बचपन में दर्ज़ी
■ स्मृतियों की कतरन ■
•|| एक ||•
अभी इस समय दर्ज़ी क्यों याद आ गए कहना कठिन है! जबकि ठीक – ठाक कपड़े पहन कर कहीं जाने के दिन भी बिछुड़े हुए हैं! कब पहले जैसा कपड़ों का जीवन लौटेगा ? कहना मुश्किल है! लेकिन वापस अपनी लय में आएगा ज़रूर , इसका यकीन भी है ।
तो बात दर्ज़ी की शुरू है :
दूसरे , निम्न-मध्यम वर्गीय परिवारों की तरह हमारा पूर्वज-परिवार भी ऐसा था – जहाँ रेडिमेट की गुंजायश न्यूनतम भी नहीं थीं। जो भी कपड़े पहने , वो सिलाई करवाए हुए। चड्डी भी सिली हुई ही पहनी। चुनने की वैसे भी तब कहाँ अनुमति होती , वैसा परिवेश भी नहीं था। त्योहार आदि को देखते कपड़े का थान आ जाता था। तीन भाई। तीनों के कपड़े उसी थान से। “बच जाए तो कपड़े वापस कर देना” के आग्रह के साथ। याद है , जब पिताजी सिले हुए कपड़े लेने जाते तो पहले , थान में कुछ बचा? पूछना नहीं भूलते थे!
बचपन में हम सभी किसी न किसी रूप में अपने-अपने दर्ज़ी को जानते थे। सामूहिक जीने वाले घरों में दर्ज़ी उन दिनों बड़ा सहारा थे। हमारा भी एक दर्ज़ी था। असल में वे पिता के मित्र की तरह थे। कहने को तो वे दर्ज़ी ही थे। लेकिन मेरा उनसे परिचय बतौर सितार वादक हुआ। जबकि मैंने कभी उन्हें सितार बजाते नहीं देखा! हां , उनका सितार ज़रूर देखा था। हांडी पारा में रहा करते थे वे। ढाई मंज़िला मकान। दुकान-मकान एक साथ। दो माले रहने के लिए। ऊपर छत के लिये खुलने वाली सीढ़ी से लगा एक छोटा कमरा। ज़मीन पर बिछी सुर्ख दरी और किनारे पर करीने से रखी लकड़ी की एक पेटी। उसी में रखा होता था सितार।
तात्यापारा में हमारा स्कूल था। सौ कुसुमताई दाबके स्मृति पाठशाला। पहले उसका नाम जानकी देवी महिला पाठशाला हुआ करता था। जब हमें इस स्कूल में दाखिला मिला तो नाम बदल चुका था। वहाँ पढ़ाने वाली सभी टीचरों को बहनजी कहने का चलना था।
— “बहनजी पानी पीने जाएँ ?”
— “बहनजी पिशाब करने जाएँ ?”
अब उनमें से सिर्फ़ एक या दो बची हैं। शेष कोई नहीं ! पढ़ाई का माध्यम , ज़ाहिर तौर पर हिंदी। लेकिन सभी बहनजी मराठी भाषी थीं। छोटी- “इ” कब बड़ी -“ई” बन जाती थी। इसका पता न चले! महाराष्ट्र प्रभाव वाली हिंदी के सहारे ही हम बड़े हुए। उसी स्कूल से पैदल दूरी पर सभी रहते। स्कूल अत्यंत साधारण था। ठीक एक तारीख़ को फ़ीस लेने कमलाबाई [ गैर शैक्षणिक स्टाफ ] घर आ जाती थीं। कमलाबाई को देख कर स्कूल देख लेने का अहसास होता था! उनको देख कर कभी डर नहीं लगता था। जबकि कोई भी बहनजी [ अन्य टीचर ] कभी रास्ते में दिख जाए तो हम पीछे मुड़ जाया करते थे! कमलाबाई कभी डाँटती भी नहीं थी। वो अच्छी लगती थी , इसलिये भी कि रिसेस और छुट्टी होने की घण्टी बजाने का ज़िम्मा कमलाबाई का ही होता था।
× × ×
