November 22, 2024

और लालटेन बुझ गई

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आज 18 जुलाई 2021 को दुर्ग ज़िला हिन्दी साहित्य समिति द्वारा स्मृतिशेष कवि मुकुंद कौशल जी को श्रद्धांजलि देने हेतु एक सभा का आयोजन किया गया है।

कवि और रंगकर्मी मुकुंद कौशल 1983 में गठित प्रगतिशील लेखक संघ की दुर्ग इकाई के प्रथम अध्यक्ष थे । बाद में शांति एवं एकजुटता संगठन AIPSO के अध्यक्ष भी रहे।

एक स्मृति आलेख -शरद कोकास

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|| और लालटेन बुझ गई ||

( कवि मुकुंद कौशल की संसार से विदाई पर छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश के साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों , रंगकर्मियों, लोक कलाकारों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि – शरद कोकास )

कोरोना की दूसरी लहर के कहर से भयाक्रांत होकर हम सब अपने घरों में दुबके हुए बैठे थे कि अचानक रायपुर से राजकुमार सोनी का फोन आया “ मुकुंद भाई की तबियत के बारे में कुछ सुना क्या ? “ जब भी कोई फोन पर इस तरह कुछ कहता है तो आशंकाओं के जाने कितने तूफ़ान मन के भीतर उमड़ने लगते हैं। मैंने बुझे स्वर में कहा “ नहीं..तो ” उन्होंने कहा .. “ज़रा पता तो करो । “ थोड़ी देर में ही कन्फर्म हो गया कि हिंदी व छत्तीसगढ़ी के प्रतिष्ठित कवि मुकुंद कौशल नहीं रहे ।

रविवार चार अप्रेल इक्कीस की शाम ‘लालटेन जलने दो’ कविता के कवि मुकुंद कौशल के हृदय ने धोखा दे दिया और उनके जीवन की लालटेन बुझ गई ।

फिर तो जाने कितने फोन आये ..दानेश्वर शर्मा, दीप्ति शर्मा, मीना शर्मा, संकल्प यदु.. और बैंक के मित्र । कारण किसी को पता नहीं था । इस कोरोना काल में यही आशंका हो रही थी कहीं इस कोरोना ने तो उनके प्राण नहीं हर लिए । फिर सरला शर्मा दीदी ने बताया कि कोरोना उनके छोटे बेटे और बहू को हुआ है और वे अस्पताल में भरती हैं मुकुंद भाई तो अपनी बहन के यहाँ थे वहीं उन्हें अटैक आया ।

मैं अवाक था । मुकुंद भाई के बारे में सोचते हुए उन्हें याद करते हुए स्मृतियों के जाने कितने झोंके मन की खिड़की से प्रवेश कर रहे थे । मेरे अवचेतन में स्थित अतीत के एल्बम के पुराने पन्ने फड़फड़ाने लगे थे ।

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विगत सदी के सन अस्सी की बात है । मैं उन दिनों दुर्ग शहर में नया नया आया था, बैंक में नौकरी करने के लिए । अकेला था, निपट बैचलर, रोज शाम बैंक से निकलता साइकल चलाते हुए कुछ देर बाजार में भटकता भीड़ से साक्षात्कार करता और फिर अपने कमरे पर लौट आता । न कोई साहित्यिक मित्र, न कोई रंगकर्मी, बस बैंक के एक दो सहकर्मी थे जिनका संसार बस बैंक की बातों तक ही सीमित था। कमरे पर भी मन नहीं लगता था । नौकरी के लिए परीक्षा देने से लेकर नौकरी ज्वाइन करने के बीच कविता लिखना छूट सा गया था । बस एक ही शौक बाक़ी था संगीत का जिसे जारी रखने के प्रयास में मैंने एक कार स्टीरियो डेक बनवा लिया था और इस फिराक में था कि काश कोई ऐसी दुकान मिल जाए जहाँ से कैसेट में गाने रिकॉर्ड करवाये जाएँ ।

