November 22, 2024

विशाखा मुलमुले की कविताएँ

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1 ) माँ – मायके की नदी

एक नदी
एक नदी को पार कर
मिलने जाती है एक और नदी से

जैसे भागीरथी
अलकनंदा से गंगा बन
मिलती है यमुना से

मैं मुला – मूठा
इस ग्रीष्म ऋतु में ना सही
बारिश के मौसम में ही
अरपा नदी को पार कर
जा मिलूँगी हसदेव से !

* हसदेव कोरबा की मुख्य नदी )
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2 ) बरसाती खुशियाँ

झुग्गी के पास
बन गया बारिश के पानी से
एक बरसाती तालाब

वहां की औरतों ने
घरकाम में जाने से पहले
तालाब में फीच लिए हैं कपड़े

छुट्टी का दिन है
किताबी सबक की भी है छुट्टी
वहां के अधनंगे बच्चों ने
उसी तालाब में मिलकर
धोई अपने दोस्त की सायकिल

बिजली – सी कौंध थी
उनकी हँसी में
जो बरसाती पानी को भी
न नसीब हुई
जब वह था वहाँ
ऊपर आसमान में

अब उसी तालाब में
बच्चे लगा रहे हैं डुबकियाँ
सीख रहें हैं तैरना
जीवन में अचानक मिली
बरसाती खुशियों में

स्वतंत्रता दिवस है
देखो !
कितने आजाद हैं न ये बच्चे
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3) उनके जाने के बाद

जब घर हरा भरा था
तब उसकी एक चाबी मेरे पास रहा करती थी
आज जब घर खाली है
तब उस घर की सारी चाबियां मेरे पास है

भरे घर में मेरी पहुँच बैठक तक थी
मन के तल में कहीं गहरे तक थी
खाली घर में बस खालीपन था
निचाट सन्नाटा
मौन धरे फुफकार रहा था

वही दीवारें थी
वही खिड़कियां थी
पर अब खालीपन को जकड़े जड खड़ी थी
एक नामालूम अजनबीपन की गंध हवा में तैर रही थी
पुराने रिश्ते की चादर को ज्यों समेट रही थी

घर से नहीं घरवालों से मेरा सम्बंध था
उनके स्थानांतरण के बाद
चाबियां होकर भी
उस घर का दरवाजा मेरे लिए बंद था
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4 ) एक जीवन

अपने हिस्से की जमीन में भी वह रहा करता
सिकुड़ा सिमटा – सा ही
सांस की आवाजाही भी रहती इतनी मद्धम
कि हवा को भी भीतर – बाहर आने – जाने में न हो कोई कष्ट
वह बोलता कम
मुस्कुराता अधिक
ख़ुद को ख़र्च करता उससे भी कम
एक जीवन जिसमें जागरण था बहुत कम

देख कर कभी – कभी यों लगता
जैसे आलस से भरा है उसका पिंड
न कोई आशा , न महत्वाकांक्षा
न कोई आस , न कुछ ख़ास
न किसी बात पर भरोसा , न कुछ भरम

पर , अंत समय गलत साबित की उसने सारी अवधारणाएं
आलस के बनिस्पत अब जन्म से ही निर्लिप्त लगा उसका पिंड
सेवा , सुश्रुषा , प्राणवायु किसी बात की न थी कमी
फिर भी ,
न जीजिविषा
न बैचेनी
न ही देह का दिखा कोई लोभ
अंततः एक सुबह , महामारी के साये तले
शून्य को ताकती उसकी चेतना शून्य में विलीन हुई …
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5) पीछे

शक्कर के पीछे आईं चीटियाँ
गुड़ के पीछे मक्खियां
डबरे में भिनभनाए मच्छर
रोशनी तले पतंगा

फूलों के पीछे आईं तितलियाँ
मधु ढूंढते मधुमक्खियां
हल के पीछे निकले केचुएं
उनके पीछे गौरैया

फसल के पीछे आई टिड्डीयां
मंडियों में बिचौलिया
पेट के पीछे हाडतोड़ मेहनत मजूरी
श्रम के पीछे अस्थि पिंजर हड्डियां

धर्म के पीछे रही राजनीति
सत्ता के पीछे नीतियां
चुनावों के पीछे हुकूमत रही
नियमों की तब उड़ी धज्जियां

लोक के पीछे तंत्र रहा
संस्कृति के पीछे सभ्यता
मूर्तियों के पीछे भक्त रहे
शासन के पीछे दुर्भिसंधियाँ
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6 ) काग स्पर्श

गुलमोहर में बनाये हुए घोसला
वह काग मेरी आत्मा का पड़ोसी है
वह सप्तपर्णी का काग भी उस पड़ोसी का
करीबी रिश्तेदार है

मैं जानती हूँ उन दोनों की देह भाषा
मैं करती हूँ उनकी भूख का लालन – पालन
सुनती हूँ उनकी पुकार
रखती हूं मित्रता की मुंडेर पर रोटी
मछली भरे तालाब से
बगुले की तरह चोंच में भर ले जाते वे रोटी

जब देह से विलग होगी आत्मा
तब उनका स्पर्श एक सूचक होगा
जब काग स्पर्श करेंगे समर्पित भोजन
तब इक सूचना का रूप में घटेगा वह दृश्य
कि , इस जन्म से जुड़ी सारी चाहनाएँ
देह के नए ठौर मिलने तक मुक्त हुई …
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7 )जीवनोत्सव

खुशी गर तुम हो हमारे जीवन में
तो यूँ छुप के न रहा करो
सम्मुख रहो हमारे
चेहरों पर छा जाया करो

दुःख तुम भी हो गर हमारे जीवन में
तो परछाई की तरह रहा करो
चलो भले ही पीछे – पीछे
पर बेड़ियाँ न बना करो

रोशनी गर तुम भी हमारे जीवन में
तो दियासलाई में न रहा करो
सर संघचालक बन उजास का
मार्गप्रशस्त किया करो

अंधकार तुम भी हो गर हमारे जीवन में
तो वक्त पर ही आया करो
बेवक्त आकर रोशनी से
बिन बात न उलझा करो

जीवन तुम सबको लेकर संगसाथ
अनवरत ताल में कदम बढ़ाया करो
प्रखर , मद्धम या बेताल किसी स्वर को
प्रभातफेरी में गूंथ हौले – हौले गुनगुनाया करो
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8 )रंगरेज़

तुम बन गए हो
मेरी यादों में पपड़ी के परत से
बन गई हूँ मैं रंगरेज़
रंगती हूँ , यादों को
मनचाहे रंग से ।

ढकती हूँ तुम्हे हर बार
कुरेदकर गहरे रंग से
कि मेरे जीवन का हल्का रंग
न शामिल हो
तेरे गहरे रंग में ।

कल ,आज और कल को
मैंने रंगा है सुनहरे रंग से
तुम थे शामिल
उथले कभी गहरे नीले रंग से ।

लगी मोर के पंख सी
मेरी यादें ,
इन सारे रंगों से

सजा लिया इसे कभी
अपने मुकुट पर
या रच दिया “मेघदूतम ”
बन कालिदास यादों के पंख से ।

-विशाखा मुलमुले

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