तो , दर्ज़ी का पुत्र मेरा सहपाठी था। सुबह की कक्षाओं के समय बड़ी रिसेस के दौरान उनका पुत्र कभी -कभार घर ले जाता। पहली बार उसी ने मुझे कौतुक वश पिता का कमरा दिखाया और उसमें रखा हुआ वह सितार। मेरे अनुरोध पर सितार छूने का मौक़ा भी देता। बाद में , “सितार छूने मिलता है” यही आनन्द उसके घर ले जाता। जब जाते तो ऊपरी कमरे पर भी एक विज़िट होती। या कह लीजिए कि मेरा मन सितार देखने की लगन के कारण ही उस घर में जाने के बहाने तलाश करता। मैं पेटी खोलकर एक नज़र सितार देखता और उसके तारों को छू भी लेता। सितार का झंकृत होना ही इतना आनन्दी बनता कि सिर्फ़ वही साउंड सुनने उस कमरे में बहुतेरी मर्तबा जाना हुआ। हो सकता है आगे चलकर तबला सीखने के प्रति उमड़ी ललक के पीछे एक कारण बालमन में सुनी गई उस झनकार का भी कोई रोल हो। उनके घर में मुर्गियाँ भी पाली जाती थीं। अंडे दिए हों तो वह मित्र मुझे अंडे भी चुपचाप दिखाता। लौटते हुए हम दोनों खुश होते। उसे सितार दिखाने का आनन्द मुझे देखने का। लेकिन कक्षा में वापसी पर सितार का दृश्य साथ होता , मुर्गी और अंडे कभी साथ नहीं आए!
बढ़ती उम्र के साथ रुचियाँ बदलीं तो उनका [ दर्जी ]साथ भी छूटा। बाद में बहुत सालों बाद , मुझे देखते ही उनके चहरे में रँगत आ जाती थीं। मेरी सांगीतिक रुचियों से वे परिचित हो चुके थे। मज़ा तो देखिए कि जब कपड़े सिलवाने जाता था तो उनके स्नेह की कोई छाया ख़ुद पर गिरते नहीं देखी। लेकिन जब कपड़े सिलवाने की लय टूटी तो हम अधिक सँवादी हो गए।
“क्या बातें होती होंगी ?” पूछा जाए तो यकीनन संगीत सम्बन्धी। बाद में , बिना कारण मैं उस सड़क से गुजरते हुए उनकी दुकान पर रुक जाया करता था। सितार उनका शौक़ था। और — पेशा कपड़े सिलना। मेरे जीवन में वे पहले ऐसे शख़्स आए जो रोज़ी रोटी के लिए कपड़े सिला करते और मन की सिलवटों को खत्म करने सितार बजाया करते।
सामान्य कद के , लेकिन तना हुआ शरीर। वे कुर्ता-पायजामा बढ़िया सिलते थे। खुद भी यही पहनते। हमेशा इन्हीं वस्त्रों में दिखे। हाँ , कुर्ते की बटन सोने का पानी चढ़ी होती थीं ! उनके कुर्ते में हमेशा ऐसी ही रसूखदार बटनें देखीं। मेरे पिताजी अपना कुर्ता उन्हीं से सिलवाते रहे। उनकी टेबिल पर कपड़े काटने के साथ-साथ कोई और चीज़ होती तो सुपारी काटने का सरोता। नक्काशी दार सरोता। वे पान के शौकीनों में थे। दिन में दुकान खुलने का समय नौ बजे। सुबह का थोड़ा पहले वाला समय उनके रियाज़ का होता। एकाद घण्टे वे सितार बजाते थे। फ़िर नहाने आदि के बाद दुकान का श्रीगणेश होता। घर-दुकान आपसे में होने का फ़ायदा कुछ ऐसा था कि किसी को चाय की दरकार होने पर वे पर्दा , ज़रा-सा खिसका कर चाय ऑर्डर कर दिया करते थे।
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आराम पसन्द और थोड़ा नवाबी ठाठ तबीयत के आदमी थे वे। मसलन , दुकान पर समय से हाजिरी तो हो जाती लेकिन काम पर लग जाने की जल्दबाज़ी से वे ख़ुद को बाहर ही रखते थे। आहिस्ते-आहिस्ते उनके भीतर का दर्ज़ी प्रकट होता। सम्भवत: सितार का रियाज़ कर आएं हों तो उस खुमारी को टूटने में यक़ीननन वक्त तो लगता ही था!