उन्ही दिनों शहर की एक दीवाल पर कहीं लिखा देखा “म्यूजिको कहाँ है ?” इसके नीचे एक तीर का निशान बना था । मैं तीर का निशान देखकर आगे बढ़ता गया । फिर दूसरी जगह ऐसा ही लिखा देखा जिसके नीचे फिर एक तीर का निशान बना था । मैं तीरों के तीर तीर यानि उन संकेतों के जरिये उस दुकान पर पहुंच गया जिसका नाम था ‘म्युज़िको’ । दुकान में काउंटर पर एक सुदर्शन से सज्जन बैठे थे । मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और अपनी पसंद के कुछ गाने कैसेट में रिकॉर्ड करवाने के लिए उन्हें एक लिस्ट थमाई । उन्होंने लिस्ट पढ़ी और मेरी पसंद का अंदाज़ लगाकर कुछ बेहतरीन फ़िल्मी गीत भी सुझाए । यह तो मुझे समझ आ गया कि यह व्यक्ति महज एक दुकानदार नहीं है अपितु इनकी गीत संगीत में रूचि के अलावा दखल़ भी है । बस दो चार मुलाकातों में ही पता चल गया कि उनका नाम मुकुंद कौशल है और वे कविताएं भी लिखते हैं । उन्होंने यह भी बताया कि उन्होंने छत्तीसगढ़ के लोकनाट्यों के लिए भी छत्तीसगढ़ी में गीत भी लिखे हैं ।

जैसे एक अच्छा आदमी दूसरे अच्छे आदमी को शीघ्र ही पहचान लेता है वैसे ही एक कवि भी दूसरे कवि को बहुत जल्दी पहचान लेता है । मेरे द्वारा महादेवी, प्रसाद , निराला , नीरज, आदि का उल्लेख आते ही वे समझ गए कि मैं भी उनकी बिरादरी का व्यक्ति हूँ । फिर जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं भी कविताएं लिखता हूं वे बहुत खुश हुए और फिर उन्होंने मुझसे कविताओं की फरमाइश की । मैंने कॉलेज के दिनों में मुंबई की चौपाटी पर लिखी अपनी एक कविता ‘कोलाहल’ और अमीरी गरीबी पर लिखी एक कविता ‘अमीरों से’ उन्हें सुनाई जो उन्हें बहुत पसंद आई।

एक दिन सुबह सुबह वे एक सज्जन को लेकर मेरे कमरे पर आ गए । मैं उन दिनों दुर्ग शहर के एक मोहल्ले केलाबाड़ी में एक किराए के कमरे में रहता था । मुकुंद भाई ने मुझसे उन सज्जन का परिचय करवाया “ यह महावीर अग्रवाल हैं , साहित्यकार हैं और इन्होने अभी-अभी ‘सापेक्ष’ नामकी पत्रिका निकालना प्रारंभ किया है । फिर तो महावीर भाई से भी दोस्ती हो गई और बस एक महीने के भीतर दुर्ग शहर के जाने कितने कवियों और लेखकों से उन्होंने मेरा परिचय करवा दिया ।

फिर एक दिन मुकुंद कौशल के यहां उनके पद्मनाभपुर स्थित निवास पर एक बैठक हुई जिसमें खैरागढ़ से कवि जीवन यदु , कथाकार डॉ रमाकांत श्रीवास्तव , बिलासपुर से डॉ. राजेश्वर सक्सेना और समीक्षक गोरेलाल चंदेल जी पधारे और प्रगतिशील लेखक संघ दुर्ग इकाई का गठन किया गया। मुकुंद भाई अध्यक्ष बने और महावीर अग्रवाल सचिव । फिर तो मुकुंद भाई के साथ जो दोस्ती हुई तो वह बिल्कुल घर परिवार के संबंधों में बदल गई । मेरा जब कभी कोई गुजराती डिश खाने का मन होता मैं मुकुंद भाई के घर पहुंच जाता, हीरा भाभी आग्रह पुर्वक मुझे ढोकला, ठेपला और भी बहुत सी चीज़ें खिलाती । मुकुंद भाई तो खैर खाने पीने के शौक़ीन थे ही । उनके दोनों बच्चे दिशांत और अक्षत भी मुझसे खूब घुल मिल गए ।

