलीका
समुद्र की तरह अथाह है पिता
जिसकी नाव पर तैरता कोई यात्री
जोह लेता है दुनिया के अद्भुत रहस्य
वैसे ही उनके कंधों पर चढ़कर हम घूमते परिचित होते थे अनदेखी गलियां , सड़कें और मेले के संकरे मार्ग
गहरे कुएं की मानिंद है पिता
मेरे उदास बचपन को भरते हुए स्नेह के मीठे जल से उनके आवाज से गूंज उठते थे ढोल
जो हमारे खेल के मैदान तक पहुंचते थे
कि चलो शाम का वक्त हो चला
आकाश की तरह विस्तृत है पिता
जिनसे मिलता हूं मैं जैसे धरती की कोर को
छूता है क्षितिज !
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पिता की सीख
अपने बच्चों को
सिखाना चाहता हूं कि बाज के चुज्जों की तरह
साहस के साथ उड़ना
अपनी अकर्मण्यता के विरुद्ध
नदी किनारे के वृक्षों की तरह बढ़ना
चाहे तुमको कितनी ही चोटिल बनाए
भादो की बाढ़
बेहया के फूलों की तरह सदा मुस्काना
जो तप्त मई में भी जीवित रखते हैं अपने प्राण
अंधड़ के समय लेट जाना धरती पर
नर्म मुलायम घास की तरह
तुम्हारेे पांव को नहीं उखाड़ पाएगा
कोई प्रचंड वायु वेग
तुम कभी बिकना नहीं वन लकड़ियों के मोल
कोई शातिर सौदागर लूट नहीं पाए तुम्हारा जमीर
पढ़ते हुए शब्दों के पार अर्थों पर रखना ध्यान
सामने वाले चेहरे के बरक्स उसके चलन पर नजर
जीवन में मामूली – सी चीजों को न करना
कभी नजरअंदाज
कहते हैं कि गांव का धतूरा भी
समय पर आता है बहुत काम !