कटने वाला कपड़ा टेबिल पर बाद में बिछता पहले पान लगाने की कारीगरी शुरू होती। गीले कपड़े में लिपटा पान निकलता। सूक्ष्म नज़रों से छंटाई के बाद दो बीड़े बनाने के लिए पान टेबिल में सज जाते। शेष सामग्रियाँ भी अंगड़ाई लेते बाहर आने लगतीं। पहले लकड़ी की गोल स्टीक से चूना। फिर पीतल की डंडी से कत्था। बिना कटी हुई भुनी सुपारी की डिबिया का क्रम भी डोलता हुआ आता! पिछली दफ़ा काम आने के बाद बच चुकी कटी सुपारी को वे हाथों में निकालकर एक नज़र देखते और उसे पान में बुरक देते! इसी समय सरोता डिबिया से सुपारी छाँटते हुए हाथों में पहुँच जाता। फ़िर ज़रूरत के मुताबिक सुपारी कटती और बची हुई डिबिया में। इतना सब करने में ही वे अधिक समय ले लेते। एक पान मुँह में जाने के बाद बारी आती थी कपड़ों की। कपड़ा काटने के पहले ही गले में टेप डल चुका होता था। हालांकि वह उनकी उंगलियों में तभी घूमता जब टेबिल पर कपड़ा बिछ जाए। लेकिन इसके भी पहले ग्राहकों के लिए लगे लंबे आईने में खुद को एक नज़र मारते और अपने गले की तरफ हाथ फेरते न जाने क्या देखते!
“गेड़ेकर टेलर्स” इस नाम से उन्हें पहचाना जाता था ।
कपड़े कटते कैसे हैं? मेरी देखने की उत्सुकता इन्हीं के पास बैठ कर पूरी हो जाती थी। न मालूम क्यों , समय पर कभी भी कपड़ों की डिलीवरी नहीं की! हमेशा पूछने जाने पर अगली कोई तारीख़ पकड़ा दिया करते थे। उस तारीख़ पर हाज़िर होइए तो फिर एक नई तारीख़! वे ऐसा करते क्यों थे समझ में भी ना आए। ना तो उनके पास अधिक ऑर्डर होता। याद है उनकी आलमारी में सिले हुए कपड़ों की जोड़ियां दो-चार ही होती थीं। लेकिन व्यस्तता का बहाने बना कर ग्राहक लौटाने में उन्हें कौन सा परम् सुख मिलता था ? इसे वे ही जानें। त्यौहार में दूसरे दर्ज़ी दीपावली तक “ऑर्डर बंद” की तख्ती टाँग दिया करते थे। जबकि गेड़ेकर टेलर्स के पास ऐसी तख़्ती कभी नहीँ देखी। फिर भी उनकी लेट लतीफी बाद में समझ आई। वो था – ग्राहक के साथ किसी प्रोफेशनल अटैचमेन्ट की बजाय मिजाज़ के मुताबिक़ कपड़े सिलने का ढंग! और इससे कहीं अधिक था , थोड़े में सुकून पा लेने की प्रवृत्ति।
दोपहर भोजन के बाद उनके आराम का समय होता। 4 बजे पुनः वे टेबिल पर हाज़िर हो जाते। पुनः पान प्रसंग घटता। एकाद जोड़ी काटते और उस रोज़ का समापन कर ऊपर लौट जाते। हाँ , इसी मध्य कोई आ जाए तो बातचीत में खो जाते! शाम का समय उनका संगीत के लिए आरक्षित होता। काफी साल हुए वे गुज़र गए। उनका सितार है या नहीं कौन जानें। घर बदला तो नहीं , मगर अपरिचित गन्ध आती है यदा कदा उधर से गुज़रो तो!
