देवउठान : ‘उठो नारायण, बैठो नारायण’
शरद ऋतु न जाने कितने की लोकपर्वों की खान है, पहले उत्सव का उल्लास बीतता नहीं कि दूसरा उत्सव अपने रंग में लोक को रंगने लगता है। दिवाली और छठ पूजा के उपरान्त, बीते चार महीनों से निद्रामग्न नारायण को जगाने /उठाने का उत्सव देवोत्थान या देव प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है (जो मेरे गाँव में देवउठान कहा जाता है)
हर लोकपर्व की भाँति देवउठान से भी मेरी बहुत सी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। हर लोकपर्व के अवसर पर दादी और माँ की उत्सवधर्मिता देखते ही बनती थी । घर झाड़ बुहार कर, सुबह – सवेरे ही स्नान कर दादी नवान्न धान ( चावल ) भिगो कर रख देती थीं , साँझ ढलने से पहले उन्हें सिलपर बारीक पिसकर एक पतला लेप तैयार करके, रसोई घर की दीवार पर, चावलों के इस लेप से दादी देवउठान का चित्र बनातीं थीं। दादी झाडू की पतली सींक पर नई कपास लपेटकर, पिसे चावलों के घोल में डुबो डुबोकर दैई देतो ( देवी-देवता) की आकृतियाँ उकेरती, मैं पास में बैठकर देखा करती थी। दादी और माँ को हर लोकपर्व से जुड़ी कथाएँ मौखिक याद थीं जिन्हें वे अक्सर सुनाया करतीं थीं।
उस समय आधुनिकीकरण और बाजारवाद से गाँव बहुत दूर था। तब हर तीज – त्योहार पर देवी-देवताओं के चित्र, गेरू, हल्दी और पिसे चावलों से दीवारों पर ही बनाये जाते थे। अब तो गाँव के घर- घर में कैलेन्डर और मूर्तियों का प्रवेश हो चुका है। आधुनिकता के चलते हम अपनी लोक-संस्कृति, लोकधर्मिता को भूलते जा रहे हैं जबकि लोकधर्मिता को खो देने का अर्थ स्वयं को खो देना है। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था, ‘सदियाँ आती-जाती रहेंगी। विकास के नए प्रतिमान गढ़े जाते रहेंगे, लेकिन प्रकृति के सहज प्रभाव और अपनी जड़ों से जुड़ाव महसूस न करने वाला मन सदा बीमार मन ही कहलाएगा। ”
रसोईघर की दीवार पर श्री, नारायण, कमल, कपास, धान, स्वास्तिक, सूरज, चाँद, सितारें, कलश, मोर आदि की आकृतियों को सुन्दर बेलबूटों की किनारी से सजाकर दादी बनातीं और एक सुन्दर सी टोकरी से ढक देती थीं। पास में ही ताजी नयी फसलों का अन्न, गुड़, गन्ना और कपास रखतीं थीं। मेरे पूछने पर बताया कि आज रात को पूजा करने के बाद,चार महीने से सोये हुए नारायण को जगाया /उठाया जाएगा।
नारायण को जगाने की प्रक्रिया में घर – मोहल्ले की सभी बड़ी – बूढ़ी स्त्रियाँ, दादी माँ चाची बच्चे सब हिस्सा लेते थे। नारायण के टोकरी से ढके हुए चित्र के पास दो दीपक जलाकर रखे जाते थे। दादी सहजता से टोकरी को गन्ने के टुकड़े से थप – थपाकर बजाती और गातीं… साथ में सब गाते
उठो नारायण, जागो नारायण
अंगुरियाँ चटकायो नारायण
उठो नारायण, जागो नारायण
हाथ – पैर फटकायो नारायण
उठो नारायण, जागो नारायण
गन्ने का भोग लगायो नारायण( फल, गुड़ धान के नाम )
उठो नारायण, जागो नारायण
सुख समरिदी बरसायो नारायण
उठो नारायण जागो नारायण
तत्पश्चात टोकरी हटाकर गातीं….
नई टोकरी नई कपास, नई कपास
नई टोकरी नई कपास, नई कपास
देव उठ गये कार्तिक मास, कार्तिक मास
घर घर सुख बरसानै
देव उठ गये कार्तिक मास, कार्तिक मास।
इसके बाद एक लोक गीत और गाती थीं, जिसमें घर के सभी सदस्यों का नाम आता था, वह मुझे याद नहीं आ रहा है इस बार जब गाँव जाऊँगी तो जरूर याद करके आऊँगी 😊
© पारुल तोमर
14 11 2021