फिर तो लगभग रोज़ ही उनकी दुकान पर पहुंचकर उनके साथ गप्प मारने का सिलसिला शुरू हो गया । हम लोग साथ साथ स्थानीय गोष्ठियों में भी जाने लगे । समय बीतता गया । एक दिन मुकुंद भाई बहुत उदास थे मैंने पूछा “ क्या हुआ ?” तो उन्होंने बताया कि “म्युज़िको बंद हो रही है। “ वह दुकान यहाँ के किसी लोक गायक की थी जिसने वहां पर अपना कुछ और कारोबार शुरू करना चाहा था या वह खानदानी बंटवारे में थी । मैं जानता था उस दूकान के अलावा मुकुंद भाई का और कोई आर्थिक स्त्रोत नहीं है । फिर मुकुंद भाई ने पद्मनाभपुर स्थित अपने घर पर ही दुकान खोल ली । वे अक्सर मुझसे अपने संघर्ष के दिनों की बाते बताते थे कि किस तरह उन्होंने कभी बैंक में नौकरी की थी और किस्मत आजमाने दुबई भी गए थे । मैं उनसे कहता “मुकुंद भाई अभी आपका संघर्ष समाप्त कहाँ हुआ है ।“

मुकुंद भाई तकलीफें झेलकर भी अपने परिवार , अपने दोनों बच्चों दिशांत और अक्षत को बड़ा कर रहे थे । उनकी माँ जिन्हें हम बा कहते थे मुझे कस्तूरबा की तरह ही लगती थीं । मुकुंद भाई लिखने में और अपनी कविताओं के मंचीय प्रदर्शन में ही प्रसन्न रहते थे । वाहवाही , तालियाँ और सहज लोकप्रियता उनमे उर्जा का संचार करती थी । उन्होंने यह सब परिश्रम से अर्जित किया था । फिर प्रगतिशील लेखक संघ के वरिष्ठ सदस्यों डॉ कमला प्रसाद, भगवत रावत, रमाकांत श्रीवास्तव आदि के कहने पर उन्होंने गीतों के संकलन प्रकाशित करने की ओर ध्यान दिया ।

फिर मुकुंद भाई की किताबें छपनी शुरू हुई । ‘लालटेन जलने दो’ उनका प्रथम गीत संग्रह आया जिसकी शीर्षक कविता वर्गभेद के खिलाफ़ एक क्रांति का शंखनाद करती थी फिर तो किताबों का तांता लग गया । शब्दक्रांति , गीतों का चंदनवन, देश हमारा भारत, भिनसार , चिराग़ ग़ज़लों के , ज़मी कपड़े बदलना चाहती है , हमर भुइयाँ हमर अगास, मया के मुन्दरी,केवरस , सिर पर धूप आँख में सपने, जैसे गीत ग़ज़ल संकलनों के अलावा छत्तीसगढ़ी गीतों के छह संकलन उनकी रचना यात्रा में उनकी संतानों की तरह उनके साथ रहे ।

मुकुंद भाई के साथ जाने कितने कार्यक्रमों में जाने का अवसर प्राप्त हुआ । जब भी उनकी किसी किताब का विमोचन होता तो वे मुझे जरूर बुलाते थे । एक से अधिक बार उनके गीतों पर बोलने का अवसर भी मुझे मिला । वे मूलतः छंदबद्ध रचनाओं, गीत और ग़ज़लों के पैरोकार थे इसलिए उन्हें मुक्त छंद की रचनाएं बहुत अधिक पसंद नहीं थी । लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ के साथियों की संगत में उन्होंने समकालीन कविता भी पढ़नी प्रारंभ की । वे सार्वजनिक रूप से मुक्तछंद की फूहड़ रचनाओं की आलोचना भी करते थे लेकिन साथ ही कहते थे कि “ शरद कोकास और रवि श्रीवास्तव इन दो लोगों की मुक्त छंद की कविताएं पढ़कर ऐसा लगता है कि वास्तव में नई कविता या समकालीन कविता ऐसी ही होनी चाहिए, जिसमे कविता के मानदंडों के अलावा जीवन की लय हो और सबसे बड़ी बात जो समझ में आ जाये ।“