•|| दर्ज़ी : दो ||•
दादा ठेंगड़ी। मुहल्ले में सभी उन्हें इसी नाम से जानते थे। पूरा नाम जो भी होगा वह इस शॉर्ट फॉर्म की खूबसूरती में ढंक गया था। “जनाब” , तकिया कलाम था उनका। हर वाक्य के साथ एकाद बार “जनाब” लिपटकर आ ही जाता। जब -जब वे जनाब कहते उनकी उम्र के कारण जनाब के साथ कहा जा रहा वाक्य समझ लीजिए कि उनका जीवनानुभव है! उसे गपोड़ी या काल्पनिक न समझ लिया जाए! “हाँ , जनाब !” बस यही अंदाज़ था उनका। तात्यापारा [ रायपुर ] में जहां वे रहा करते वहीं सामने का कमरा दूकान बन गया था। मिट्टी-चूने की जोड़ाई वाला मकान। वहाँ कभी कूलर नहीं देखा। गर्मियों के दरम्यान भी एक टेबल पँखा अपनी मुंडी हिलाते-हिलाते विलम्बित गति से चलता रहता था !
दादा ठेंगडी दिखने में अलग धज के व्यक्ति थे। ताम्बई रँग। गठीला शरीर। शरीर में चपलता। बण्डी – धोती पसंदीदा पोशाक। चलते हुए आमतौर पर दोनों हाथ पीछे बंधे रहते थे। पैरों में कत्थई रँग की असल कोल्हापुरी चप्पल। गोल और बड़ी आँखें , हमेशा इधर – उधर ताकती सी। जब बातें करते तो संवादों के पहले उनकी आँखें मानों डोलने लगती थीं। बतौर दर्ज़ी उनका व्यक्तित्व भी जैसे दृश्यात्मक ऊँचाई था। एक प्रकार से वे कैरेक्टर थे। यदि चुप बैठे हों तो भी उनकी देह बोलती थीं। कल्पना करता हूँ यदि वे सिनेमा में जाते तो कन्हैयालाल अथवा ओमप्रकाश की तरह चरित्र साकार करने वाले अभिनेताओं की फेहरिस्त एक और बढ़िया नाम हो सकते थे। उनकी नाक काफी बड़ी और छिद्र वाला हिस्सा उसी तरह फैला हुआ था जैसे संघ की खाखी हाफपैंट का निचला हिस्सा फैला हुआ होता था!
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दिन में उनकी मशीन चलती और शाम में मन। यानी मित्र मंडली के संग गपबाजी। वे ऐसे मास्टर थे जो कपड़ों की कटाई के बाद सिलने वाली भूमिका भी खुद ही निभाते थे। जितना काम है उसे प्रायः फर्स्ट हाफ़ में निपटा दो , कुछ ऐसा अंदाज़ था। दरअसल शाम को दुकान साथियों से गुलज़ार रहती। शाम का आरम्भ होने से काफ़ी पहले मित्रगण आने लगते। सभी संघी जमात। आज संघ-गणवेश में पतलून की आमद हो गई वरना उसकी हाफ़ पैंट का वह “चौड़ी मोहरी वाला ढंग” संघ का परिचय था। नीचे से अधिक चौड़ी इस हाफपैंट को तयार करने में उनकी मास्टरी थी। कोई हाफपैंट इस तरह से भी बनाई जा सकती है यह देखना मज़ेदार था।
रँगबिरंगा कपड़ा सिलने वाला दर्ज़ी कहना उन्हें ठीक नहीं होगा। वहां बाहरी सिलाई का काम सीमित ही देखा। यदि कोई ब्लाऊज़ दे दे तो वे उस आकार के मुताबिक़ सिल कर भी दे दिया करते थे। कभी किसी महिला को वहाँ जा कर नाप देते नहीं देखा , अलबत्ता हैंगर में दो एक ब्लाउज़ ज़रूर टँगे नज़र आते। चड्डी के भी विशेषज्ञ उन्हें मान लिया जाना चहिये। नाड़ा लगी धारी कपड़ों वाली चड्डी। अक्सर चड्डी भी ग्राहकों की प्रतीक्षा में हैंगर में टँगी दिखाई देती। चड्डी को इतना सम्मान किसी टेलर के पास मिलते देखने का मेरे लिये पहना अनुभव था! कई बार तो डिस्प्ले के क्रम में सबसे पहले चड्डी झिलमिलाते दिखती। फिर पायजामा , संघ का गणवेश और आँखिर में ब्लाऊज़ होता!
