“प्रेम पाश नहीं, खुला आकाश है!”
प्रेम पास नहीं तो क्या!
खुलने दो उसके पंख…
विचरने दो उसे स्वच्छंद
एक नये क्षितिज पर वह निजाकार लेगा
तुमको न सही
तुम्हारे नेह स्वीकार लेगा
जब
महज़ तुम्हारे नाम के उच्चारण से ही
उसके कपोलों में खिलेंगी नीलाभ-आकाशगंगाएँ
नृत्यालाप करेंगे तारों के दल-के-दल
छल-छद्म,जाति-विजाति,धर्म-विधर्म के सारे आवरण
दिगम्बर होंगे
जिसकी तुम्हें कल्पों से आस है…
कि प्रेम पाश नहीं,खुला आकाश है ।
©निमाई प्रधान’क्षितिज’
रायगढ़,छत्तीसगढ़