April 19, 2025

ग़ज़ल की चौखट पर एक नयी दस्तक

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यह दस्तक दी है कवि/शायर अशोक कुमार ‘नीरद’ के हाल ही में प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह “अंकुर बोलते हैं” ने। यह संग्रह में तपती धूप की गर्मी में ताज़ा हवा के झोंके की तरह है, जो हिन्दी ग़ज़ल के माथे पर थकावट के आए पसीने को पोंछ/सुखाकर ताज़गी का एहसास कराती है। विभिन्न विषयों पर कहे गये अश्आर इस संग्रह की ग़ज़लों को एक विशेष स्थान दिलाने में सफल रहते हैं। इस संग्रह की ग़ज़लों के अनेक रंग और शेड्स हैं, जो पाठकों के दिलो-दिमाग़ पर सीधा असर डालने में सफल रहते हैं और उन्हें अपना मुरीद बना लेते हैं।
आज की राजनीति या कहें दुनिया कहती कुछ है और करती कुछ दिखाई देती है, इसी पर कटाक्ष करते हुए संग्रह का कवि/शायर कहता है–

कितने हितकारी हैं जनवादी मंसूबे
बाज़ों को सौंपी चिड़ियों की रखवाली है

इसी ग़ज़ल का एक शे’र और देखिए–

सींच रहा मट्ठे – से बिरवों-बेलों को
ख़ूब मिला अपनी बगिया को भी माली है

संग्रह के ग़ज़लकार का मानना है कि आज सिर्फ़ नारेबाज़ी हो रही है, ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही है। कोई समस्याओं के समाधान के लिए उससे जूझना नहीं चाहता या यूँ कहें कि किसी में इतना साहस नहीं है कि कोई कठोर क़दम उठाकर समस्याओं का समाधान कर सके। कवि आज के कर्णधारों को ऐसा अनाड़ी तथा अज्ञानी भी मानता है जो चिड़ियों की देखभाल के लिए अज्ञानतावश बाज़ों को तैनात कर देते हैं। अपनी इसी पीड़ा और निराशा को यह कवि कुछ यूँ व्यक्त करता है–

जो बहती धार के विपरीत तैरे
कोई तैराक अब ऐसा नहीं है

यानी सब अपने स्वार्थों की पूर्ति में व्यस्त हैं। स्वार्थों को त्यागकर जनकल्याण का काम आज कोई करता नज़र नहीं आ रहा है। सिर्फ़ झूठा और खोखला दिखावा रह गया है।
आज दिखावे की दुनिया रह गयी है। इन्सान होता कुछ है, दिखाई कुछ देता है। इसी बात को कवि अपने शब्दों में यूँ कहता है–

सजीले दिख रहे इन्सान का यह सत्य है “नीरद”
भरा बाहर से दिखता है मगर भीतर से खाली है

इसी दोहरेपन और दिखावटीपन पर कवि अपनी क़लम कुछ यूँ भी चलाता है–

आन-बान-शान के ढकोसलों के फेर में
ज़िन्दगी उधार में शुमार हो के रह गयी

यानी झूठी शान की ख़ातिर आज इन्सान क़र्ज़ पर क़र्ज़ लेकर अपनी ज़िन्दगी को क़र्ज़दार बनाता जा रहा है।

समाज में व्याप्त ग़रीबी, बेरोजगारी और भुखमरी की त्रासदी से भी यह कवि अनजान नहीं है। कवि कहता है–

बुझे तो बुझे पेट की आग कैसे
यही एक मुद्दा परम हो गया है

इसी ग़ज़ल का एक ख़ूबसूरत शे’र यह भी देख लें जो थोड़े शब्दों में बहुत-कुछ कह रहा है–

तबाही के आने का इतना है कारण
मुहब्बत में विश्वास कम हो गया है

कवि प्रेम की निश्छलता में विश्वास रखता हुआ कहता है–

बावरे शक की तुला पर आस्था को तोल मत
खोज ले शबरी के झूठे बेर में है ज़िन्दगी

इस प्रकार के अनेक अश्आर (शे’र) इस संग्रह में हैं, जिनका यहाँ ज़िक्र किया जा सकता है। जीवन के लगभग सभी पहलुओं पर इस संग्रह के कवि की पैनी नज़र है और अनेक पहलुओं को अपनी क़लम से बाँधने का प्रयास सफल प्रयास भी किया है। इसके लिए यह कवि/शायर साधुवाद का पात्र है। मुझे उम्मीद है कि यह संग्रह अपने पाठकों में विशेष चर्चा का विषय बनेगा।
और अन्त में मैं कवि का यह शे’र प्रस्तुत करने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह शे’र इशारों में ही सही मगर बहुत-कुछ कह रहा है। यह अपने अन्तस में एक दर्शन समेटे हुए हैं। आप भी इसका आनंद लीजिये–
छाँव कहते हैं जिसे वह धूप की है सर्जना
हो नहीं सकता बड़ा उपमेय से उपमान है

–देवेन्द्र माँझी, नयी दिल्ली
9810793186

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