राजाबेंदा का पुरातत्व
भोरमदेव क्षेत्र में फणिनागवंशी कालीन अवशेष बिखरे पड़े हैं। ये अवशेष मुख्यतः मैकल पर्वत श्रेणी के समानांतर दक्षिण में सहसपुर, घटियारी से खैरागढ़ क्षेत्र तक तो उत्तर में पचराही-बकेला तक फैले हुए हैं। राजाबेंदा ऐसा ही पुरातत्विक स्थल है जहां लगभग तेरहवी-चौदहवी शताब्दी(शिल्प खण्डों की कला दृष्टि के अनुमान से)के शिवमंदिर(जलहरी प्राप्ति के आधार पर अनुमानतः) के अवशेष बिखरे हैं।अवशेष इतने अधिक मात्रा में हैं कि इससे स्पष्ट पता चलता है कि यहां के बड़ा मन्दिर रहा होगा। मुख्य मन्दिर के उत्तर में लगभग पचास फीट आगे किसी छोटे मंदिर के अवशेष भी हैं। इसी प्रकार उत्तर में लगभग आधा किलोमीटर में तालाब के उत्तर में भी प्रस्तर खंड बिखरे हैं। सम्भवतः तालाब के पास भी मन्दिर रहा होगा।अवशेष में कलात्मक मूर्तियां, द्वार चौखट दिखाई नहीं दे रहे हैं। यदि ये अन्यत्र स्थानांतरित नही हुए होंगे तो मलबे में दबे होने चाहिए। यदि मलबे को हटाकर स्थल का उत्खनन किया जाय तो पर्याप्त पुरातत्विक अवशेष मिलने की संभावना है। मुख्य मन्दिर के दक्षिण में कुछ दूर पर ही वृक्ष के नीचे एक गणेश की प्रतिमा है जिस पर ग्राम वासियों द्वारा छोटा मन्दिर बना दिया गया है।
‘राजाबेंदा’ नाम में ही राजा के साक्ष्य हैं। इसी प्रकार पास ही ‘राजाढार’ ग्राम में भी राजा है। कुल मिलाकर इस क्षेत्र में दसवीं से पंद्रहवी शताब्दी के मध्य राजशाही होना प्रतीत होता है।निश्चय ही यह भोरमदेव के फणिनागवंश से संबंधित रहा होगा। मन्दिर का निर्माता फणि वंश का कोई शासक अथवा कोई स्थानीय सामन्त हो सकता है।राजाबेंदा के प्राप्त अवशेष में कला का ह्रास प्रतीत होता है जिससे यह ,’मड़वा महल’, ‘छेरकी महल’ के समकालीन प्रतीत होता है। फणिवंश के पतन के बाद सम्भवतः यह क्षेत्र गढ़ामण्डला के प्रभाव में आया होगा। बहरहाल उत्खनन से ही नयी जानकारी उभर कर आ सकती है।
‘राजाबेंदा’ कवर्धा से 45 कि.मी . चिल्फी से 5 कि.मी. पश्चिम में ‘,सुपखार’ मार्ग पर दाहिनी दिशा में स्थित है। गांव में मुख्यतः बैगा और गोंड़ जनजाति निवासरत हैं तथा परिवेश में साल वनों की बहुलता है।
#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
मो.9893728320