आधे-अधूरे : पूर्णता की तलाश बेमानी है
मोहन राकेश जी का यह नाटक अपने पहले मंचन(1969) से ही चर्चित रहा है.तब से अब तक अलग-अलग निर्देशकों और कलाकारों द्वारा इसका सैकड़ो बार मंचन हो चुका है; और आज भी यह उतना ही प्रशंसित है.निर्देशकों के अनुसार यह रंगमंचीय दृष्टि से तो उपयुक्त है ही, इसका कथानक भी समकालीन जीवन की विडम्बना को सार्थक ढंग से व्यक्त करता है;जो बदलते परिवेश में भी प्रासंगिक है.दरअसल नयी कहानी के दौर में मोहन राकेश या उसके कुछ समकालीन जिस ‘आधुनिक भावबोध’ की बात कर रहे थे, वह ‘विकास’ की विषमता या नगरीकरण की विषमता के कारण, कुछ क्षेत्रों में अभी ‘हाल’ की घटना लगती है.भौगोलिक विषमता और ‘विकास’ के पहुंच की सीमा कारण यदि तब यह सब लोगों की ‘हकीकत’ नही थी तो आज भी कई हिस्से इससे अछूते हो सकते हैं.बहरहाल लेखक यह चिंता नही करता कि उसकी रचना में व्यक्त ‘सच’ सबका ‘सच’ हो.
मोहन राकेश जी कहानी से नाटक की तरफ आये थे;मगर उनकी सम्वेदना और भावबोध का क्षेत्र लगभग वही रहा;महानगरीय जीवन के अलगाव, अजनबियत, एकाकीपन,,अतृप्त आकांक्षा आदि जो औद्योगीकरण के फलस्वरूप ‘ग्रामीण जीवन’ से ‘नगरीय जीवन’ मे संक्रमण से तीव्रता से प्रकट हुए थें. मोटेतौर पर कह सकते हैं कि यह आजादी के बाद के महानगरीय जीवन के लक्षण हैं.
इस नाटक का कथानक एक मध्यमवर्गीय परिवार है; जिसमे पति-पत्नी के अलावा उनके दो बेटियां और एक बेटा है.अन्य पात्रों में तीन और पुरुष हैं. नाटक की सम्पूर्ण घटनाएं एक कमरें में घटित होती है, हालाकिं सम्वाद से सम्पूर्ण परिवेश और उसका द्वंद्व उभर आता है.इस नाटक की ‘केंद्रीय’ चिंता क्या है?एक ‘सामान्य’ पाठक जब नाटक के आखिर तक(क्लाइमेक्स) पहुंचता है,तो उसे महसूस होता है; और लेखक भी इशारा(सम्वाद से)कर देता है कि दुनिया मे ‘पूर्ण’ कोई नही है; सब ‘आधे-अधूरे’ हैं. पूर्णता की तलाश बेमानी है.मनुष्य की महत्वाकांक्षा असीम है जो दुनिया के यथार्थ से हरदम मेल नही खाती, यह स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब आर्थिक सक्षमता पर्याप्त न हो.आदमी जो भी है, अपने खूबियों और कमियों के साथ है.सम्बन्धो का निर्वहन इस स्वीकार बोध के साथ ही सम्भव है,अन्यथा जीवन घसीटते गुजरता है.अवश्य अन्य परिस्थितियां नकारात्मक हो तो इसकी तीव्रता को बढ़ा देती हैं.
नाटक का ‘मुख्य पात्र’ सावित्री पढ़ी-लिखी, महत्वाकांक्षी, कामकाजी महिला है.वह जीवन को भरपूर जीना चाहती है,मगर ऐसा हो नही पा रहा है.इसका एक कारण, जो बहुत हद तक सही भी है, खराब आर्थिक स्थिति है. उसके अकेले नौकरी से पूरा घर चल रहा है. पति व्यवसाय में असफल होकर ‘निकम्मा’ हो गया है. बेटा पढ़ाई में असफल तो है ही कामचोर भी है;उस पर भी वह उसके लिए लगातार ‘प्रयास’ करती है.बड़ी बेटी ‘लव मैरिज’ कर भी सुखी नही है.छोटी बेटी की ‘जरूरतें’ पूरी नही हो पा रही हैं. ऐसे में उसका (सावित्री)खीझना, असहज महसूस करना स्वाभाविक भी लगता है.मानो उसकी अपनी जिंदगी खो सी गयी है.इससे उसके अंदर एक अतृप्ति का भाव पैदा होता है; और वह इसके ‘तृप्ति’ के चाह में कई पुरुषों के सम्पर्क में आती है; मगर उसको ‘तृप्ति’ मिलती नही.वह द्वंद्व में जीती है. उसका एक मन घर से जुड़ता है तो दूसरा मन घर से दूर होना चाहता है.मगर समस्या यह भी है कि वह ‘अतृप्त’ तब भी थी जब सबकुछ ठीकठाक था; आर्थिक स्थिति अच्छी थी, पति का व्यवसाय भी चल रहा था! तब उसे शिकायत थी कि पति(महेन्द्रनाथ) के माता-पिता उसे (महेन्द्रनाथ) को अपनी जिंदगी नही जीने दे रहें है; उसे अपने गिरफ्त में रखना चाहते हैं. फिर कुछ समय बाद यह शिकायत महेन्द्रनाथ के दोस्तों पर प्रतिस्थापित हो गया कि वे उसको ‘बर्बाद’ कर रहें हैं. यानी समस्या की जड़ कहीं और है!
