“बारह…”
पता नहीं क्यों मेरे हृदय को
हमेशा कचोटती रहती है
‘बारह अंक’
खाली दिमाग को चाटती रहती है
दीमक की तरह
भूल कर भी नहीं भूल पाता हूं
‘अंक बारह’
मां मेरी अनपढ़ थी
फिर भी बारह घड़ी बारहौं पहर
मेरा ही ख्याल रखती थी ।
मांगू एक रोटी देती थी दो रोटी
एक पर दो रख दो तो बारह ।
वह कहती थी…
“बारह बजे रात को जन्मा है तू
रविवार का दिन अगहन का महीना
और कुछ नहीं पता मुझे
तारीख या गते मैं क्या जानूं
हां इतना जरूर है कि उस दिन
राम जानकी विवाह पंचमी था ।”
‘बारह खड़ी’ रटा रटाकर
मास्टर जी ने दिमाग को
दही बना दिया,
परंतु…
मेरे दिमाग में घुसा नहीं ।
‘बारह बीघा’ मैदान, जनकपुर धाम
जिसको रंगभूमि मैदान भी कहते हैं
पला……….!
बढ़ा……….!!
खेला………!!!
बचपन गुजरा !!!!
‘बारह साल’ कब गुजरा
‘बारह वर्ष’ का कब हुआ
पता ही नहीं चला
रोग ग्रस्त हुआ ।
बचपन से किशोर का द्वंद हुआ
पता ही नहीं चला ।।
ये बढ़ती हुई उम्र की
तकाजा था
पता ही नहीं चला ।।।
‘बारह सावन’ बिता भी
नहीं पाया मां के गोद में
पता नहीं किसका नजर लग गया
समय…..!
समाज….!!
सुरूर……!!!
जुनून……!!!!
बारह बीघा मैदान से
बारह वर्ष की दहलीज पारकर
बारह सौ किलोमीटर दूर
बारह वर्ष अपने से ज्यादा उम्र को
जिसको
‘मां ए उम्र माशूका’
भी कहते हैं
बारह बजे रात को
एक चोर की भांति
बारह सौ किलोमीटर दूर
दिल्ली में….!
‘बारह’ का कारवां यहीं नहीं थमा ।
बारह महीना…
बारह घंटा काम ड्यूटी
चेहरे पर बारह बज चुका
साफ झलक रहा था ।
‘बाराखंबा’ पर जाकर
बारह खंबा गिनता रहा
‘बारा टूटी’ पर जाकर
बारह तरह की
बारह घाट का पानी पीता रहा।
बारह राशियों में अपनी
जिंदगी का फलसफा ढूंढता रहा ।
बारह मास ‘बारहमासी गवैया’
बनकर अपना ही जीवन का
गीत गाना चाहा…।
इस तरह…
बारह वर्ष की
पहली सदी बीत चुका ।
बारह वर्ष की
दूसरी सदी बीत चुका ।।
और अभी…,
बारह वर्ष की
तीसरी सदी बीत चुका ।।।
बारह वर्ष की
चौथी सदी आरम्भ हो चुका है…
इंतजार है…
पौ बारह होने की ।।।।
स्वरचित एवं मौलिक
मनोज शाह ‘मानस’
नई दिल्ली-110015
मो.नं.7982510985
16.09.2021