“रैली में चलती स्त्रियां-“
आज हिंदी के प्रख्यात कवि राजेश जोशी का 75वां जन्मदिन है।स्त्री दर्पण उनकी स्त्री विषयक कविताओं को याद करते हुए उन्हें जन्मदिन पर शुभकामनाये देता है। युवा कवयित्री अनिला राखेचा ने राजेश जोशी कीस्त्री विषयक कविताओं पर एकछोटी सी टिप्पणी लिखी है और उनकी कुछेक कविताओं के माध्यम से उन्हें याद किया है।राजेश जी की स्त्रियाँ इस दुनिया कोबदलने के लिये संघर्ष करती। स्त्रियाँ हैं
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भारतीय समाज में नारी को शक्ति का स्वरूप माना जाता रहा है, मगर मध्ययुगीन काल में भारत पर लगातार आतताई हमले होते रहने के कारण स्त्री अस्मिता खतरे में पड़ गई। उसे सिर्फ भोग विलास की वस्तु माना जाने लगा किंतु आज उस दयनीय स्थिति से उबर घर की चारदीवारी से बाहर निकल स्त्री अंतरिक्ष तक अपने कदम पसार चुकी है।
आज जहाँ स्त्रियाँ अपने प्रति हुए अन्याय के प्रति सजग है, अपने साहित्य में वे अपनी पीड़ाओं – व्यथाओं, अपने अस्तित्व को लेकर बात करने लगी है वही बहुत से ऐसे साहित्यकार भी हैं जिनकी कलम ने स्त्री की चिंताओं – परेशानियों को पूर्णरूपेण रेखांकित किया है। यहाँ एक बात कहना लाजिमी है कि शोषित वर्ग को अगर यह एहसास करा दिया जाए कि उसका शोषण हो रहा है या किया जा रहा है और वह इस और जागरूक हो जाए तो अपने शोषण का दमन वह खुद ब खुद कर सकती है। आज का साहित्य इस ओर अहम भूमिका निभा रहा है।
इसी संदर्भ में आज राजेश जोशी जी के जन्मदिन पर उनकी स्त्री विषयक कविताओं के साथ रूबरू होते हैं और पढ़ते हैं आज राजेश जोशी जी की स्त्री विषयक कविताएं –
समकालीन कविता की पहचान बनाने में जो थोड़े से महत्वपूर्ण हस्ताक्षर शामिल है उनमें राजेश जोशी जी का नाम प्रमुख है। 18 जुलाई 1946 को मध्यप्रदेश के नरसिंहगढ़ में जन्मे राजेश जोशी ने अस्सी के दशक में अपनी कविताओं से विशिष्ट पहचान बनाई थी और आज वे राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी कविता का चेहरा बन गए हैं। “एक दिन बोलेंगे पेड़”, “मिट्टी का चेहरा”, “नेपथ्य में हँसी” और “दो पंक्तियों के बीच” “चाँद की वर्तनी “आदि आपके काव्य संग्रह हैं। इसके अलावा मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद “पतलून पहना आदमी”, और भृतहरि की कविताओं का अनुवाद “धरती का कल्पतरु” भी काफी चर्चित रहे हैं। साल 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित राजेश जोशी जी मानवीय मूल्यों व अधिकारों के कवि हैं।
राजेश जोशी जी की स्त्री विषयक कविताओं की खास बात यह है कि उन्होंने स्त्रियों की स्थिति को कारुणिक अथवा अति महत्वाकांक्षी नहीं बताया है। अपनी कविताओं में स्त्रियों की लाचार स्थिति को ना लिख समाज में उनके महत्व पर अपनी कलम चलाई है। आज की भारतीय नारी की आर्थिक सामाजिक स्थितियों का गहन चिंतन करने के पश्चात बिना किसी लाग लपेट के उन्होंने नारी की स्थिति को अपनी कविताओं में जगह दी है।