मुकुंद भाई को संगीत का शौक तो था ही इसलिए कभी-कभी संगीत पर भी उनसे चर्चा होती थी । मैं उनसे अपने बचपन में शास्त्रीय संगीत की गायन की परीक्षा पास करने के बारे में बताता तो उन्हें बहुत आनंद आता फिर वे रागों पर भी चर्चा करते । उन्हें गुजराती हिंदी और छत्तीसगढ़ी तीनों भाषाओं में लिखने का अनुभव था साथ ही उर्दू में भी वे दखल रखते थे । दुर्ग ज़िले के उर्दू अदब में दखल रखने वाले शायरों से उनकी अच्छी वाकफ़ियत थी । पंडित गयाप्रसाद ख़ुदी ,बाबा शेख निजामी, शाद बिलासपुरी , नवेद रज़ा, राजहरा के लतीफ़ खान आदि । वे बाकायदा मुशायरों और नशिस्त में शिरकत करते और अपनी गज़लें कहते थे ।

उन्हें लेखन में नए नए प्रयोग करने का भी शौक था । हिन्दी, उर्दू, के अलावा एक दिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी में ग़ज़ल लिखने की ठानी जो पूरी तरह ग़ज़लों के मापदण्ड पर थी जानकार तो वे खैर थे ही और फिर तो उनकी छत्तीसगढ़ी गज़लें ऐसी मशहूर हुई कि मुंबई की पत्रिका ‘ शब्द सृष्टि ‘ के ग़ज़ल विशेषांक में संपादक डॉ. मनोहर ने उनकी ग़ज़लों को प्रमुखता से स्थान दिया । इन्ही डॉ.मनोहर की पत्नी डॉ. विजया ने मेरी लम्बी कविता ‘पुरातत्त्ववेत्ता’ पर सन दो हज़ार बारह में एक समीक्षात्मक पुस्तक लिखी थी । मुकुंद भाई इस बात को बेहतर जानते थे । आगे फिर मुकुंद भाई ने गुजराती में भी ग़ज़लें लिखीं ।

मुकुंद कौशल जी के रचना संसार में उनकी सामाजिक साहित्यिक गतिविधियों के अलावा सांगठनिक गतिविधियाँ भी शामिल थीं । उसी समय ललित सुरजन जी तथा प्रभाकर चौबे जी ने अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन की दुर्ग इकाई का गठन किया । मुकुंद कौशल प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष तो थे ही साथ ही दुर्ग ज़िला हिन्दी साहित्य समिति से भी जुड़े थे इसलिए उसमें भी उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया । बाद में वे दुर्ग जिला हिंदी साहित्य समिति के भी पूर्णकालिक अध्यक्ष बने और मैंने उनके साथ सचिव का पदभार संभाला । हम लोगों की जोड़ी बहुत बढ़िया चली । मुकुंद भाई का कहना था कि समिति का नाम दुर्ग ज़िला हिंदी साहित्य समिति है इसलिए इसमें ज़िले के दूरस्थ क्षेत्रों के साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की भी सहभागिता होनी चाहिए । मुकुंद भाई ने दूर दूर के लेखकों से संपर्क किया और बेमेतरा, बालोद, दल्ली राजहरा आदि क्षेत्रों के लोगों को जोड़ा ।

मुकुंद भाई बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे । आयोजन में तो वे सिद्धहस्त थे ही कोई जुलुस हो , सांगठनिक आन्दोलन हो, हिन्दी भवन की मांग हो , मुकुंद भाई झंडा लेकर सबसे आगे चलते थे । बैनर बांधने और पोस्टर लगाने और हाल सजाने के लिए उनके बैग में कैंची, टेप, गोंद, फेविकोल, कागज, रंगीन स्केच पेन सुतली हमेशा रहते थे । उनकी राइटिंग भी खुबसूरत थी । मुकुंद भाई के साथ मैंने साक्षरता अभियान में कई लेखन कार्यशालाओं में भी भाग लिया । डॉ परदेशी राम वर्मा , विमल पाठक, आशा दुबे, इंदु शंकर मनु , और भी कई लोग हमारे साथ थे । हम लोगों ने प्रो. डी एन शर्मा के साथ दुर्ग ज़िले के जाने कितने गाँवों में यात्राएँ भी कीं और नव साक्षरों के लिए अनेक गीत, कहानियां आदि भी लिखीं ।

