लघुकथाएं
1. दूसरे बेटे का घर
कोविड-सैंटर के हेल्पर ने वृद्धा को उसके अ।टो में बैठाते हुए बताया था, अब मांजी की रिपोर्ट नेगेटिव है। फिर किराए के सौ रुपए देते हुए कहा था, इन्हें बताये पते पर इनके घर पहुंचा देना। मांजी से घर का पता पूछकर जैसे ही वह चला, उसके मन में एक प्रश्न अनायास ही उभर आया-‘इन्हें लेने घर से कोई क्यों नहीं आया?’ पूछने पर वृद्धा ने बताया था-“घर में सिर्फ बेटा और बहू हैं। किसी काम में व्यस्त होंगे शायद, इसलिए नहीं आ पाये।”
वृद्धा के घर पहुंचकर उसने कई बार कॉलबैल बजाई, दरवाजा खटखटाया और आवाज भी लगाई, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। हां, उसकी आवाज सुनकर पड़ोस के घर से एक व्यक्ति जरूर निकल आया, बोला-“कोई दरवाजा नहीं खोलेगा। मांजी को जहां से लाये हो, वहीं छोड़ देना।”
उसे आश्चर्य तो हुआ ही, मन भी खिन्न हो उठा। मांजी को वापस वहीं यानी कोविड-सैंटर में छोड़ दूं! इसके अपने घर में इसके लिए कोई जगह नहीं है! इसे घर में अपने पास रखना तो दूर, बेटा-बहू ने बाहर निकलकर देखा तक नहीं कि उनकी वृद्ध मां कैसी है। आॅटोवाले की नजर कभी ऑटो में बैठी बुद्धा पर जाती, तो कभी घर के बंद दरवाजे पर।
“मांजी, बेटे के घर का दरवाजा आपके लिए बंद हो चुका है, अब कभी नहीं खुलेगा।” कहते हुए उसने ऑटो को स्टार्ट किया और वृद्धा की ओर मुखातिब होते हुए पूछा-“मांजी, अब कहां चलना है, बताओ? वापिस अस्पताल तो मैं आपको छोड़ नहीं सकता। हां, आपके इस अनजान बेटे का घर आपके लिए खुला है। कहो, तो आपको वहां ले चलूं? मुझे मां की ममता मिल जाएगी और आपको दूसरे बेटे का घर।”
वृद्धा ने आखरी बार अपने घर को निहारा और फिर एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोली-‘जहां तुम चाहो, वहीं ले चलो बेटा।”
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2. निरुत्तर
शोरगुल सुनकर अमर सहगल ऑफिस से बाहर निकले, तो देखा, कोठी के गेट के सामने कुछ लोग खड़े हैं, जो देखने में भट्ठा-मजदूर या झुग्गी-झोंपड़ी वाले लगते हैं। पास ही एक फोरव्हीलर खड़ा है, जिसमें उनका कबाड़नुमा सामान भरा है। सहगल ने गेट के पास जाकर देखा, तो उन्हें दूसरी ओर खड़े एक सज्जन नजर आये। यह तो प्रेमभूषण शर्मा हैं, हिंदू जागृति-मंच के अध्यक्ष। लेकिन यह इन मजदूरों को लेकर क्यों आये हैं? सहगल साहब असमंजस में पड़ गये थे।
जानकारी के लिए बता दें, अमर सहगल मुरादाबाद के जाने-माने वकील है। मॉडल टाउन स्थित एक हजार वर्ग गज की आलीशान कोठी में रहते हैं, पत्नी और वह यानी सिर्फ दो जने। बच्चे तो पढ़-लिखकर कब के विदेश में जा बसे हैं। ख़ैर। “आज सुबह-सुबह कैसे आना हुआ शर्मा जी?” उन्होंने पूछा था।
“मंदिर-मस्जिद केस में कल अदालत में आपके द्वारा दी गई दलीलों को सुनकर बहुत अच्छा लगा। वक्फ बोर्ड की ओर से बहस करते हुए आपने मंदिर की छत पर मस्जिद के निर्माण को सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक बताया था। यह सब आज के समाचार-पत्रों में छपा है।”
“जी हां, इसमें गलत भी कुछ नहीं है। इसीलिए मैंने यथास्थिति बहाल रखने की मांग की थी। आखिर मथुरा के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर पर मस्जिद है कि नहीं!” सहगल साहब ने स्पष्ट किया।
“आपके इसी तर्क से प्रभावित होकर हम आपके पास आये हैं।” प्रेमभूषण ने कहना जारी रखा-“ये बेचारे गरीब मजदूर हैं, बेघर हैं। बरसात का मौसम सिर पर है।”
“अरे भाई, तो इससे मेरा या मंदिर-मस्जिद केस का क्या संबंध है?”
“संबंध है, सहगल साहब! ये बेचारे आपकी कोठी की छत पर अपनी झोंपड़ियां डाल लेंगे, तो इनकी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी। आपकी कोठी की लंबी-चौड़ी छत खाली पड़ी है। आप तो कभी ऊपर जाकर भी नहीं देखते होंगे।”
“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है भूषण! तुमने ऐसा सोचा भी कैसे?” गुस्से से तमतमाते हुए सहगल ने पूछा-“मेरे घर की छत पर अपना घर बनाने की बात कोई सोच भी कैसे सकता है?”
“सहगल साहब, जब हमारे भगवान के घर (मंदिर) की छत पर आक्रांता मस्जिद बना सकते हैं, तो आपकी छत पर इन मजदूरों की झोपड़ियां क्यों नहीं बन सकतीं? आपका बयान कोर्ट के रिकॉर्ड में दर्ज है। हम तो उसी का पालन कर रहे हैं।”
अदालत में अपने तर्कों से बड़े-बड़े वकीलों को निरुत्तर कर देने वाले अमर सहगल को आज एक अदने से सामाजिक कार्यकर्ता ने निरंतर कर दिया था।
डॉ रामनिवास ‘मानव’
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