उनका दिन का समय प्रायः सिलाई में बीतता। शाम में कपड़े काटे जाते। यदि शाम में दोस्त-यार आ जाएं तो वे कपडे भी काटते और मण्डली से मुख़ातिब भी होते जाते। दुकान में आगन्तुक के लिए कुर्सी का कोई विधान नहीं था
। लेकिन याद आता है लोहे की दो एक कुर्सियाँ सामने की तरफ़ थीं। जो पहले आ जाए वो उस कुर्सी पर और बाद के आगन्तुक नीचे। लेकिन नीचे का हिस्सा – अधिक सुकून दाई है ऐसा बैठकी देख कर लग जाता था। वैसे भी वो दुकान भीतरी गली में थीं। ऐसी गली में जो आम आवाजाही से घिरी नहीं थीं। एक तरह से गली तो थी लेकिन वहाँ ट्रैफिक की कोई गुंजायश नहीं थी। कारण सामने बड़ी दीवाल थी सो नीचे बैठे बुज़ुर्गवार भी एक अर्थों में अपनी ही परछी में बैठे होने के मनोरम अहसास के साथ वहाँ टिके होते। उनकी इस बैठकी में सायंकालीन आने वाले नियमित क्लब में जाने की तरह जुटते थे! होली की पूर्व संध्या ठंडाई का आयोजन होता , जिसमें मसाला बनाने का काम सिल-बट्टे में दादा ठेंगडी स्वयं किया करते थे। ठंडाई की निर्मिति के दौरान मसालों के मिश्रण और नुस्ख़े की बाज़ीगरी और स्वाद का ज़ायका , इस सिलसिले में उनका वर्णन भी वही सुख देता जो ठंडाई पीने पर मिलता! एक वर्ष एक कप थंडाई प्रसाद का लाभार्थी मैं भी हुआ! अगले दिन वे आए तो पिताजी के सामने ही मुझसे पूछ लिया था , –“क्यों जनाब , कल कैसा लगा ?”
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टेलरिंग शॉप उनकी घर में ही थी , या दुकान-घर थी। कई बार उनकी पत्नी भीतर से चाय के कप लाकर देती और एक मुस्कान इन बैठी हुई मण्डली पर मार कर चली जाती। जब मंडली के कोई दो अन्य सदस्य आपस में किसी विषय पर चर्चारत हों तो भी मंडली के बाकी सदस्यों के मुक़ाबले उनका इन्वॉल्व उस गल्प में अधिक होता था। क़रीब क़रीब 4 या 5 आदमी इस स्व-घोषित क्लब के सदस्य थे। और सभी महाराष्ट्रीयन। दोपहर की अच्छी नींद लेने वाले बुज़ुर्गवार। इस बैठक में जीवन भागता हुआ नहीं , सुकून की चाल वाला था। कैरियरिस्ट किस्म की चिंताओं से परे ये निम्न मध्यम वर्गीय अधेड़ महाराष्ट्रीयनों की अपनी रसदार बैठक थी।
दादा ठेंगडी के तय शुदा ग्राहक थे। अचरज था कि शाम को कभी , मैंने किसी ग्राहक को आते नहीं देखा। कभी-कभार यदि कोई आता भी होगा तो भी वे उन्हें जल्दी रुख़सत कर दिया करते होंगे या वो खुद ही मण्डली का थमा हुआ संवाद-सँगीत सुनकर आपो आप निकल जाता होगा। “दादा काका” , हमारी बाल मण्डली में उनके लिए यही सम्बोधन था। लेकिन हमउम्र मण्डली उन्हें जनाब कहती। ये सभी चर्चा पसन्द लोग थे। इनकी चर्चाओं में किसी किस्म की कट्टरता और “देश को हमी बदल सकते हैं!” जैसी धारणाएं नहीं उतरती थीं। जिस्मानी और रूहानी बातचीत तो यक़ीनन नहीं ही होती होगी। ये साहित्य की दुनिया के बाहरी आदमी थे। सहज-सरल लोग। जिनके सपने भी थोड़े से होते थे। ये सभी वे लोग थे जिनकी जीवन पद्धति में बहुत अधिक अर्थमय उड़ान नहीं थी! ये लोग धनिक की परिभाषा से तो बाहर थे ही। उस समय सभी साइकिल वाले। यक़ीनन उसी हैसियत वाले। शाम घिरते वे थोड़े समय के लिए दादा ठेंगडी के ठीहे में मिलते । मनरंजन होता और वहां से टिकट लगे , पता लिखे लिफ़ाफ़े की तरह अनिवार्य रूप से सीधे अपने घर!