उनके साहित्यिक संसार में उनके साहित्यिक मित्रों के अलावा उनके प्रशंसक भी बहुत रहे । वरिष्ठ साहित्यकार मलय जी, कमला प्रसाद जी, भगवत रावत, पवन दीवान, जमुना प्रसाद कसार, डॉ बलराम वर्मा, शुक्ल जी , शंकरलाल गुप्नंत कक्कू, नंदूलाल चोटिया, वी यादव राव नायडू, सुरेश चन्द्र सिंह, सुरेश चन्द्र शर्मा, कनक तिवारी, त्रिभुवन पाण्डेय, दानेश्वर शर्मा, विमलेन्दु सिंह, अशोक शर्मा, पुष्पा तिवारी, रवि श्रीवास्तव, गुलबीर सिंह भाटिया, गया प्रसाद खुदी, मुकीम भारती , शेख निज़ाम, राम कैलाश तिवारी, सरला शर्मा, नलिनी श्रीवास्तव, डॉ निर्वाण तिवारी, बलदाऊ प्रसाद शर्मा, सुरजीत नवदीप, बसंत देशमुख, डॉ सुरेन्द्र दुबे, रामेश्वर वैष्णव , अशोक सिंघई, प्रभा सरस, संतोष झांजी, विद्या गुप्ता, प्रदीप वर्मा, डॉ. प्रकाश आदि उनकी उर्जा और रचनात्मकता के प्रशंसक रहे ।

युवा कवि लेखकों और साहित्यकारों से तो उनकी खूब जमती थी । उनके प्रारंभिक दौर से ही अरुण कुमार निगम, विजय वर्तमान, , राजकुमार सोनी, कैलाश बनवासी, मनोज रूपड़ा, नासिर अहमद सिकंदर, विनोद मिश्र, विनोद साव, प्रदीप भट्टाचार्य, लोकबाबू, परमेश्वर वैष्णव मुमताज़, सियाराम शर्मा , बुद्धिलाल पाल, राजेश श्रीवास्तव, हरी सेन , अनिल कामड़े, मीना शर्मा, मिता दास , अनीता करड़ेकर,शशि दुबे, डॉ. संजय दानी, आशा झा ,कमलेश चंद्राकर, नीता काम्बोज, लक्ष्मीनारायण कुम्भकार,अरुण कसार, संजीव तिवारी ,सूर्यकांत गुप्ता, विजय गुप्ता, घनश्याम सोनी,सुदर्शन शंगारी, सत्यवान नायक , और उर्दू अदब के तमाम मित्र उनकी मित्र मंडली में शामिल रहे जो उनसे प्यार भी करते थे और शाद बिलासपुरी, सुलतान जावेद,नासिर आदि जिनसे वे बहस भी किया करते थे ।

रंगकर्मियों में हृदयराम तिवारी , मणिमय मुखर्जी, राजेश श्रीवास्तव, विभाष उपाध्याय, रजनीश झांजी, और लोक नाट्यों व लोक मंचों के ढेरों कलाकार लक्ष्मी कंवर, शैलेश साव, दीपक चंद्राकर आदि और संगीत क्षेत्र के बहुत से लोगों से उनका गहन परिचय था ।

पत्रकार बिरादरी में पुरानी पीढी से लेकर नई पीढ़ी तक धीरज जैन, राकेश रंजन मिश्र, राजेंद्र ठाकुर, दिवाकर मुक्तिबोध, अरुण मिश्र, जाकिर हुसैन, विमल शंकर झा, सूर्या राव, इत्यादि उनके परिचय के दायरे में थे ।

