November 24, 2024

अनार्याणां प्रवेश: निषिद्ध

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सुशांत सुप्रिय

पंडित ओंकारनाथ संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । लोग उनके पांडित्य का लोहा मानते थे । पांडित्य उन्हें संस्कारों में मिला था । एक और वस्तु जो उन्हें संस्कारों में मिली थी , वह थी — कुल का गौरव और जातिगत अभिमान । उच्च वर्ण का जातीय अहं उनकी नस-नस में भरा था । उनका मानना था कि उनकी शिराओं और धमनियों में उनके पूर्वजों का शुद्ध वैदिक रक्त प्रवाहित था । गाँधी और अंबेडकर उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते थे । उनके घर के द्वार पर पट्टिका लगी थी जिस पर साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा था : “ अनार्याणां प्रवेश: निषिद्ध: “ ।
आप में से कुछ लोग कहेंगे कि क्या बात करते हो । इस युग में भला यह कैसे सम्भव है ? किंतु ऐसा ही था । यह इक्कीसवीं सदी का वह समय था जब देश की आज़ादी के सात दशक बाद भी उड़ीसा के केंदरपाड़ा ज़िले के क़स्बे केरडागाडा में स्थित एक जगन्नाथ मंदिर में दलितों का प्रवेश निषिद्ध था । जब आंदोलन करने के बाद दलितों ने उस मंदिर में प्रवेश किया तो उस मंदिर के ठेकेदारों ने मंदिर को ‘ अपवित्र ‘ क़रार दे दिया और उसे फिर से ‘ शुद्ध ‘ करने के लिए एक विशेष ‘ शुद्धिकरण ‘ अभियान चलाया । यह इक्कीसवीं सदी का वह समय था जब महाराष्ट्र के ख़ैरलाँजी में एक दलित परिवार की महिलाओं के साथ बलात्कार करने के बाद उस पूरे दलित परिवार की हत्या कर दी गई , पर प्रशासन ख़ामोश रहा । यह वह युग
था जब जब पंडित ओंकारनाथ जैसे पात्र हमारे बीच मौजूद थे जिनके घर के द्वार पर वह पट्टिका मौजूद थी जिस पर साफ़-साफ़ अक्षरों में लिखा था — “ अनार्याणां प्रवेश: निषिद्ध: “ ।
लेकिन पंडितजी जानते थे कि जातीय भेदभाव क़ानूनन अपराध है । जो भी ओंकारनाथ जी के घर के द्वार पर लगी वह पट्टिका पढ़ता , वही पूछता , “ पंडितजी , यह क्या ? “
एक और चीज़ जो पंडितजीको संस्कारों में मिली थी , वह थी चालाकी । लिहाज़ा पूछने पर पंडितजी उत्तर देते , “ अरे भाई , यह आपसे किसने कहा कि ‘ अनार्य ‘ किसी जाति के विरोध का सूचक है ? ‘ अनार्य ‘ का अर्थ तो होता है — ‘ संस्कारहीन ‘ । संस्कारहीन लोगों का प्रवेश मेरे यहाँ वर्जित है । “
किंतु लोग सब जानते थे ।
जैसे ओंकारनाथ , वैसा ही उनका बेटा शंकर । सदियों का उच्च जातीय घमंड और छुआछूत की भावना दोनों में कूट-कूट कर भरी थी । शिक्षा इसे ख़त्म नहीं कर पाई थी ।
पंडित ओंकारनाथ और शंकर वे लोग थे जिन्हें रेगमार , छेनी , खुरपी , हथौड़ा या फावड़ा चलाना नहीं आता था । वे श्लोक कंठस्थ कर सकते थे पर अपने हाँथों से घर के आँगन में झाड़ू नहीं लगा सकते थे । वे वेदों , गीता , रामचरितमानस या पुराणों में से श्लोक पढ कर ‘ शुद्धिकरण ‘ कर सकते थे पर जो लोग बाप-बेटे के लिए सारे काम करते थे , उन्हें वे निम्न मानते थे । हेय दृष्टि से देखते थे ।