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दो व्यक्ति ज़रूर इसमें शिक्षक सेवा से थे। एक नगर निगम में नल व्यवस्था से जुड़े। जिन्हें मोहल्ला परिचय में “नलवाले देशपांडे” कहा जाता था। एक व्यक्ति निगम में चतुर्थ वर्ग का था। वह भी इनकी बैठक में समान आदर से शामिल होता। उसे दूसरों की बात के साथ अपनी भी कोई बात जोड़कर रसरंजन आगे बढ़ाने की अनुमति थीं। एक बुजुर्ग सज्जन राजा पालमवार थे। तात्यापारा हनुमान मंदिर भजन मंडली में वे तबला बजाते थे । वे जिस अंदाज से संगति करते उसमें बाएँ हाथ की “छपकी” अधिक सुनाई देती थी – और उसका अपना मज़ा था। इधर नए तबला वादक जो देशभर में स्वीकार हो रहे हैं उनके पास छपकी मारने का कौशल नहीं है! एक राजिमवाले सर थे। उनकी विशेषता पैरपेटी यानी नाट्य सँगीत में बजाया जाने वाला खड़ा हरमोनियम बजाना थी।
प्रकट तौर पर मेरा उन बजुर्ग समूह मंडल से कोई नाता नहीं था। लेकिन गली से दिन में एक बार गुज़रने की नियमित आदत ने उन सभी से जोड़ दिया था। एक बड़ी वजह ये भी थीं कि वहीं सामने छोटा सा मैदान था जहाँ हमारी एक किराना दुकान थीं। वे सभी मुझे जानते थे इसलिये भी कि मुझे तबला बजाने [ सीखने ] में रुचि है। दादा ठेंगड़ी , विशेष रूप से मुझे भी , जब वे हमारी दुकान में आते तो “और जनाब” कह कर भी सम्बोधित करते। कभी इच्छा होती तो दुकान आमंत्रित कर हल्के फुल्के जादू दिखाते। उन्हें इसमें भी सिद्धता थी। जादू से अधिक रोचक उनका जादू दिखाने का अंदाज़ होता था!
दर्ज़ी की यह अपनी बैठक भी थी और उनकी दुकान तो थी ही। बेशक जब वे कैंची और टेप के साथ होते तो दर्ज़ी बने हुए। लेकिन ऐसा कम ही होता होगा कि इस कमरे के भीतर दाख़िल होने पर उनका दर्ज़ी व्यक्तित्व बाहर रह जाए!
बुनावट और दादा के उपस्थिति देख कर अनुमान लगाना आसान था कि इस कमरे में – जो घर का एक कमरा ही है – उनकी स्वायत्तता दखल पसन्द नहीं करती। इस घर दुकान की बसाहट विशेष किस्म की हो ऐसा भी नहीं था। पुरानी बुनावट वाला घर। लकड़ी की मयाल वाली छत। लेकिन दिन के दौरान जहां ध्रुपद गायिकी के मन्द्र जैसा गम्भीर चुप्पी का आलम होता वहीं शाम को इसी ठिकाने में रसदार कोलाहल। ठहाके और “समझे जनाब?” का कौतुक छाया रहता!
•|| दर्ज़ी तीन ||•
चिकित्सकों की हस्त लिपि के बारे में गुदगुदाने वाले अंदाज़ में टिप्पणी की जाती है! दर्ज़ियों की लिखावट भी सुवाच्च होती होगी , इसमे सन्देह ही है! मेरे अपने अनुभव दायरे में यों तो कितने ही दर्ज़ी बदले , लेकिन तीन नाम अपने-अपने कारणों से याद रह गए। दादा ठेंगड़ी के बारे में सुना था कि जोड़ अक्षर या मात्राओं के आधिक्य वाले नाम को लेकर वे असहज हो जाते थे। इसका काट उन्होंने अपने ढंग से निकाला था। वे पहला अक्षर लिख कर आगे बिंदी लगा दिया करते थे ! मसलन अगर विक्रमादित्य नाम का ग्राहक हो तो उसे – वि. इस तरह लिख दिया जाए! अगर सम्बद्ध व्यक्ति इसे देख कर कुछ कहे तो उसे सुनना होता ,
“जनाब, नाम से मतलब है या कपड़े से?”
