राजीव कुमार तिवारी की कविताएं
[खेल ]
किसी भी खेल में
कम से कम
दो लोग होते हैं
एक जीतने वाला
एक हारने वाला
बिना हार जीत तय हुए
कोई खेल पूरा नहीं होता
होने को कभी कभी
एक खिलाड़ी से भी
खेल हो जाता है
जब आदमी
खुद के साथ खेलता है
प्रेम के सिवा
दुनियां में सबकुछ खेल है
हार जीत से गुजरकर सिद्ध होता है
खेल पहले इंसान के
व्यहवार में उतरता है
फिर धीरे धीरे
प्रवृत्ति में
और एक समय
ऐसा आ जाता है
जब जीवन भी
एक खेल हो जाता है ।
(२)
[ माँ के न रहने पर ]
1*
मृत्यु !
उस पल समझ पाया मैं
इस शब्द का ठीक ठीक अर्थ
जिस पल इसने
तुम्हें अपना ग्रास बनाया ।
2*
राह की मुश्किलों से टकराकर
गिरता हूँ अब भी कभी कभी
चोट अब भी लगती है
तन पर मन में
पर कोई तुम्हारी तरह से
उस चोट पर
प्रेम और करुणा की
पट्टी नहीं बांधता अब ।
3*
कितनी तो बातें हैं
अच्छी बुरी
अपनों परायों की
तुमसे कहने को
पर जनता हूँ
तुम अब न आओगी कभी
मेरी कथा व्यथा सुनने को
मैं भी कहाँ अब किसी से
मन की बातें कहूँगा उस तरह
सचमुच बहुत अकेला हो गया हूँ ।
(३)
[ दुःख पीठ पर ही सवार होता है ]
दुःख तो
पीठ पर ही हमारे
सवार होता है
जैसे
बड़ी सरल और त्वरित होती है
उसकी पहुंच जीवन तक
दुःख वह घास है
जो लग जाता है
जीवन के आंगन में
तो पाट के रख देता है
पूरी ज़मीन को
झरते हैं जैसे
पारिजात के फूल
हवा के द्वारा
बहुत हल्के हाथों
हिलाए जाने से भी
उसी तरह दुःख भी
झरता है बहुत बार
मन के विस्तार में
पहाड़ से लुढ़कते आते
किसी पत्थर की तरह
हहरा कर बहती नदी की तरह
दुःख को जब आना होता है
वह रोकने से नहीं रुकता
प्रायः हमारे सजग होने से
पहले पहले ही चला आता है
सुख तक पहुंचने के लिए
अनवरत चलना होता है
बेहद कोशिश करनी होती है
उसे लक्ष्य बनाकर
बहुत बार मगर
हमारे पहुंचते पहुंचते
सुख
दुःख में बदल चुका होता है
दुःख की अपनी कोई
उपस्तिथि नहीं होती
वह सुख का न होना भर ही है
या होकर पूरा न होना
अंधेरा जैसे
प्रकाश का न रहना
या जरूरत से कम रहना है ।
(४)
[ तीर्थ पुरोहित ]
मंदिर ही खेत होते हैं
तीर्थ पुरोहितों के
जीविका उपजाने के
किसी और साधन को
प्रायः नहीं ही अपनाते हैं
राजी खुशी वे
यजमान के दर्शन मात्र से
तीर्थ पुरोहितों की
आंखें चमक उठती हैं
किसी अपनत्व से
जुट जाने का भाव
चेहरे पर लिखा जाता है
अर्थ भी एक कारण होता है
बचपन से
अगाध श्रद्धापूर्वक
ईश्वर के पूजा अर्चन में
लगे रहने के कारण
एक समय के बाद
ईश्वर
निकटस्थ आत्मीय
लगने लगता है
तीर्थ पुरोहितों को
फिर
वे अधिकार पूर्वक
ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में
यजमानों को
आशीर्वाद बांटने लगते हैं
धिक्कार आलोचना
यहां तक कि
अपशब्द भी
सहना सुनना पड़ता है
तीर्थ पुरोहितों को
अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति
दोनों को लेकर
बहुत बार मुंह के आगे
बहुत बार पीठ पीछे
तिक्त नहीं करते पर वे
अपने मन को
हंसकर टाल जाते हैं
जो सच होता है
उसे झूठलाते नहीं
झूठ के पीछे की भावना
को समझ कर
उससे उलझते नहीं
बड़े व्यवहार निपुण होते हैं
तीर्थ पुरोहित
धार्मिक अनुष्ठानों
और संस्कारों के
बहुत से लोकाचार
और परंपरा के
पीढ़ी दर पीढ़ी
वाहक होते हैं
ये तीर्थ पुरोहित ।
राजीव कुमार तिवारी
(रेलकर्मी, जसीडीह स्टेशन, आसनसोल मंडल, पूर्व रेलवे )
प्रोफ़ेसर कॉलोनी
Bilasi Town
देवघर झारखंड
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