कुछ मामलों में शंकर नए युग का लड़का था । उसे मोटर-साइकिल चलाने का बड़ा शौक़ था । पिता ओंकारनाथ को मना कर उसने एक ‘ बाइक ‘ ख़रीद ली थी । पिता के लाख समझाने के बाद भी वह अपनी ‘ बाइक ‘ तीव्र गति से चलाता था । वह ‘ स्पीड ‘ का दीवाना था ।
आख़िर वही हुआ जिसका डर पंडितजी को शुरू से था । एक दिन शंकर की मोटर-साइकिल दुर्घटना-ग्रस्त हो गई । इस ‘ ऐक्सिडेंट ‘ में शंकर बुरी तरह घायल हो गया । लोग उसे उठा कर अस्पताल ले गए । उसे आइ.सी.यू. में भर्ती कराया गया। उसका काफ़ी ख़ून बह चुका था और उसकी हालत नाज़ुक थी ।
पंडितजी को पता चला तो उन्होंने अपना सिर पीट लिया । वह उनका इकलौता बेटा था । वे दौड़े-दौड़े अस्पताल पहुँचे । डॉक्टरों ने बताया कि लड़के को ख़ून चढ़ाना पड़ेगा । समस्या यह थी कि शंकर का ब्लड-ग्रुप ‘ ओ-नेगेटिव ‘ था । इस ब्लड-ग्रुप का ख़ून अस्पताल में मौजूद नहीं था । पंडितजी और उनके रिश्तेदारों ने शंकर को अपना ख़ून देना चाहा । पर उन सब के ख़ून का ‘ ग्रुप ‘ अलग था । इसलिए उनका ख़ून शंकर को नहीं चढ़ाया जा सकता था ।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था , आइ.सी.यू. में शंकर की हालत और नाज़ुक होती जा रही
थी । डॉक्टरों ने साफ़ कह दिया — “ कहीं से भी ‘ ओ-नेगेटिव ‘ ग्रुप का ख़ून जल्दी लाओ । अगर शंकर को जल्दी ही ख़ून नहीं चढ़ाया गया तो उसका बचना मुश्किल है । “
पंडित ओंकारनाथ बेचैनी से आइ.सी.यू. के बाहर टहल रहे थे । रिश्तेदार विभिन्न ब्लड-बैंकों में फ़ोन करके ‘ ओ-नेगेटिव ‘ ग्रुप के ख़ून का पता कर रहे थे , लेकिन विफलता ही उनके हाथ आ रही थी । पंडितजी समझ नहीं पा रहे थे कि वे क्या करें । उनके पास रुपया-पैसा था । वे ख़ून ख़रीद सकते थे । मगर इस विरल ब्लड-ग्रुप का ख़ून कहीं मिल ही नहीं रहा था ।
उनका दिल कर रहा था कि डॉक्टरों को जा कर दो लगाएँ । स्साले झूठ बोल रहे थे । शंकर उनका बेटा था । उनका अपना ख़ून था । फिर वे — पंडित ओंकारनाथ , अपने बेटे को अपना ख़ून क्यों नहीं दे सकते थे ?
इधर समय बीतता जा रहा था , उधर शंकर की हालत बिगड़ती जा रही थी । जब बेटे के बचने की सारी उम्मीदें ख़त्म होती जा रही थीं , तभी ऐसा कुछ हुआ कि पंडित जी आग-बबूला हो गए । हुआ यह कि वार्ड में झाड़ू मारने वाले सफ़ाई कर्मचारी हरीराम को इंसानियत के नाते पंडितजी की हालत पर तरस आ गया । उसने शंकर को अपना ख़ून देने की पेशकश की । डॉक्टरों ने जब उसके ख़ून की जाँच की तो उसे
‘ ओ-नेगेटिव ‘ पाया ।
पर ऐसी लाचारी की हालत में भी पंडितजी को ग़ुस्सा आ गया — यह सफ़ाई वाला अपने-आप को समझता क्या है ? क्या पंडित ओंकारनाथ के बेटे को एक झाड़ू मारने वाले का ख़ून चढ़ेगा ?
