सुप्रिया मिश्रा की कविताएं
बार बार
हर बार
तेरा महफिलों में एक अजीब सा औपचारिक अनुबंध बनाना,
मेरा मन की बिखरन समेटते हुए तुम्हें देख मुस्कुराना,
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञात वास में है,
बार बार
हर बार
तेरे अधरों पे चुप्पियों का पसर जाना
मेरा इन चुप्पियों को समेटते समेटते अखियँन में अश्रु अर्घ आना ,
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञातवास में है,
बार बार
हर बार
तेरा काली पट्टे वाली वो घड़ी लगाना
मेरा नारंगी चुनर ओढ व्यथित हो जाना
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञातवास में है
बार बार
हर बार
तेरा चाय में क्रीम बिस्किट डुबो के खाना
मेरा सब्जियों में नमक ऊपर से मिलाना
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञातवास में है
बार बार
हर बार
तेरा महफिलों में चोर चितवन से मुझे देखे जाना
मेरे अनुरागी मन का सारे संकोचों की इति कर चुपचाप तुमसे नजरें मिलाना
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञातवास में है
बार बार
हर बार
तुम्हारा यूँ क्षणिक उपस्थिति मेरे जीवन में बनाना
मेरा इन क्षणिक उपस्थितयों की वीथिका में ताउम्र भटकते रह जाना
ये पूरित करता है
हमारा प्रेम नियति की लकीर में अज्ञात वास में है
अधिवक्ता सुप्रिया मिश्रा
(2)
जो भी मन में उमड़ता
तुमसे कह नहीं पाती
जब भी तुम मेरे गाँव आते द्वार पे लगे
आम के पेड़ को दिखाती कहती ” देखो न अब इत्ते से इतना बड़ा हो गया , तुम भी चौक के कहते
हाँ हाँ जरूर
याद है जब मैं पिछली बार आया था, तो ये केवल दो बीते का था,
फिर मैं क्यारियो में लगे पिद्दी पिद्दी छुई मुई को सहलाती हुई, कभी मालिन, कभी पड़ोसन की अन्तहीन कहानी तुमको सुनाती,
तुम अपनी दृग पुतलियाँ मुझपे टिकाए बगल में
लगे अड़हुल की पत्तियाँ तोड़ते मीजते हुए
शायद मेरे चेहरे का सम्मोहन सिमट जाता तुम्हारे
अंतस में और तुम बस हाँ में हाँ मिलाते, मेरी सारी
बक बक सुनने का अभिनय किये जाते,
फिर मैं अचानक चौक कर “अरे तुम कब से खड़े हो
चलो बैठो मैं तुम्हारे लिए शरबत लाती हूँ
मैं मुग्ध हो सिहरी श्रद्धा के साथ झट शरबत लाती,
तुम शरबत की घूँट घूँट लेते कभी मुझे, तो कभी दीवार पे टँगी घड़ी को देखते, कभी मोबाइल पे उँगलियाँ
थिराते और तभी छा जाता हमारे बीच एक समाधिस्थ सन्नाटा, फिर तुम हौले से खाली हो चुके शरबत के ग्लास को स्टूल पे रखते
बड़ी स्फूर्ति के साथ मेरी ओर देखते अच्छा ये लो अच्छा ये लो “स्वामी नाथ चाचा के पोते के मुंडन की निमन्त्रण पत्रिका
मैं फीकी मुस्कुराहट संग हाथ आगे बढाती
और तुम अच्छा चलता हूँ कह दो पग आगे बढ थम जाते
फिर पीछे मुड़कर अच्छा चलता हूँ
शायद तुम सोचते काश!!! तुम्हारे अंतस तक मेरा स्वर पहुँच पाता
और मैं हाथ में निमन्त्रण पत्र लिए खुद में ही रीतती
काश!!! मेरी बक बक के पीछे छिपे स्नेह को तुम समझ पाते
इसी सकुचाहट के रास्ते पर लाज के अवगुंठन पे खड़ा प्रेम ऊबता हुआ
असामायिक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है
और उसकी भटकती आत्मा फिर से आ जाती है
किसी नव प्रेमी युगल में,
सुप्रिया मिश्रा
शिक्षा, हिंदी समाजशास्त्र में परास्नातक
विधि स्नातक
अवध विश्वविद्यालय से सम्बन्धित महाविद्यालय
अयोध्या ,
मेरी कविताएं लेख बराबर पत्र पत्रिकाओं
ई पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं
स्याही की आवाज़, अरूणोदय, साहित्य नामा
जैसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं