रेड कॉरिडोर की तितली
गायत्री सराफ
कल सुबह ठीक पांच बजे टीवी चैनल के संवाददाता पदम तालाब के पास पहुंचेगे. वहां एक आदमी मिट्टी खोद रहा होगा, वही संवाददाता को लेकर जाएगा. वह कौन है, कहां से आएगा, कहां जाएगा, इस पर दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है, उसकी जिम्मेदारी हमारी है. साक्षात्कार का समय दोपहर एक बजे से दो बजे तक है. यह सारी बातें एकदम गोपनीय हैं. चालाकी करने पर ओम चैनल को उड़ा दिया जाएगा. लाल सलाम!
‘लाल सलाम!’ जिसका नारा है, उसकी चर्चा देश भर में है, उसी से आया था यह ई-मेल. इस ई-मेल को पढ़कर उस स्थानीय चैनल के डायरेक्टर का चेहरा चमका. इस मिशन से चैनल की मांग बढ़ जाएगी. व्यवसाय बढ़ेगा. पर कौन जाएगा हार्डकोर माओवादी से मुलाकात करने? उनका साक्षात्कार लेकर आने? यह कोई आसान बात तो नहीं थी!
तुरंत जरूरी मीटिंग बुलाई गई. युवा रिपोर्टर इस मिशन के लिए तैयार हो गईं, पर एक वरिष्ठ संवाददाता ने एतराज जताया. उन्होंने कहा, ” यह किसी महिला संवाददाता का काम नहीं है. किसी दुर्घटनाग्रस्त इलाके में जाकर खबर इकट्ठा करना, किसी राजनेता या अभिनेता की कोठी में जाकर उनका साक्षात्कार लेना अलग बात है और किसी माओवादी से मुलाकात करना अलग बात है. इसमें बहुत खतरा है.”
” जिसमें खतरा हो, चुनौती हो, वही हमें अच्छा लगता है. पुरुष संवाददाताओं की तरह हम भी किसी भी टास्क को पूरा करने में सक्षम हैं सर. यह मौका हमें दीजिए, और देखिएगा, हम आपको निराश नहीं करेंगे.”
बहुत दृढ़ता के साथ एक रिपोर्टर बोली. दूसरी के चेहरे पर भी वही भाव नजर आ रहा था. काफी विचार, विमर्श के बाद उन्हीं दो महिला रिपोर्टर को वह काम सौंपा गया. वैसे हर कोई जानता था कि वे दोनों काफी दंबग और दुःसाहसी हैं. जुडो-कराटे जैसी आत्मरक्षा करने के कौशल की तालीम ले रखी है दोनों ने. किरण बेदी उनकी आदर्श हैं. अब्बास, कुलदीप नैयर को वे पढ़ती हैं. बाइक चलाती हैं. दोनों का नाम भी धांसू है.
एक का नाम वन्ही और दूसरी का नाम शिखा.
अब वे दोनों इस मिशन में थीं. पहाड़ी से दूर स्थित तालाब के पास से शुरू हुई दोनों की दुर्गम और दुःसाहसिक यात्रा. एक कि.मी. चलने के बाद बुड्ढा बरगद का पेड़ था और वहां से कुछ दूर चलने के बाद पहाड़ी के नीचे था गांव. गांव पार करने के बाद संकरी सड़क थी, जो आगे जाकर जंगल के रास्ते से मिलती थी. फिर आगे घना जंगल आ जाता. जंगल में आगे बढ़ने के लिये उन्हें एक मधु बेचनेवाला रास्ता दिखा रहा था. पर सच में यह मधु बेचनेवाला है या फिर कोई और, कौन जानता है? पर अभी तो दोनों रिपोर्टर उसकी हिफाजत में थे.
जंगल धीरे-घीरे गहरा होता जा रहा था, गहरा और अंधेरा.
सन्नाटे को चीर कर सायं-सायं की आवाज गूंज रही थी. कभी सरसराहट की आवाज आती तो कभी किसी अनजाने पंछी की विचित्र आवाज सुनाई पड़ती. कभी किसी जंगली जानवर की हूंकार भी आती. जंगल के इस रूप को कहानीकार शायद घना जंगल कहते होंगे. जंगल का वह रूप रहस्यमय होने पर भी अपने अंदर सूरज का तेज और दीप्ति लेकर उसे चीरते हुए वहनी और शिखा आगे बढ़ती जा रहीं थी. कितना अपूर्व अनुभव था वह! नीरव मुखरता!
पत्रकारिता में इस तरह के जाने कितने रोमांच भरे रहते. कितना रोमांच, उन्माद. आग में चलना, पानी में डूबना, आकाश में झूलना जैसे जाने कितने काम.
आंखों के सामने है आज कुछ लुभावने दृश्य, जंगल के कुछ ठसके. खरगोश का एक झुंड परेशान भाग रहा था. दो पंछी एक-दूसरे से चोंच लड़ा रहे थे. एक बंदरी दूसरे की शरीर से जुएं निकाल रही थी. झाड़ियों के पीछे से हिरन-हिरनी की मासूम आंखें झांक रही थीं. शिखा इन सारे दॄश्यों को अपने मोबाइल में कैद करती जा रही थी. उसका मन कर रहा था कि वह कुछ देर और यहीं रुक जाए, जी भर के इन दृश्यों का उपभोग कर ले. पर सब कुछ तय समय में हो रहा था. बहुत ही कड़ाई के साथ समय का वे पालन कर रहे थे. क्या सचमुच समय के प्रति वे इतने सचेत थे? उनके लिये भी क्या समय इतना महत्त्वपूर्ण है? शिखा सोचने लगी.
जंगल और भी गहरा होता जा रहा था.