दुर्ग ज़िला हिन्दी सहित्य समिति के प्रति उनका विशेष अनुराग रहा और वे उसमे अनेक साहित्यकार मित्रों को आमंत्रित करते रहे जिनमे नवीन तिवारी,बलदाऊ राम साहू,गजेन्द्र द्विवेदी,अविनाश श्रीवास्तव,गज्जू यादव,सुशील यादव,घनश्याम सोनी, अशोक ताम्रकार,गणेश गंधर्व, छगन वर्मा आदि शामिल रहे । उनका यह सांगठनिक कार्य उल्लेखनीय है । वे विभिन्न शहरों में कवि सम्मेलनों में जाया करते थे इसलिए उनके अनगिनत प्रशंसक भी थे । छत्तीसगढ़ के राजनेताओं में ऐसा कोई नहीं था जो उनका प्रशंसक न रहा हो, चाहे वह किसी भी पार्टी का हो ।

मुझे इस वक्त रायपुर के डॉ.चितरंजन कर, गिरीश पंकज, आलोक वर्मा, जीवेश चौबे, नन्द कंसारी, संजय शाम, रमेश अनुपम,सुभाष मिश्र

बिलासपुर के नथमल शर्मा,कपूर वासनिक,रफ़ीक खान , प्रताप ठाकुर, रामकुमार तिवारी,जया जादवानी
अम्बिकापुर के विजय गुप्त, पीसीलाल यादव,मांगीलाल यादव, कवर्धा, लोहारा,बालोद के मित्र

जगदलपुर के लाला जगदलपुरी, विजय सिंह, सरिता सिंह,त्रिजुगी कौशिक, राजनांदगांव के थानसिंह वर्मा, पथिक तारक , जयप्रकाश, बेमेतरा के गोविन्द पोल, दिनेश गौतम, धमतरी के त्रिभुवन पाण्डे, मुकीम भारती, माझी अनंत,

ऐसे बहुत से मित्रों के नाम याद आ रहे हैं जिनसे वे बेतकल्लुफ़ी से मिला करते थे और अक्सर चर्चा किया करते थे ।

रजनीश उमरे, अज़हर कुरैशी, शुचि भवि,सागर गर्ग,राजेश चौबे, प्रीती सरू, सीमा साहू, नीलम जायसवाल, वीणा सिंह, , माला सिंह,उज्जवल प्रसन्नो रश्मि पुरोहित, जैसे युवा एवं युवतर मित्रों को वे लेखन संबंधी सलाह भी दिया करते थे । मेरे पास तमाम तस्वीरें उनकी साहित्यिक मित्रों के साथ हैं जिन्हें समय समय पर प्रस्तुत करता रहूँगा । मुकुंद भाई की आवाज़ भी मेरे आर्काइव में है ।

मुकुंद भाई की एक विशेषता यह भी थी कि वे लेखकों और साहित्यकारों से केवल व्यावसायिक या मित्रता के संबंध नहीं बनाते थे बल्कि उनके घर परिवार के लोगों से भी उनकी पहचान हो जाती थी और वे परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य की तरह ही उनसे बात करते थे। मेरे घर जब भी आते तो मेरी पत्नी से कहते “लता, बस थोड़ी सी चाय बना लाओ कम शक्कर वाली । हाँ खाने के लिए कुछ भी हो चलेगा और फिर वे आराम से बैठते, नाश्ता करते और गपियाने के साथ लता जी से बच्चों के उनके मायके के हाल-चाल भी पूछते जाते । लगभग हर परिवार उनके इस स्नेहपूर्ण व्यवहार से परिचित है।

