“सिग्मा ऑफ लव”

आरती शर्मा द्वारा रचित कविता संग्रह की समीक्षा
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समीक्षक : डॉ किशोर अग्रवाल
रीमा दीवान चड्ढा ने बहुत ही कोमल प्रकाशकीय अभिव्यक्ति लिखी है सृजन बिम्ब से ही लगता है कि यह किताब पढ़ने लायक है। प्रेम को ढूंढती, उसे अन्वेषित करती आरती की कविताएं पठनीय हैं। वह युवा है ,आधुनिक है ,आज के परिवेश में यदि नारीमन को महसूस करना हो तो इस संग्रह की कविताएं मूल्यवान हैं । प्रेमी को प्रेयसी जब कहती है कि “क्या इन हवाओं को रोक दूं जो तुमसे होकर मुझे छूती हैं या कि इन सांसों को रोक दूं जो तुमसे महकती हैं।” तो यह अपनी बिल्कुल निजी अनुभूति हम तक पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। रणविजय राव ने भी किताब की एक मूल्यवान भूमिका लिखकर किताब के प्रति उत्सुकता जगा दी है। आरती शर्मा को व्यंग्य कार्यक्रमों की प्रस्तुति की काव्यात्मक भूमिका बांधते कई बार सुना था पर वह भीतर भी उतनी ही कोमल संभावनाओं की कवियित्री है यह सिग्मा ऑफ लव ने बताया।
आरती का मन बारिश की उन बूंदों सा है बेबाक शोख और चांद की चपलता लिए । प्रेमी के मन को भरमाती ये बूंदें गिरती तो हैं पर नीचे भी ठिकाना नहीं है उनका, बह जाती हैं। वैसे ही जैसे प्रेमी भी कभी बह जाता है अपने मन के भावों में आड़ी टेढ़ी लकीरों पर अपने निशान छोड़ते हुए । भीतर के उलझे भावों को यूं लड़ी में पिरो लेना एक परिपक्व मस्तिष्क ही कर सकता इस नाते यह कविता आरती के भीतर को स्पष्ट कर देती है । आरती प्रेमियों के मिलन के बंधन को इतना अटूट कहती है जिसमें बिखरने की कोई गुंजाइश न हो। इस बंधन को वह ऐसा बताती है जिससे अपने होने के मायने समझ में आने लगते हैं । सच में ऐसा है भी । बिना सच्चे प्रेम के जीवन व स्वयं की सार्थकता का बोध ही कहां होता है । कम उम्र में ही उन्हें आध्यात्मिक दृष्टि का भी साक्षात्कार है , वह कहती है “लगा कि सब पा लिया मैंने। पर छूटा जब सोचा तो जाना अस्तित्व पा लिया, पर अपने आप को खो दिया मैंने ।” वह खुद की शोखी , बेबाकी , चपलता खोकर खुद को बचा भी लेती है ।
“हे प्रिय तुम हद से अधिक अप्रिय लगने लगे हो” मन टूटने और ब्रेकअप से उपजी पंक्तियां हैं । तथागत के प्रति आरती के प्रश्न उनके गहन चिंतन के प्रतीक हैं और उनकी जिज्ञासा को प्रतिबिंबित करते हैं।
आरती के भीतर का वेग और उनका सुप्त ज्वालामुखी पाषाणों का शहर कविता में खूब उजागर हुआ है। उसके भीतर की आसक्ति “मेैं अर्जुन नहीं हो सकती तुम मुझे तुम्हारे अधरों की सरगम बनना है।” पंक्तियों में सहजता से व्यक्त हो जाती है और कनु से आत्मीयता देखें कि वह कहती है “मैं विनय नहीं हठ करूंगी।” एक दार्शनिक कविता में आरती कहती है “पर भूख अमर है वह निवालों में फर्क नहीं करती और अगर करने लगी तो भूख भी शायद मर जाएगी ।” वाह !
“ तुम शोर में भी तन्हा हो मेरी तनहाइयां भी शोर करती हैं” कागज शीर्षक की यह कविता संग्रह की कीमती कविता है । नजरों में सब है ,मेरी नजरों में बस तुम । “अब कोई और मुझ में रहता है जो तुमसा है।”
“ किस तरह मिटाओगे निशां मेरे ,बड़ी खामोशी से तुम्हारे दिल में उतरे हैं । तुमसे ज्यादा तुमको जाने हैं।” और दरियादिली भी देखें जनाब “तुम मेरे हो एक यही सच है, तुम किसके हो हमें इससे क्या।” ऐसे खुले मन की सोच बिरली ही मिलती है । सारे मुसीबत ही पजेसिव होने के कारण होती है । ऐसी बेबाक सोच प्रेरणादाई है।
सूरज की आंच से रोटी सेक लेना और चांद को छत पर लटका कर रोशनी कर लेने की कल्पनाशीलता कवियित्री की रचना के आकाश को पंख लगा देती है । रूठे प्रेमी की मनुहार में कहा है कि “हां पर तुम शाम ढलने से पहले, रात होने से पहले, एक बार पलटना, अंधेरा गहराने से पहले ।”
आरती प्रेममयी है, मोदमयी है, आसक्त भी और योगिनी भी। उसमें सांसारिक अभिव्यक्तियों के साथ आध्यात्मिक चेतना भी गजब की है। उसका दांपत्य प्रेम की नींव पर बना है अतः उसकी कविताओं में प्रेम का गहरा स्पंदन है और कहीं-कहीं प्रतिकार भी झलकता है । उर्दू के प्रयोग पर कुछ कहने का मैं अधिकारी नहीं हूं। समीक्षक अपनी भाषा के जादू में कवियित्री के मूल स्वरों को बौना कर दे यह कदापि उचित नहीं । अत: सीधा सीधा सरल सा लिखा है मैने। आरती छोटी है अपने लिए एक वचन में लिखे संबोधन का बुरा ना मानेगी ,पर इसी तरह आत्मीय होना सहज लगा मुझे । उसका लिखा सहज है ,सुबोध है ,मनोहर है ,रुचता है । पढ़ने की उत्सुकता जगाता है और कुछ ठीक सा साहित्य पढ़ने की अनुभूति कराता है । मुझे यह संग्रह पसंद आया । आप भी पढ़ें आपको भी जरूर अच्छा लगेगा।
डॉ किशोर अग्रवाल