एक एक वाक्य की कविताएं उर्फ सूत्र काव्य
-ब्रज श्रीवास्तव
“अच्छे लोग किसी के लिए बुरा सोचते सोचते भी अच्छा सोचने लगते हैं lआप आप चाहे मुट्ठी बांधिए या गांठ लगाइए। वहां दृढ़ता पैदा हो जाएगी।”
“खून चाहे जितना भी दौड़े शरीर ही उसकी सीमा हैl”
इन एक एक वाक्यों में ऐसा क्या है जो हमें इनमें रम जाने के लिए उकसाता है।सोचिए ऐसा क्या है इनमें कि इन्हें पढ़ते ही हम उस वाक्य को छोड़ उससे दूर जाकर अपने जीवन संदर्भों से तार जोड़ने लगते हैं।ऐसा कोई भी वाक्य जो हमारी चेतना की कैफ़ियत बदल सके काव्य वाक्य हो सकता है। जैसे कि..
“अधूरी नींद फुर्सत तलाशती है और अधूरे काम मेहनत को”
जीवन का अधिकतर हिस्सा हमारे पढ़ने,कहने और सुनने के साथ साथ लिखने से संचालित होता है।ये चारों क्रियाएं अधिकतर इकाई में घटित होती हैं। अक्सर ही स्मृति में एक वाक्य की कौंध स्थान घेरती है।कहा जा सकता है कि श्रुति हो या वाक,पाठ हो या लेख,अपने सूक्ष्म तम और सरलतम के जिस आकार में अनिर्भर रहकर प्रभाव शाली होते हैं वह एक पूर्ण विराम तक की सार्थक शब्द यात्रा है।इसे ही सूक्ति कहा गया, इसे ही सुभाषित और इसे ही सूत्र।सूत्र में गुंथीं संवेदन निधि की एक किताब अभी अभी चर्चा में आई है,जिसका नाम है सूत्र काव्य और इसके लेखक हैं,नरेश अग्रवाल।बोधि प्रकाशन के कोष में इस पुस्तक ने प्रवेश करते ही काव्य जगत में उम्मीद भरी कविता की दौलत पाठकों को सौंप दी।उन्हीं पाठकों के बीच एक मैं भी हूं,जो इस संग्रह की कवित्त सूक्तियों को एक कभी रसिक की तरह तो कभी विदग्ध की तरह
ग्रहण कर रहा हूँ।
हिन्दी साहित्य के विराट फलक में और कवियों के बाहुल्य में एक कवि नरेश अग्रवाल अपनी इस संप्रेषण प्रधान सूत्र काव्य की पुस्तक के साथ उपस्थित होते हैं तो वे ध्यातव्य के हकदार तो होते हैं।अरस्तू, सुकरात, मम्मट, अनेकों काव्य शास्त्रियों ने प्रकारांतर से लिखा है कि रस,संवेदना या भाव से युक्त वाक्य ही कविता होती है।इस तरह यह मान्य होना चाहिए कि कविता प्रायः एक ही जुमले में बसती है.ये अन्य बात है कि एक बहुवाक्यीय कविता में हर वाक्य में कविता भी होती हो।
नरेश अग्रवाल ने स्वयं इसी आशय की बात अपनी भूमिका में इस तरह से लिखी है।
मेरी समझ में साहित्य में क्षणवाद की पैठ और प्रभाव बढ़ने के साथ तदनुरूप रचना शैली एवं रचनाओं का कलेवर भी परिवर्तित हो रहा है यह स्वाभाविक भी है और वर्तमान परिस्थितियों के सर्वथा अनुकूल भी।उनके इस कहे को
हम इन वाक्य कविताओं में देखते हैं।
“प्रेम ही ऐसी चीज है उसमें कितने भी गहरे डूब हो डर नहीं लगता”
“शिक्षित को लोग स्तंभ की तरह देखते हैं और अशिक्षित को अनजान की तरह।”
“दो पेड़ खुशी से आसपास रह लेते हैं लेकिन दो मनुष्य मुश्किल से ही”
“बुद्धि हमेशा गहराई में ही गोते लगाती है ”
एक कविता के सूत्र बन जाने की रासायनिक क्रिया दरअसल वैसी ही होती है जैसे कार्बन की हीरा बन जाने की।अर्थात बहुत कम कविताओं को ये सिफ़त हासिल होती है कि वे सूत्र बनें ।मीर और ग़ालिब के ऐसे मिसरे,कबीर, रहीम, बिहारी और तुलसी की कविताओं के आधे हिस्सों तक को बारंबार प्रयोग से सूत्र बनाया गया।कीट्स,यीट्स,विलियम ब्लैक,कोलरिज या शेक्सपियर के लिखे में भी अनेक मनोहर सूक्तियां मिलतीं हैं।लेकिन उचित कल्पनाओं, उचित उपमाओं और उचित प्रतीकों के प्रयोग से यह एकवाक्यता सूत्रात्मक सार में नरेश अग्रवाल के विपुल कोष में आई है।