सतपाल “ख़याल” की ग़ज़लें
शायर : सतपाल “ख़याल”
ग़ज़ल : 1
जब से बाज़ार हो गई दुनिया
तब से बीमार हो गई दुनिया
चंद तकनीक बाज़ हाथों में
एक औज़ार हो गई दुनिया
जैसे जैसे दवाएं बढती गईं
और बीमार हो गई दुनिया
जब से रुकने को मौत मान लिया
तेज़ रफ्तार हो गई दुनिया
कोई झूटी सी खबर लगती है
एक अखबार हो गई दुनिया
क्यों कफन इश्तहार बनने लगे
कैसे सरकार हो गई दुनिया
है खुले पिंजरे में क़ैद “ख़याल”
ख़ुद गिरफ्तार हो गई दुनिया
शायर : सतपाल “ख़याल”
ग़ज़ल : 2
किसी रहबर का मज़लूमों से कोई बास्ता , कब था
झुलसते पांवों का तक़रीर में भी तज़्किरा , कब था
हमें ऐ वक़्त ! अपने आज में जीना तो आ जाता
मगर कल और कल के दरमियां में फासला कब था
कोई कारण नहीं था रौशनी के दूर रहने का
अंधेरी कोठरी में रौशनी को रास्ता कब था
ज़माना है , ये आदम के ज़माने से ही ऐसा है
बुरा कहते हो जिसको तुम ,कहो तो ये भला कब था
बहुत कुछ पूछना था और बतलाना बहुत कुछ था
“ख़याल ” उस शख़्स से लेकिन हमारा राब्ता कब था
शायर : सतपाल “ख़याल”
ग़ज़ल
शाम ढले मन पंछी बनकर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे धागों से ग़ज़लें बुनकर लाता है
रात की काली चादर पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही क़तरा -क़तरा शबनम सा उड़ जाता है
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आँचल में सो जाता है
जाने क्या मज़बूरी है जो अपना गांव छोड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़ -पट्टी में आकर बस जाता है
जलते हैं लोबान के जैसे बीते कल के कुछ लम्हें
क्या खोया ? क्या पाया है मन रोज़ हिसाब लगाता है
चहरा -चहरा ढूंढ रहा है ,खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी , तह तक क्यों वो जाता है
कैसे झूट को सच करना है ,कितना सच कब कहना है
आप “ख़याल” जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
शायर : सतपाल “ख़याल”
ग़ज़ल : 4
ग़ज़ल
जो मांगो वो कब मिलता है
अबके हमने दुःख मांगा है
घर में हाल बज़ुर्गों का अब
पीतल के बरतन जैसा है
नाती पोतों ने ज़िद्द की तो
अम्मा का संदूक खुला है
अब तुम राख उठा कर देखो
क्या -क्या जिस्म के साथ जला है
दूब चमकती है खेतों में
बरगद चिंता मेँ डूबा है
रोती आँखें हँसता चेहरा
अंगारों पर फूल खिला है
आँखों से है ओझल मंज़िल
पैरों से रस्ता लिपटा है
याद ” ख़याल” आई फिर उसकी
आँखों से आंसू टपका है
शायर : सतपाल “ख़याल”
ग़ज़ल : 5
अर्ज़ी दी तो निकली धूप
कोहरे ने ढक ली थी धूप
दो क़दमों पर मंजिल थी
ज़ोरों से फिर बरसी धूप
बूढ़ी अम्मा बुनती थी
गर्म स्वैटर जैसी धूप
धूप में तरसे साए को
साए में याद आई धूप
भूखी –नंगी बस्ती ने
खाई जूठन पहनी धूप
गुरबत के चूल्हे पे है
फ़ाकों की फीकी सी घूप
ढलती शाम ने देखी है
लाठी लेकर चलती धूप
चाय के कप में उबली
अखबारों की सुर्खी धूप
जीवन क्या है बोल “ख़याल “
खट्टी-मीठी तीखी धूप