उधर , गेड़ेकर टेलर मास्टर की लिपि देख , वे घसीटा अँग्रेज़ी में नाप-जोख लिखते हैं ! सोचता था। जबकि वो उनका हिंदी वाला घसीटा-सौंदर्य हुआ करता था! उनके रजिस्टर के पन्ने अपने किनारों पर इस कदर स्प्रिंग बन मुड़ जाते थे कि लगता किसी बच्चे ने उनकी ऐसी हालत कर रखी है! उधर , नबी टेलर को उर्दू में लिखते देखता था! याद आता है उन्होंने बताया था कि सारी पढ़ाई ऊर्दू माध्यम में हुई है। पुराने सारे टेलर सही मायनों में टेलर थे। कपड़े काटने से लेकर सिलना भी उन्हें बखूबी आता था। उन लोगों के कारीगर होने की एक और पहचान उँगली में काच-बटन के दौरान पहना जाने वाला एक गोल यंत्र होता था जिसके सहारे वे सुई में ज़ोर लगा के उसे ऊपर खिसकाते। गेड़ेकर टेलर बीच की उंगली में मिजराब [ सितार वादक इसी से आघात करते हैं ] भी पहने होते!
जीवन के उस दौर में जब महाविद्यालय जाने में कुछ वर्ष थे तबले की दीवानगी से गुज़र रहा था। कुर्ता पहनने की इच्छा इसी समय बढ़ गई। नबी टेलर के पास क़रीब चार या पाँच कारीगर थे। बढ़िया कुर्ता – पायजामा चाहिए तो — नबी टेलर। उस समय जलवा था उनका । ब्राण्ड बन चुका था यह नाम। नबी टेलर के पास दूसरे वस्त्र सिलवाने किसी को आते नहीं देखा ! इनकी दुकान में बाहर रखी बाल्टी में अक्सर कुर्ते के कपड़े भीगते रहते। कुछ वहीं सूखते दिखाई देते। नीचे एक व्यक्ति को कपड़े पर प्रेस चलाने की ज़िम्मेदारी थी। जिस इलेक्ट्रॉनिक आयरन से वह प्रेस करता उसके वायर में हमेशा धागों की रील का खाली खोल चढ़ा हुआ दिखता था! वायर सुरक्षा का ऐसा रोचक उपाय मुझे , कहीं और देखने नहीं मिला।
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नबी टेलर की ख़ासियत कुर्ता-पायजामा थी। कभी कभार उनके हैंगर में एकाद शेरवानी भी दिखाई दे जाती। वे कम बोलते थे , उतना ही धीमा उनका स्वर था। पुराने गोल बाज़ार के भीतर उनकी दुकान का आर्किटेक्चर भी ध्यान खींचता था। खिड़कियों के ऊपर रँगीन काँच लगे हुए थे। छत अर्द्ध चँदाकार शैली में। इनके यहाँ कोई न कोई बजुर्गवार बैठे मिलते और ज़ायका बातों का जारी रहता। मेरी कुर्ते की दिलचस्पी देख एक दिन उन्होंने मेरे बारे में जानना चाहा था। जिन दिनों मेरी तबला सीखने-बजाने को लेकर दीवानगी अपने चरम पर थीं उस दौर में क़रीब एक दशक सिर्फ़ कुर्ता ही पहना करता था। वो भी कपड़ों के निराले प्रिंट्स वाले। बंगाल कॉटन की साड़ियों के कुर्ते बनाने के प्रयोग भी एकाधिक बार किये। नबी टेलर मास्टर भी मेरे इस प्रयोगात्मक कुर्ता प्रेम को लेकर मुस्कुरा दिया करते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे ने भी कुर्ते सिले। वह भी जानता था कि मैंने उसके पिता के सिले कुर्ते काफी सालों तक पहने हैं।
एक दफ़ा दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र- नागपुर के संयोजन में 10 दिवसीय अखिल भारतीय वाद्य झंकार शिविर रायपुर में लगा। उसके लिए विशेष रूप से उस्ताद अमज़द अली के अलावा तबला वादक तन्मय बोस भी आए थे। तन्मय दा , पण्डित रविशंकर के साथ सबसे अधिक बरसों तक तबला संगतकार के रूप में जुड़े रहे! मेरे कुर्ता-वैविध्य पर उनका ध्यान होगा , इस बारे में सोचने वाली परिपक्वता तो थी ही नहीं! लेकिन समापन के दिन विशेष रूप से तन्मय दा ने पूछ ही लिया था —
“मैं कुर्ते कहाँ से सिलवाता हूँ?”
