कैसी होती हैं आदिवासी नारियां?
आदिवासी स्त्रियों में अनेकों विशेषताएं और गुण पाए जाते हैं। वे वीर, साहसी संघर्षशील, कठिन परिश्रमी, जुझारू, दयालु, ममता व प्रेम से भरी होती हैं। जीवन के हर मोर्चे पर वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। अपने जीवन में साधारण रहने वाली आदिवासी औरतें समस्त मानव से निश्छल प्रेम करती हैं, परंतु सभ्य समाज उसे केवल भोग की वस्तु ही समझता है। इस पीड़ा को हर आदिवासी कवयित्री अपनी कविताओं में अभिव्यक्त करती हुई दिखाई देती है। आदिवासी कवयित्री सरिता बडाइक अपनी कविता ‘घासवाली’ में कहती हैं, “मैं घास बेचती हूं बाबू देह नहीं।”आदिवासी स्त्री की पीड़ा सरिता की कविताओं में केंद्रीय विषय वस्तु के रूप में बार-बार दस्तक देती है। आदिवासी कवि आदिवासी जीवन के नैसर्गिक जीवन मूल्यों व संस्कृति के विलुप्त होने से दुखी हैं। वे आदिवासी समाज की परंपराओं व हर वस्तु को बचाना चाहते हैं, जिससे मिलकर आदिवासी दर्शन का निर्माण होता है। वर्तमान में यदि सृष्टि को बचाना है तो हमें आदिवासी दर्शन को बचाना होगा। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी जीवन के विविध पहलुओं को अपनी कविताओं में विषय बनाया है। विकास के नाम पर आदिवासियों के साथ किए जा रहे छल को वे अब समझ गए हैं। असल में उनका उद्देश्य आदिवासियों के संसाधनों को हड़पना होता है। अब आदिवासी जागरूक होकर अपने खिलाफ होने वाले हर कार्य का विरोध लेखनी के माध्यम से कर रहे हैं।
आदिवासी संस्कृति पूरे संसार के लिए एक मार्गदर्शक का काम करती है। चाहे वो पर्यावरण से संबंधित हो या उनके जीवन मूल्य, हमें उनसे कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। परंतु वही आदिवासी समाज अपने आप को असुरक्षित महसूस कर रहा है। आदिवासी कई तरह की विडंबनाओं से जूझ रहे हैं, जैसे-विस्थापन, पलायन, शोषण, बेरोजगारी, भुखमरी, अशिक्षा तथा इनकी अस्मिता व अस्तित्व भी खतरे में हैं। अतः जरूरत है आदिवासी विमर्श के द्वारा इनकी समस्याओं का निराकरण करना। हमें आदिवासियों के साथ संवाद स्थापित कर उनकी समस्याओं से सरकार को अवगत कराना होगा। समय रहते इनकी संस्कृति व जीवन दर्शन को नहीं बचाया गया तो एक दिन इनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जो आदिम कौन दुनिया की मार्गदर्शक हुआ करती थी, वह आज अपनी पहचान व स्थिति के लिए संघर्षरत है।
तथाकथित मुख्यधारा के सभ्य लोग एक तरफ तो आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ कर उनके संसाधनों को हड़पते हैं और उसके साथ-साथ उनकी संस्कृति पर भी धावा बोलकर उसे नष्ट कर रहे हैं। वो उनकी औरतों की नग्न फोटो खींचकर उनकी सुंदरता व नृत्य की झूठी प्रशंसा कर उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। अंग्रेजों के शासन काल के बाद भी आदिवासी समाज स्वतंत्र भारत में पूंजीपतियों, साहूकारों, सामंतों द्वारा लगातार शोषित हो रहा है, यह हमारी व्यवस्था की बहुत बड़ी विडंबना है। मुख्यधारा का समाज आदिवासी स्त्रियों के प्रति नकारात्मक धारणा रखता है। आदिवासी स्त्रियां बहुत ही कठिन परिश्रम करती हैं। परिवार का पालन-पोषण करने के लिए वे दिनभर जंगलों में सूखी लकड़ियां बिन कर बाजार में बेचती हैं, जिससे उनके परिवार का पेट भरता है।