लिखने पढ़ने के अलावा मुकुंद भाई को अच्छा पहनने और अच्छा खाने या कहें कि चटपटा खाने का भी बहुत शौक था। उन शुरुआती दिनों में जब वे और महावीर अग्रवाल जी किसी चाट या गुपचुप के छोटे-मोटे ठेले पर खड़े हो जाते थे तो अन्य लोगों के लिए बहुत मुश्किल से कुछ बचता था। मुकुंद भाई की देह यष्टि यद्यपि थोड़ी भारी थी लेकिन इस उम्र में भी उनमे गज़ब की फुर्ती थी । वे एक से एक फैशनेबल कपड़े पहनते थे। शो मैन राजकपूर की तर्ज पर हम लोग उन्हें साहित्य का शो मैन कहते थे। लेकिन धीरे धीरे उनके शरीर पर बीमारियों ने आक्रमण करना शुरू किया और पिछले कुछ वर्षों से वे काफी बीमार रहने लगे थे। उसके बाद भी उनका उत्साह कम नहीं होता था, वे थोड़े से ठीक होते ही सक्रिय हो जाते, कार्यक्रमों में उनका आना-जाना शुरू हो जाता। लिखना तो उन्होंने कभी बंद ही नहीं किया और अभी उनकी अंतिम सांस तक वे इसी तरह लिखते रहे । उन्होंने अनुवाद का कार्य भी प्रारंभ किया था और मेरी चर्चित कविता ‘अनकही’ या ‘वह कहता था वह सुनती थी’ का गुजराती अनुवाद भी उन्होंने किया था । अनुवाद के अनेक प्रोजेक्ट वे शुरू करना चाहते थे ।

मुझे मुकुंद भाई की साहित्यिक यात्रा देखकर लगता है कि वे अपने जीवन से बहुत संतुष्ट थे । उनके झोले में राष्ट्रीय स्तर की अनेक उपलब्धियां थीं । सृजन श्री अलंकरण, समाज़ गौरव सम्मान साक्षरता सम्मान, अहिन्दी भाषी हिंदी सम्मान, लोककला सम्मान, मुश्फिक पुरस्कार, मुकीम भारती पुरस्कार, साहित्य गौरव, भारत गौरव, डॉ. नरेंद्र देव वर्मा सम्मान, अंबिका प्रसाद दिव्य अलंकरण, भुइयां सम्मान,परिधि सम्मान,कथाकार सम्मान सहित लगभग तीस से भी अधिक सम्मानों,अलंकरणों एवं पुरस्कारों के वे हकदार रहे । वे अपने अंतिम समय तक सक्रिय थे । निधन से एक सप्ताह पहले ही साहित्यकार सुधीर शर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव के महती आयोजन में उनका सार्वजनिक सम्मान भी किया । वे लगातार आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी जाते रहे । फरवरी दो हज़ार इक्कीस के रायपुर किताब मेले में उनका काव्य पाठ उनका अंतिम काव्यपाठ बनकर दर्ज हो गया ।

फिर भी मुझे लगता है कि मुकुंद भाई की भौतिक साहित्यिक यात्रा अभी जारी रहनी चाहिए थी। उनका होना साहित्यिक समाज में एक जीवन्तता की तरह लगता था। साहित्य, विचारधारा, मंच, संगठन आदि अनेक मुद्दों को लेकर उनसे चर्चा होती थी। कार्यक्रमों की शोभा बढ़ना, आयोजन में चार चाँद लगना जैसे संप्रत्ययों को उनकी उपस्थिति एक अर्थ प्रदान करती थी । लेकिन क्या करें.. नियति के आगे सब बेबस हैं । हम यह मानकर संतोष कर लेते हैं कि हम लोगों के साथ उनकी यात्रा यहीं तक थी ।

भाई मुकुंद कौशल किसी के निधन पर अक्सर एक शेर कहा करते थे “ वो तो बता रहा था कई रोज़ का सफ़र , ज़ंजीर खींचकर जो मुसाफ़िर उतर गया ।। “ मुकुंद भाई भी ऐसे ही बीच सफ़र में हमें छोड़कर चले गए । उन्हें हम सब कलमकारों, कलाकारों, रंगकर्मियों, जन संगठनों,लेखक संगठनों, समितियों और प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मियों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि।

शरद कोकास
व्हाट्सएप नं. 8871665060

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मित्रों, मुकुंद भाई का मित्र संसार बहुत बड़ा था, अनेक लोगों के नाम इस आलेख में शामिल नहीं कर पाया, क्षमा चाहते हुए निवेदन कर रहा हूँ कि अपना नाम मुझे सूचित करें और यह स्मृति आलेख अपने अन्य मित्रो के व्हाट्सएप पर विभिन्न समूहों , विभिन्न साइट्स आदि पर प्रेषित करें।

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