आज पता नहीं उस दुकान की क्या स्थिति है ?
एक ज़माना हुआ कुर्ता छोड़े और उधर से गुज़रे।
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इन तीनों दर्ज़ियों के अलावा एक दर्ज़ी का नाम भी कॉलेज के दिनों में कानों में पड़ता था किसी अन्य प्रयोजन से। वो था — अरमान टेलर्स। बैजनाथ पारा स्थित अरमान टेलर वालों को न कभी देखा न मिला! लेकिन नाम जानने की वजह के पीछे थे श्री हबीब तनवीर। हबीब साहब को बहुतेरे अवसरों पर अपना पता फोन पर पूछने वालों को कहते सुनता कि , “बैजनाथ पारा आकर अरमान टेलर में पूछ लेना।” अरमान टेलर वहीं सामने , आज भी है। लेकिन यक़ीनन पीढ़ियाँ बदल गयी हैं। हबीब साहब क्यों पता बताने पर उस एक अकेले परिचय चिन्ह का ज़िक्र करते थे , कभी उनसे पूछा जाना चाहिए था। ख़ैर , आज इनमें से कोई भी जीवित नहीं है! हां , सभी की अगली जनरेशन ने काम सम्भाल लिया है दर्ज़ी के रूप में। बचपन में देखे गए वे दृश्य आज इतनी जीवंतता के साथ , अगर याद आ रहे हैं तो सिर्फ़ इसीलिए कि “देखना” या कहिये ऑब्ज़र्वेशन जीवन के उस प्रायमरी दौर से ही करवट ले रहा था। हमउम्र अन्य बाल सखाओं के मुक़ाबले मेरी रुचि – आनन्द थोड़े अलग क़िस्म के थे। वे दर्ज़ी , और उनका दृश्य आलोक आज अगर उम्र के अनुभवों में लिपटकर याद आ रहा है तो उसी चेतना के कारण जो उन दिनों अंदर कहीं आकार ले रही थीं! आज दर्ज़ी गिरी नहीं “सूट स्पेशलिस्ट” की तख़्तियों का ज़माना है। तब दर्ज़ियों के भी जलवे होते थे। श्री जगदीश उपासने , पूर्व सम्पादक इंडिया टुडे ने एक बार बातचीत में मुझे बताया था , उन्हें रायपुर के अपने दर्ज़ी की फिटिंग की इतनी आदत थी कि वे अगर रेडिमेट का मसला न हो तो चार पाँच जोड़ी कपड़े रायपुर आकर सिलवा लिया करते थे। दिल्ली में सिलाई दाम से आधे में यहाँ निपटारा हो जाता था!
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बदलते फैशन परिवेश में आज पारम्परिक दर्ज़ियों की तरफ देखने वाले घटे हैं! बेचारा दर्ज़ी भी चपेट में है ! जगह उसकी बची हुई तो है लेकिन निरन्तर कम होती हुई – सी। ठीक वैसे ही जैसे हुनरमंद हाथों की दूसरी छटाएं। हम कुछ नहीं कर सकते! हम कर भी क्या सकते हैं! सब कुछ रेडिमेट , ऑन लाइन और तुरंत का दौर ! स्पेशलिस्ट कहलाने का समय। यानी किसी एक में पारंगत कहाइए। सीधे साधे दर्ज़ी जो देह को खिलने वाले कपड़े आपकी भावभूमि को समझते हुए बनाया करता थे , उनका समय गया! ब्रांड वैल्यू का समय है अब। आपके बटुए में वज़न होना चाहिए – आपके जीवन में भले हो न हो!
-राजेश गनोदवाले