समस्या ख़ुद सावित्री के अंदर है, जिसे जुनेजा अच्छी तरह से उद्घाटित करता है.वह पुरुष में जिस ‘पूर्णता’ की कामना करती है; दरअसल जीवन मे वैसा होता ही नही.वह एक आदमी में ‘सबकुछ’ चाहती है; और न पाकर उसका उपहास करती है. उसकी ‘कमजोरी’ पर कभी खीझती है; कभी व्यंग्य करती है.मगर वह कभी एक पल के लिये नही सोच पाती की समस्या की जड़ वह खुद है.शुरुआत में दर्शक की सहानुभूति उसके पक्ष में जाती है; वह वैवाहिक जीवन मे पति से प्रताड़ित भी हुई है, आज वह पूरे घर के खर्च का निर्वहन कर रही है.लेकिन जैसे-जैसे घटनाक्रम आगे बढ़ता है;एक दूसरा सच भी स्पष्ट होने लगता है, जिसका सार जुनेजा के इस व्यक्तव्य में है “असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करती कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली.उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या कोई जगमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती.क्योकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा-कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना कुछ एक साथ ओढ़कर जीना. वह उतना-कुछ कभी तुम्हे किसी एक जगह न मिल पाता, इसलिए जिस किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती”.
नाटक के अन्य पात्र देखा जाय तो इस ‘केंद्रीय सम्वेदना’ की सघनता को बढ़ाते हैं. सावित्री का पति महेन्द्रनाथ एक बेरोजगार व्यक्ति है; लगभग उपेक्षित; कोई उसकी परवाह नही करता.सावित्री की नज़र में एक ‘रीढ़हीन’ व्यक्ति,जो अपना निर्णय नही ले सकता. लेकिन किसी समय वह घर का ‘प्रमुख’ भी था; व्यवसाय में असफलता ने उसे बेरोजगार कर दिया है.हालांकि इस असफलता में घर मे किये गए उसके ‘अनाप-शनाप’ खर्च भी कारण रहा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह नही. अवश्य महेन्द्रनाथ की अपनी मानवीय कमजोरियां है, लेकिन सावित्री की बार-बार उलाहना और व्यंग्य ने उसे कहीं अधिक कमजोर बना दिया है और हीनताबोध से ग्रसित हो गया है.वह एक तरह से प्रताड़ित और डरा हुआ है,इसलिए वह किसी पुरुष के घर आने पर कोई न कोई बहाना बनाकर बाहर चला जाता है,उस पर भी विडम्बना यह आरोप की उसमे किसी का सामना करने की हिम्मत नही.
बड़ी बेटी बिन्नी मनोज से प्रेम विवाह करती है, जो वस्तुतः उसकी माँ सावित्री का ‘प्रेमी’ था.वह भी लगभग उसी द्वंद्व से ग्रसित! दोनो एक- दूसरे को समझ नही पा रहें.सब कुछ ठीक होकर भी कुछ ठीक नही है.कहीं कुछ गड़बड़ है; मगर गड़बड़ क्या है?वह कहती भी है “वजह सिर्फ हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है” या फिर “वह कहता है कि मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूं जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वाभाविक नही रहने देती”.छोटी लड़की किन्नी भी भी अपने उम्र से कुछ अधिक बर्ताव करती है.किसी के प्रति उसके अंदर सम्मान दिखाई नही देता.बेटा अशोक भी अपनी कोई जवाबदारी नही समझता.सावित्री के ‘क्रियाकलापों’ से वह असन्तुष्ट जरूर है, मगर खुद अपना ‘विचलन’ उसे दिखाई नही देता.सभी किसी न किसी ‘मनोग्रंथि’ से ग्रसित लगते हैं.
कुल मिलाकर पूरे घर के वातावरण में एक अनामिकता, अलगाव,असंतुष्टि, व्याप्त है.कोई किसी को जानकर भी जानता नही.यह त्रासदी क्या एक विशिष्ट परिवार भर का है?दरअसल यह द्वंद्व पूरे मध्यमवर्ग का है,जहां बहुत सी आशाएँ, जरूरते, सपने पूरे न होने पर घनीभूत होकर इस द्वंद्व और भी बढ़ा देतें हैं. अभाव की आंच में सम्बन्धों के डोर टूटने लगते हैं.मगर अभाव ही इसका एकमात्र कारण नही है.हम सब इस बात को न स्वीकार पाने के लिए अभिशप्त हैं कि ‘पूरा’ कोई नही है सब ‘आधे-अधूरे ‘ हैं.
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[2018]
#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
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