November 23, 2024

महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव पर विशेष

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आदिवासियों के लिए भगवान तुल्य, दानवीर एवं प्रजावत्सल राजा का दूसरा नाम प्रवीरचंद्र भंजदेव था। हिंदुस्तान के नक्शे में बस्तर एकमात्र ऐसी रियासत थी जिसके महाराजा ने अपनी प्रजा की हित रक्षा के लिए व्यवस्था का घोर विरोध किया था। स्वातंत्र्योत्तर काल में जब देश के सभी राजे महाराजाओं की पगड़ी सत्ता की चौखट पर भूलुंठित हो गई, उस दशा में भी प्रवीर इकलौते ऐसे महाराजा थे जिन्होंने अपनी प्रजा के शोषण के खिलाफ एवं उनके हक के पक्ष में लगातार अपनी आवाज बुलंद की। यद्यपि हक ओ हुकूक की इस लडा़ई की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी पर वे इतिहास में अमर हो गये।
महाराजा प्रवीरचंद्र काकतीय वंश के राजा थे।उनका जन्म महारानी प्रफुल्ल कुमारी की कुक्षी से बड़े सुपुत्र के रूप में हुआ था। बचपन में ही पालकविहीन हो जाने कारण उनका लालन पालन अंग्रेज गवर्नेंस द्वारा किया गया। बताया जाता है कि अंग्रेजों ने बस्तर जैसे विशाल रियासत को कोर्ट आफ वार्डस में लेने साथ ही बाद में सत्तासीन दल ने भी प्रभुत्व कायम करने की कोशिशें की पर प्रवीर उच्च शिक्षित एवं प्रजा के लिए समर्पित राजा थे । इसलिए सत्ता की ये कोशिशें कामयाब नहीं हुई।जिसका खामियाजा बाद में उन्हें शहादत से भुगतना पड़ा।
प्रवीर को प्रजा अपना भगवान मानती थी। वे मां दंतेश्वरी के अखण्ड पुजारी थे। लंदन से शिक्षा ग्रहण कर लौटने के बाद बस्तर का अन्य रियासतों के साथ भारतीय संघ में विलीनीकरण के बाद तत्कालीन सत्ता द्वारा उनकी और बस्तर क्षेत्र की कितनी घोर उपेक्षा की गई , इसका वर्णन उनके द्वारा लिखित पुस्तक ” I Praveer the adivasee god ” में यत्र- तत्र दीख पड़ता है। पुस्तक में वे लिखते हैं कि रियासत विलीनीकरण के बाद स्थानीय नेताओं तथा तत्कालीन सत्ताधारी दल के छल कपट से उनका मोह भंग हो गया और उन्होंने उनके विरोध में अपना परचम लहरा दिया। इसका नतीजा यह रहा कि उनके विरोध और प्रजा पर पकड़ के चलते तब बस्तर से सत्तासीन दल को एक सीट न मिलती। चुनांचे उन दिनों यह कहा जाता था कि तय यह किया गया कि उन्हीं को रास्ते से हटा दिया जाये। वह संभवतः तेरह मार्च सन उन्नीस सौ सढ़सट का दिन था जब आदिवासी अपने शोषण के खिलाफ सैकड़ों की संख्या में महल में इकट्ठे हुए थे। निरीह भोले भाले आदिवासियों के शोषण का यह हाल था कि उनका खून चूसने में व्यापारी, नेता, अधिकारी कोई पीछे नहीं था। इनके बीच बंटमारी का यह आलम था कि एक ओर आदिवासियों की पूंजी जंगल के जंगल को नेता काटकर ले गये वहीं विकास के सरकारी पैसों को अफसरान हड़प लेते थे। व्यापारियों का कहना ही क्या एक किलो नमक के लिए एक किलो चिरौंजी और रुपये की जगह उनके चांदी के सिक्के हथिया लिए जाते थे। इस दशा के चलते आजादी के बीस बरस बाद भी बस्तर में विकास का दूर दूर तक पता न था। विकास का ढाक के तीन पात जैसा हाल था।न वहां उच्च शिक्षा की सुविधा, न बीहड़ क्षेत्रों में आवागमन के साधन न ही राशन एवं जरूरी चीजों की सही वितरण व्यवस्था। प्रवीर इन सारी शोषण को बारीकी से समझते थे। इसीलिए आदिवासियों की पीड़ा से मर्माहत होकर विरोध का झंडा उठा लिया।

व्यक्ति के रूप में प्रवीर प्रजा वत्सल सुशिक्षित राजा थे। दानवीरता उनके व्यक्तित्व का विशेष गुण था। रायपुर वासियों ने बहुतेरे उन्हें नटराज एवं अशोका हाटल की बाल्कनी से रुपये लुटाते देखा है। अलावा इसके उनके महल में भी दान के अनेक किस्से मशहूर हैं। लम्बे घुंघराले बाल एवं सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक प्रवीर जब घोड़े पर सरपट शहर में आते तो राह चलते नागरिक ठिठक जाते थे। सिद्धांतवादी इतने कि एक बार महल में दान करने बैठे। कतार में कोई व्यक्ति दोबारा दान लेने आ गया तो तलवार से उसका हाथ ही उड़ा दिया।कदाचित यह राजसी गुण था जो उनकी रगों में दौड़ रहा था। उनकी दानवीरता का दूसरा उदाहरण हमारे परिवार ने तब देखा जब वे हमारे गृहग्राम राजिम आए थे।हमारे पिता कमलनारायण शर्मा एवं चाचाजी सत्यनारायण शर्मा के हिंदस्पोर्टिंग फुटबाल क्लब में खेलने के कारण राजकुमार कालेज के सभी राजकुमारों से अच्छे संबंध थे। तो उसी मित्रतावश वे राजिम के निकट स्थित हमारे गांव परतेवा गए। चाचाजी बताते थे कि गांव पहुंचने के पूर्व राजीवलोचन के दर्शन के समय अभिभूत होकर उन्होंने अपनी जेब में रखे सारे पैसे भगवान को चढ़ा दिए । राजिम तो मंदिरों की नगरी है तो जब अन्य मंदिरों में गए तो सहजता से कहा सत्तू चढ़ाने को पैसे दो। मेरे सारे पैसे तो मैंने राजीवलोचन में चढ़ा दिए।

बहरहाल वे अपने जीते जी ही मिथक बन गये थे। अपने सभी वैयक्तिक गुणों के बीच सर्वाधिक उनका व्यवस्था के प्रति विरोध का स्वर मुखरित रहा।सत्ता के लिए इसी खतरनाक गुण के चलते उन्हें उनके महल में गोलियों का निशाना बनाया गया जिसकी कहानी महल की दीवारें आज भी कह रही हैं।बताया जाता है कि जब महल में सैकड़ों आदिवासी इकट्ठे हो रहे थे तब महाराजा दंतेश्वरी मंदिर में पूजा में थे। आते समय जब पुजारी ने उन्हें माता के आशीर्वाद स्वरूप माला पहनाई तो वह माला टूटकर गिर गई। पुजारी ने इसे अपशकुन मानकर उन्हें राजमहल जगदलपुर जाने से मना किया पर प्रजा के लिए समर्पित प्रवीर
यह कहकर राजमहल आ गये कि वहां प्रजा उनकी प्रतीक्षा कर रही है। दुर्योग से वह अपशकुन फलित हो गया और महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को शासन ने बगावत का आरोप लगाकर उनके ही राजमहल में गोलियों से भून दिया। छत्तीसगढ़ जैसे शांत प्रांत के इतिहास में यह घटना कलंक बनकर दर्ज हो गई है।
– डॉ सविता पाठक

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