उनकी कविता रैली में चलती स्त्रियां एक ऐसी कविता है जिसमें चित्रात्मक शैली में कवि ने नारी के हर स्वरूप को एक ही कविता में समेट देने की कोशिश की है ! हर स्त्री संघर्ष करते हुए एक अपने सपनों को पूरा करना चाहती है और विडंबना ये है कि उसे सारे दायित्व निभाने हैं जो उसके बंधनों का कारण भी हैं ! वो भाग नहीं सकती अपने दुधमुंहे बच्चे की भूख से दूर, रोटी सेंकने की जिम्मेदारी से, शराबी पति के नकारेपन से। उसे इस सब के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए ही अपना संघर्ष करना है, रैलियों में जाना है। जहाँ वो फिर से भेड़ बकरियों की तरह ही झुंड में हाँकी जाती हैं लेकिन उनका विद्रोह उन्हें प्रेरित करता है कुछ नए स्वप्न देखने को, अपनी स्वतंत्रता और स्वाभिमान को पाने को। पुरूष होकर स्त्री के अंतर्मन की व्यथा और विद्रोह दोनों को ही रचा है राजेश जी ने अपनी इस कविता में –
आइए पढ़ते हैं उनकी कविता
कविता – रैली में चलती स्त्रियाँ
एक व्यस्त सड़क पर वह दो-दो की कतार में चल रही है नारे लगाती हुई
सारा यातायात रुका हुआ सा है
पुलिस के जवान बार-बार उन्हें सड़क के किनारे की ओर धकेल कर
कारों और स्कूटरों के निकलने के लिए जगह बना रहे हैं
वे अपना घर द्वार चूल्हा चौका और न जाने कितने कामकाज
छोड़ कर आई है आज
कुछ स्त्रियों की गोद में उनके दूध पीते बच्चे हैं
जो बीच बीच में गुनगुनाने लगते हैं
कुछ के साथ थोड़े बड़े बच्चे उनकी साड़ी का छोर पकड़ कर चल रहे हैं
पैदल चलते बच्चे जब बीच-बीच में थक जाते हैं
तो गोद में उठाने के लिए मचलने लगते हैं
पसीने से भीगे उनके तांबई चेहरे को रौंदती थकान के पीछे छिपी
उनकी चिंताएं दुख और आशंकाएं बीच-बीच में कौंध जाती है
कुछ स्त्रियां अपने छोटे-छोटे बच्चों को घर पर छोड़ कर आई है
जिन बच्चियों ने अभी अभी सीखा है रोटी डालना
दुश्चिंता मन में हूक की तरह उठती है
और उनकी पनीली आँखों में बार-बार तैर जाती है
कि रोटी से कटे हाथ ना जला दिया हो बेटी ने
कि कहीं बिना बात ना पीटा हो बेटी को उसके शराबी पति ने
कि सुबह से ही कहीं कलारी पर न जा बैठा हो उनका आदमी
कितनी ही बातें मथ रही है उनके मन को
पर वे चल रही है
चल रही है रैली में लगातार
नारे लगाती हुई मुठ्ठियाँ हवा में उठाती हुई
बगल या पीठ पर से फट चुके अपने पोलकों से बेखबर
रैली जब कहीं रूकती है तो किसी आड़ का सहारा लेकर
भूख से बेहाल बच्चे को दूध पिलाने लगती हैं
लेकिन जैसे ही रैली आगे खसकती हैं
वे भी उठती है और फिर चलने लगती है
नारों के बीच कभी-कभी आपस में बतियाने लगती है
अगल-बगल चलती स्त्रियों से
कोई गाने की एक पंक्ति उठाता है
तो वे सुर में सुर मिलाकर गाने लगती हैं
रैली में चलती स्त्रियाँ आसमान की ओर देखकर
समय का अनुमान लगाने की कोशिश करती
कहीं कभी तो कुछ बेहतर होगा उनके जीवन में
यही सोचकर घर द्वार छोड़कर इस शहर तक आई हैं यह स्त्रियाँ
थक चुकी है बुरी तरह पर थके नहीं है उनके हौसले
थकान को परास्त करती उनकी
शहर के शोर को बार-बार चीर देती है बीच से
रैली में चलती स्त्री
जैसे ब्रह्मांड में अनथक चलती पृथ्वी को देखना है
बाहर वह जितनी दिख रही
उससे उसके सपनों और भीतर मची उथल-पुथल का
अनुमान लगाना मुश्किल है
उसकी आँख में असमय चला आया आँसू
उसकी हार का नहीं
उसके गुस्से का बाँध दरक जाने का संकेत है!!
