पगले, यूँ नहीं रुकते हैं
पगले,
यूँ नहीं रूकते हैं।
पगले,
यूँ नहीं झुकते हैं।
कुछ कर जा,
मैदान में आ।
अलग अपनी,
पहचान बना।
पगले,
यूँ नहीं थकते हैं।
पगले,
यूँ नहीं रुकते हैं।
छोड़ो पछताना,
नहीं सकुचाना।
चलते हुए ये,
तेरा रुक जाना।
पगले,
ये नहीं फबते हैं।
पगले,
यूँ नहीं रुकते हैं।
ये तेरा ज़माना
तू जी मस्ताना।
दुनिया बड़ी ये
लिख अफ़साना।
पगले,
लुकते-छिपते हैं।
पगले,
यूँ नहीं रुकते हैं।
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विश्व आदिवासी दिवस में
पृथ्वी के पेट के भीतर
ठंडी पड़ी लावा के ऊपर
बसने वाले मेरे दोस्त
साँझ को
तुम अपने किसी नदी की पानी को
चुल्लू भर पीकर आ घर
चिमनी जला लेते हो, वो तुम्हारी
नदी की पानी को रोककर
बिजली बना रहा है
अपनी रातों को रौशन करने
मेरे क़ाबिल दोस्त
बांस से घिरे तुम्हारे घर से कुछ दूर
जब करमा की धुन पर थिरक रहे थे तुम
फॉरेस्ट विभाग के बग़ल से
सागौन से लदी गाड़ी
गुज़री, तुम्हारा
बैलाडीला खुदकर पाताल कुआँ हो जाएगा
और पहाड़ को काटकर
हेलीपैड बनाया जाएगा
और यह सुनने में आया कि
कुछ लोग मिलकर
कुछ लोगों को
तुम्हारा जल, जंगल, जमीन
ख़रीदने-बेचने वाले हैं
और हाँ जंगल के सियार, शेर और हाथी
तुम्हारे दुश्मन नहीं
पर हैं
कहीं के तो सही।
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टिकेश्वर प्रसाद जंघेल
आर.डी. एस. महाविद्यालय
सालमारी, कटिहार (बिहार)
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