अपनी औक़ात देखी है इस दो टके के आदमी ने ? पंडित-जी का रक्त उबलने लगा । तब रिश्तेदारों ने किसी तरह पंडितजी को समझा-बुझा कर शांत किया । कहने लगे — “ शांत दिमाग से सोचिए । बेटे को बचाने का यही एक तरीक़ा है । “
पंडित ओंकारनाथ अजीब दुविधा में फँस गए । उनके हिसाब से एक ओर उनका उच्च कुल , उच्च वर्ण और उनके पुत्र की शिराओं और धमनियों में बह रहा उनके पूर्वजों का सदियों पुराना आर्य-कुल का पवित्र रक्त था । दूसरी ओर किसी अदना सफ़ाई कर्मचारी का न मालूम कैसा ख़ून । क्या वे इस ख़ून को अपने बेटे के रक्त में मिल जाने दें ?
किंतु और कोई चारा न था । आख़िर मन मारकर पंडितजी ने अपने बेटे के जीवन की ख़ातिर हरीराम का ख़ून अपने बेटे को चढ़ाने की अनुमति दे दी । डॉक्टरों ने फटाफट सारा बंदोबस्त कर दिया । ख़ून चढ़ाया जाने लगा ।
उधर हरीराम का ख़ून शंकर को चढ़ाया जा रहा था , इधर पंडित ओंकारनाथ का बुरा हाल हो रहा था । उन्हें लग रहा था जैसे उनका क़द सिकुड़ता जा रहा हो जबकि छोटी-सी हैसियत वाले हरीराम का क़द बढ़ता जा रहा हो , उसका आकार बड़ा होता चला जा रहा हो और वह विकराल आकार जैसे उन्हें दबोच
लेगा ।
आख़िर हरीराम का ओ-नेगेटिव ख़ून रंग लाया । शंकर की हालत सुधरने लगी । थोड़ी देर बाद डॉक्टरों ने उसकी हालत ‘ ख़तरे से बाहर ‘ बताई ।
पंडितजी के रिश्तेदारों के चेहरे खिल गए । पर पंडितजी समझ नहीं पा रहे थे कि वे ख़ुश हों या शोक मनाएँ । उनके बेटे का जीवन तो बच गया था पर वे अब तक जिस विचारधारा के लिए जिए थे , आज इस क्षण वही विचारधारा उनके सामने अंतिम साँसें ले रही थी ।
फिर पंडितजी को एक विचार सूझा । वे किसी का अहसान नहीं लेना चाहते थे । एक सफ़ाई कर्मचारी का तो क़तई नहीं ।
उन्होंने हरीराम को दो हज़ार रुपए दे कर उसका अहसान उतारना चाहा ।
पर हरीराम पंडितजी के रुपए-पैसे की पेशकश देख-सुन कर हँस दिया । उसने केवल इतना कहा — “ साहब , मैं ख़ून नहीं बेचता । इंसानियत की आप क्या क़ीमत लगाएँगे ? “
पंडित ओंकारनाथ को लगा जैसे वे बेहद बौने हो गए हों ।
कुछ दिनों बाद शंकर को अस्पताल से छुट्टी मिल गई और पंडितजी उसे घर ले आए । घर पहुँच कर उन्होंने पहला काम यह किया कि अपने द्वार पर लगी वह पट्टिका उतार कर हटा दी जिस पर साफ़-साफ़ अक्षरों में लिखा था — “ अनार्याणां प्रवेश: निषिद्ध: “ ।

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प्रेषक : सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम् ,
ग़ाज़ियाबाद – 201014
( उ.प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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