बून्दों का समर्पण
सागर की बेचैनियां समझ
बारिश की बून्दें उसकी लहरों में
जब कर देती हैं अपना सब कुछ अर्पण
तरल मनोरम दृश्य भर नहीं रह जातीं
पानियों की सतह पर गिरती बून्दें
सागर की अंतरंग अदृश्य पीड़ाओं
सपनों आकांक्षाओं का
उत्सवी आख्यान रच देती हैं बून्दें
बून्दों के समर्पण का उल्लास जब
पहुंचता है अंतस्थल में पलते
जीवों वनस्पतियों की शिराओं में
खुश होता है आसमान और बून्दों में
समेट लेता है सागर अपनी लहरें
पुनर्नवा होने की
मृत आकांक्षाओं में तपते
मरुस्थल की रेत पर गिरती हैं
अनसुनी प्रार्थनाओं की तरह
ओस की पहली बून्दें
पहाड़ों पर लौट आती हैं
हवाओं पर सवार बिछुड़ गईं ऋतुएं
और उपत्यकाओं को चूमने
झुक जाते हैं पहाड़ों के शिखर
◆ योगेंद्र कृष्णा
1 नवंबर, 2021