सदियों से हम किसी वेद वाक्य की तरह एक कथन सुनते आ रहे हैं औरत ही औरत की दुश्मन होती है। साथ ही हमने यह भी सुना ही है कि इस झूठ को बार-बार दोहराया जाए तो वह भी सच जैसा प्रतीत होने लगता है। औरत ही औरत की दुश्मन होती है यह एक ऐसा मिथक है जो चला आ रहा है युगो से और इस झूठ को सच साबित करने में सिर्फ पुरुष ही नहीं वरन स्त्रियाँ भी शामिल है। अब वे इस बात पर शत-प्रतिशत यकीन भी करने लगी हैं। पुरुष सत्ता द्वारा रचित इस पूरे षडयंत्र को, उनकी राजनीति के क्रूर खेल को समझा जा सकता है राजेश जोशी जी की इस कविता के माध्यम से –
कविता – एक स्त्री दूसरी स्त्री को पीट रही है
एक स्त्री दूसरी स्त्री को पीट रही है
एक स्त्री पीट रही है दूसरी स्त्री को
बहुत प्रचलित लेकिन एक डरावना दृश्य है यह
पुरुष की सत्ता का
लड़की को जन्म देकर उदास है एक स्त्री
लड़की को जन्म देकर डर से कांप रही है एक स्त्री
लड़की को जन्म देकर जच्चा घर में सिसक रही है एक स्त्री
इतनी जटिल बना दी गई है उसकी दासता
कि स्त्री ही दिखाई देती है सबसे ज़्यादा क्रूर
स्त्री के बारे में
स्त्री ही पूछ रही है स्त्री से
क्यों नहीं लाई स्त्री धन
स्त्री डर रही है दूसरी स्त्री से
बहुत सामान्य लेकिन एक डरावना दृश्य है यह
पुरुष की सत्ता का
ओ स्त्री
यह कला नहीं तुम्हारी देह का विज्ञापन है
यह साबुन का नहीं तुम्हारी देह का विज्ञापन है
साड़ी का नहीं, शराब का नहीं, सिगरेट का नहीं
नहीं, प्रसाधनों का भी नहीं
यह तुम्हारी देह का विज्ञापन है
तुम एक देह हो और सुंदर हो यह कितना सुंदर है
लेकिन तुम सिर्फ एक देह हो
यह सिर्फ व्यवसाय नहीं एक कुटिल राजनीति है
वर्चस्व के इस क्रूर खेल में
तुम्हारी देह को अलग किया जा रहा है तुम्हारी आत्मा से
तुम्हे कर दिया है उन्होंने तुम्हारे ही ख़िलाफ़
और
गुलामों के खूनी खेल में दर्शक दीर्घा में बैठा पुरुष
मन ही मन मुस्कुरा रहा है!!
पुरूष प्रधान समाज में स्त्री के प्रति जो असंवेदनशीलता है उसके लिए मात्र पुरूष ही दोषी नहीं हैं। कई बार उस असंवेदनशीलता के पीछे स्त्रियों की भी प्रमुख भूमिका रहती है जो उनकी निजी प्रताड़ना या कुंठा की अभिव्यक्ति होती है। कई बार स्त्री स्वयं अपने आप को पुरूष सतात्मक सत्ता की कठपुतली बना देती है निहित स्वार्थों के लिए। राजेश जी ने अपनी इस कविता में स्त्रियों के इस दोहरे मापदंड को उजागर करने का प्रयास किया है और स्त्रियों को भोग की वस्तु समझने वाली मानसिकता को पहचानने के लिए सचेत किया है।
अपनी कविता प्रतिध्वनि में राजेश जोशी जी ने ग्रीक पुराण के ज्यूस की पत्नी हेरा की कहानी के माध्यम से स्त्री मन के उस मनोभाव को लिख दिया है जो शायद हर स्त्री स्वयं स्वेच्छा से करती चली जाती है समर्पिता होकर और उसे स्वयं भी पता नहीं चलता कि वो किसी आवाज़ की मात्र प्रतिध्वनि बन कर ही रह गई है। उसकी अपनी कोई इच्छा, कोई अभिलाषा शेष ही नहीं रह गई है। वो किसी की समर्पिता होकर उसकी ही बातों को दोहराती जाती है और अपना सारा जीवन व्यतीत कर देती है। हालांकि आज स्त्री चूल्हे चौके से लेकर चाँद पर जाने की जिम्मेदारी बेहतरीन तरीके से संभाल रही है, फिर भी पितृसत्तात्मक समाज का दंभ आज भी उसे साँस लेने से रोक रहा है वह आज भी अपना खुद का जीवन अपने मुताबिक स्वतंत्र तरीके से नहीं जी पा रही है। जो मापदंड पुरुष समाज ने उसके लिए तय कर दिए वह बस उसी उन्ही ही दोहराये जा रही है, उसी लीक पर चले जा रही है तभी तो राजेश जी की कलम बोल उठती है –