पहाड़ी क्षेत्रों में रहने के कारण आदिवासियों का जीवन बहुत ही कठिन व संघर्षों से भरा होता है। फिर भी उनमें जीने की जिजीविषा भरपूर होती है। आदिवासियों का रंग-रूप दूसरे समाज से भिन्न होता है तथा एक विचित्र प्रकार की संस्कृति में ये जीते हैं। आदिवासियों के रीति-रिवाज व वेशभूषा को लेकर मुख्यधारा का सभ्य समाज उनका मजाक उड़ाता है। आदिवासियों का उन्हें कुछ भी पसंद नहीं होता, लेकिन उनके परिश्रम से पैदा किए धान, फल, सब्जियां आदि उन्हें सब पसंद होते हैं। वैसे तो आदिवासियों की छाया तक वो अपने ऊपर पड़ने देना नहीं चाहते, उनसे घृणा करते हैं, लेकिन उनकी औरतों की देह पर उनकी नजर गिद्ध की तरह लगी रहती है और मौका मिलते ही उसे नोच लेना चाहते हैं। कई सदियों से आदिवासी समाज मुख्यधारा के समाज द्वारा शोषित व प्रताड़ित किया जा रहा है। जो समाज कभी इस धरती का मालिक हुआ करता था वही आज बेघर है। औद्योगिकरण के कारण उनके जल, जंगल व जमीन छीन लिए गए हैं। विकास के नाम पर इनके साथ छल किया गया है। उनकी आवाज को सुनने वाला कोई नहीं है। आदिवासी समाज में जब भी कोई क्रांति की शुरुआत की जाती है तो नगाड़ा बजाया जाता है, नगाड़ा क्रांति का प्रतीक है।
आदिवासी समाज में आदिवासी स्त्रियां अपने कई अधिकार रखती हैं। लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में आज स्त्री केवल भोग करने की वस्तु मात्र समझी जाती है। वह अपने परिवार व समाज के प्रति हमेशा समर्पित भाव रखती है। वह अपना पूरा जीवन निछावर कर देती है, परिवार को संवारने में, लेकिन आज वह अपने ही समाज में प्रताड़ित की जा रही है। आदिवासी स्त्रियां अपनी अस्मिता व अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। डॉ. रमया बलान के अपने आलेख-‘निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्री’ में वह कहती हैं, “आदिवासी समाज में स्त्रियों की स्थिति मुख्यधारा के समाज से कई मायनों में भिन्न है और स्त्रीत्व के नाते उनमें कुछ समानताएं भी देखी जा सकती हैं।” मुख्यधारा की तुलना में आदिवासी समाज की स्त्रियां स्वतंत्र होती हैं, लेकिन परिवार में वो पितृसत्ता की शिकार होती हैं। स्त्री किसी भी समाज में हो, उसे दूसरे दर्जे की मान्यता ही मिलती है। आदिवासी स्त्री ज्यादातर बाहरी समाज के द्वारा शारीरिक और मानसिक रूप से पीड़ित होती है। कई बार नौकरी का वादा देकर दलाल इन्हें वेश्याओं की गलियों में छोड़ देते हैं। निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी स्त्रियों का संघर्ष और उनकी दुनिया साफ दिखाई देती है। आज पुरुषवादी सत्ता ने नारी को अपनी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ कर रख दिया है। उसका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पुरुष की हर इच्छा पूरी करने के लिए वह तत्पर रहती है, परंतु पुरुष उसके लिए कुछ नहीं करता। स्त्री अपने परिवार के लिए अपनी इच्छाओं का दमन कर देती है। वह चाहे कितनी भी थक जाए, लेकिन थकने का नाम नहीं लेती है। इसलिए आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल ने अपनी कविताओं में स्त्री के स्वर को बुलंद किया है। स्त्री का अपना कोई घर नहीं होता। पीहर में मां-बाप या भाई का घर और ससुराल जाने पर पति का घर, उसका स्वयं का कोई वजूद नहीं है। वह हमेशा अपनी जमीन व अपने घर की तलाश में रहती है। यह हमारे समाज में एक बहुत बड़ी विडंबना है कि स्त्री का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसलिए स्त्री कि इस पीड़ा को कवयित्री निर्मला पुतुल अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं-
” धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिए मैं
दोड़ती-हांफती-भागती
तलाश रही हूं सदियों से निरन्तर
अपनी जमीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ।”
रंजना मिश्रा ©️®️
कानपुर, उत्तर प्रदेश
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