ये सुभाषित भी नहीं है न ही विदुर नीति,चाणक्य नीति के श्लोकांश हीं।ये तो समकालीन आत्मनिर्भर पंक्तियां है जो हमारे ठीक इसी समय ही नहीं हर समय काम की है।जीवन जीने के लिए नरेश अग्रवाल जी के मशविरे हैं।सबसे अच्छी बात ये है कि शब्दों के बीच के छूटे हुए अर्थ हमारे पास खुद चलकर आते हैं।कभी कभी नरेश अग्रवाल के ये कथन व्यक्तित्व सुधार के लिए मुफीद भी लगते हैं।कभी कभी आध्यात्मिक और कभी बिल्कुल व्यवहारिक।ऐसा लगता है इनकी रचना प्रक्रिया में काव्यात्मक उद्देश्य प्रमुखता से आता होगा।जो वाक्य प्रेमचंद या तोल्सतोय की कहानियों में से खोज- खोज कर लिए जाते हैं।ऐसे वाक्य हमें अच्छी तादाद में यहां मिल जाते हैं।जब कभी भी कविता और सूक्ति में भेद पर बहस होगी तो उद्धरण के लिए सूत्र काव्य नामक यह संग्रह काम आएगा।
जैसे कि ये एक सूक्ति-
अच्छे व्यक्ति की दुनिया से विदाई एक बड़े समूह के लिए सजा तुल्य है।
इन वाक्य कविताओं को कागज़ पर उतारने के पहले जिस रचनात्मक प्रसव से कवि की कलम गुजरी होगी,वह निश्चित ही अनुभवों की अनेक श्रृंखलाओं से आई होगी।एक भी वाक्य यहां बौद्धिक विलास जैसी कोरी शब्द जुगाली नहीं होगी।ये आत्म मंथन के बाद आईं हैं।इनके परिष्कृत आकार से ही यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि नरेश अग्रवाल ने यहाँ न केवल मशक्कत की है बल्कि बार बार इन्हें सघनता की कसौटी पर रखकर तौला भी है।मुमकिन है हर सूक्ति ने इस रूप में आने के पहले लेखक को थोड़ा तंग कर लिया हो,और लेखक ने इस चुनौती में भी सृजन का सुख लिया ।ज़ाहिर है यह रचनात्मक श्रम अब साहित्य के खजाने में एक उपादेय सामग्री हुई,ऐसा कम होता है कि हम कुछ पढ़ें तो अपने भीतर भी झांकना हो जाए,ऐसा कम होता है कि हम अनिर्णय की स्थिति में हों और इनमें से किसी सूक्ति को पढ़ते ही फैसला लेने की राह आसान हो जाए।जिस दौर में संक्षिप्त चीज़ों की जरूरत का नारा भी बन गया हो,उस दौर में हो सकता है ये सूक्तियां बहुत ही उपयोगी हों।
सूत्र काव्य के आगमन से हमें -आवाजें- नामक अनुवाद कविता संग्रह के संदर्भ याद आते हैं। स्पेनिश कवि अंतोनियो पोर्चिया का यह चयन शाया होते ही प्रसिद्ध नहीं हो सका था।उन्हें तो वर्षों बाद उसका अनुवाद आने पर प्रसिद्धि मिली।लेकिन आलोचकों और पाठकों ने पोर्चिया की सूक्तियों को कविताओं का ही दर्जा दिया।हिन्दी में भी उनकी ये सूक्तियां अनूदित रूप में आईं जिसे मोनिका कुमार सामने लाईं।उसी दर्जे की मौलिक कविताएं जब हिन्दी के ही समर्थ कवि नरेश अग्रवाल लेकर आए हैं तो उम्मीद की जाना चाहिए कि मुख्य धारा की आलोचना इस आगमन को साहित्यिक दृष्टि से संज्ञान में लेगी।उनकी ही एक सूक्ति “जिनकी उपस्थिति से समाज चमकता है वे ही समाज के रत्न हैं “के सहारे से यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि इस पुस्तक का लेखक भी हमारे साहित्यिक समाज का एक रत्न है।कविता में जीवन तलाशने वाले रसिकों को, इस संग्रह को अवश्य ही अपनी पुस्तकालय में रखने की चाह होगी,ऐसा मुझे भरोसा है।
पूस्तक:सूत्र काव्य
प्रकाशक-बोधि प्रकाशन2021.
कीमत – र 150/-
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समीक्षक:ब्रज श्रीवास्तव
L-40 गोदावरी ग्रींस
विदिशा-464001
मोबाइल-9425034312
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