कविता – प्रतिध्वनि
अब वो तुम्हारे बोले गए वाक्य के
सिर्फ़ अंतिम शब्द दोहराती है
तुम उसे देख नहीं पाते या देखकर
अनदेखा कर जाते हो
लेकिन वो वीरान घाटियों से, उदास
स्मृतियों से भरे गुंबदों से
कंदराओं से और सूख चुके कुओं से
लगातार दोहराती रहती है
तुम्हारे वाक्य के अंतिम शब्द
तुम वो ही शब्द बोलते हो अक्सर
जो तुम सुनना चाहते हो बार-बार
कहते हैं एक समय वो बहुत बातूनी थी
कतरनी की तरह चलती थी उसकी ज़बान
बातों के लिए उसे समय कम पड़ जाता था
(मुझे कई बार लगता है / स्त्रियाँ भी अगर पुरुषों की तरह कम बोलतीं तो
कितनी सूनी लगती यह धरती
और बच्चे कितनी देर से सीख पाते बोलना)
वो इतनी ज़्यादा बड़बड़ करती थी
कि नदियाँ उसकी बातों में खोकर बहना भूल जाती थीं
हवाएँ उसकी बातें सुनने को रुक जाती थीं
बादल ग़लत पड़ावों पर अपना डेरा डाल देते थे
पर कहते हैं कि एक दिन हेरा* के श्राप ने
उससे उसकी सारी बातें छीन लीं
इसलिए तो घने जंगलों में अपना रास्ता भूलकर
जब तुम ज़ोर-ज़ोर से पुकारते थे किसी को
वो सिर्फ़ तुम्हारे अंतिम शब्द दोहरा देती थी
वो जवाब नहीं दे पाई तुम्हारे किसी प्रश्न का
वो एक परछाईं की तरह चलती रही तुम्हारे साथ-साथ
उसने खो दिए अपने सपने और
अपना बातूनीपन
वो जिसे तुम अनदेखा करते रहे लगातार
वो अपनी अनुपस्थिति में भी रही उपस्थित
और दोहराती रही तुम्हारे हर वाक्य के
अंतिम शब्द!!
राजेश जी की इस कविता में नारी के विवेक, करुणा का सघन चित्रण सहज अभिव्यक्तियों के माध्यम से मिलता है। नारी के मनोविज्ञान को अपनी कविताओं में उन्होंने बखूबी उँकेरा है। यह एक बहुत ही दार्शनिक चिंतन देती हुई सार्थक और सशक्त रचना है राजेश जी की जो स्त्री विमर्श को बिल्कुल नए परिप्रेक्ष्य में स्थापित करती है।
नारी विषयक कविताओं के संदर्भ में बात की जाए तो राजेश जोशी के साहित्य में स्त्री विमर्श को लेकर ज्यादा कविताएं तो नहीं दिखती है मगर जो भी कविताएं हैं वे बेहद मजबूती से स्त्रियों की बात कहती है, उनके कद को बढ़ाती है। राजेश जी की कविताएं स्त्री पुरुष के बीच मध्यम मार्ग बताती प्रतीत होती है। जहाँ एक और वे पुरुष के लिए कहते हैं कि स्त्रियों के बगैर उनका जीवन नहीं चल सकता है वहीं दूसरी और यह भी कहते हैं कि स्त्री की स्वतंत्रता या मुक्ति पुरुष की कल्पना से मुक्त होकर नहीं की जा सकती है। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक है शायद इसलिए भी भारतीय समाज में अर्धनारीश्वर की का चिंतन देखने को मिलता है।
राजेश जोशी जी की स्त्री विषयक कविताओं में हमें सिर्फ स्त्री का शोषित स्वरूप ही नहीं देखने को मिलता है अपितु उनकी रचनाएं समाज में स्त्रियों की स्थिति और महत्व को विपरीत धारा में भी बखूबी प्रतिपादित करती हैं। आपकी कविताओं में चित्रीत स्त्री अपने स्व के प्रति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक, चेतना शील नारी है।
– अनिला राखेचा
अनिला राखेचा का जन्म पश्चिम बंगाल के माथाभांगा गाँव में हुआ है। आरम्भिक शिक्षा छत्तीसगढ़ के भिलाई नगर शहर में हुई है और यहीं से ही रवि शंकर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की।
“वागर्थ”, “पुस्तक संस्कृति”, “मधुमती”, “किस्सा” “अभिनव प्रयास”, “पहला अंतरा ‘ आदि पत्र- पत्रिकाओं व अखबारों में इनकी कविताओं, कहानियों, समीक्षाओं का नियमित प्रकाशन होता रहता है।कई ब्लॉग पर भी ये लिखती रहती हैं