बिलहरी-बिरसा(बिरखा) का पुरातत्व
फणिनागवंशियो के पुरातात्विक अवशेष मुख्यतः मैकल पर्वत श्रेणी के समानांतर मिलते हैं। यदि भोरमदेव को केंद्र माना जाए तो उत्तर में राजाबेन्दा, कामठी, पचराही में पुरावशेष मिलते हैं। उसी तरह दक्षिण में सहसपुर, बिलहरी-बिरसा, घटियारी,खैरागढ़ क्षेत्र तक पुरातत्विक साक्ष्य मिलते हैं। भग्नावशेषों में मुख्यतः मंदिर तथा मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं। ज़ाहिर है जहां देवस्थल हो वहां आस-पास लोगों का रहवास भी रहता है।
बिलहरी-बिरसा(बिरखा) दो संलग्न पर्वतीय गांव हैं जो लोहारा से पश्चिम दिशा में पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। सहसपुर से भी इसकी दूरी लगभग इतनी ही होगी। यहां पर बिरखा में पहाड़ी के तलहटी पर मंदिरों और मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।यहां से मुख्यतः खंडित चतुर्भुजी स्थानक विष्णु, उमा महेश्वर, उपासक राजा रानी की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिसे पूर्व में खैरागढ़ के पुरातात्विक संग्रहालय में स्थानांतरित कर दिया गया है।वर्तमान में वहां कुछ जलहरी, प्रस्तर खंड, सती स्तम्भ दिखाई देते हैं। पास ही पहाड़ी के तलछटी में ईंटो के साक्ष्य तथा टीले दृष्टिगोचर होते हैं, जिसके नीचे पुरावशेष दबे होने की संभावना है। यहां प्राकृतिक जलस्रोत है, जिसमे एक प्राचीन कुंड है जिसका जीर्णोद्धार कर नया स्वरूप दिया गया है। एक अन्य जलस्रोत को गोमुख का आकार दिया गया है जिससे हरदम पानी निकलते रहता है।सर्वविदित है कि जहां जल के प्राकृतिक स्रोत होते हैं वे क्षेत्र धार्मिक आस्था के केंद्र के रूप में विकसित हो जाया करते हैं।यहां भी मंदिरों का निर्माण इसी कारण हुआ होगा, ऐसा प्रतीत होता है। यहां के साक्ष्य को मुख्यतःबारहवीं-तेरहवीं शताब्दी का माना गया है।
श्री सीताराम शर्मा के अनुसार बिलहरी से कलचुरी नरेश(रतनपुर) जाजल्लदेव अंकित सवर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई हैं, इसलिए यह क्षेत्र उनके अनुसार उनके प्रभावक्षेत्र(या मांडलिक राजा के अधीन) रहा होगा। हमारी समझ मे यहां के स्थापत्य फणिनागवंशियो के तात्कालिक शासक अथवा उसके किसी सामन्त/अधिकारी द्वारा निर्मित होना चाहिए।पास ही सहसपुर में फणिनागवंशी शासक यशोराज की मूर्ति प्राप्त हुई है इससे इस बात को और बल मिलता है। चूंकि फणिनागवंशी रतनपुर के कलचुरियों के अधीन थे इसलिए जाजल्यदेव की मुद्राएं प्राप्त होना स्वाभाविक प्रतीत होता है। कला की दृष्टि से भी भोरमदेव क्षेत्र की मूर्तियों से यहां की मूर्तियों में समानता स्पष्ट है। इसलिए सीताराम जी भी इन्हें भोरमदेव क्षेत्र की कला में शामिल करते हैं। पास ही एक लघु आकर का बांध निर्मित है जिसे बिलहरी बांध कहा जाता है।
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• सीताराम शर्मा – भोरमदेव क्षेत्र : पश्चिम दक्षिण कोसल की कला
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# अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छत्तीसगढ़)
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