December 3, 2024

कनक तिवारी को सुनते हुए

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कई बार किसी व्यक्तित्व के साथ कोई शब्द चस्पा हो जाता है. उस एक शब्द में पूरा व्यक्तित्व समाहित हो जाता है या जब वह शब्द हमारे आसपास कहीं गूंजता है तो वह केवल शब्द-ध्वनि नहीं होती बल्कि किसी व्यक्तित्व की गूंज होती है और वह समूचा व्यक्तित्व हमारे सामने आ खड़ा होता. जैसे नेहरू ‘विजन’ (भविष्यदर्शी) के पर्याय हो गए थे. वे सर्व-सम्मत एक दृष्टि-संपन्न राजनेता (विजनरी लीडर) माने जाते थे. साहित्य में परसाई इतने प्रतिबद्ध लेखक हो गए थे कि उनके आज में उनके कल का खंडन खोजना मुश्किल होता है. इसलिए परसाई प्रतिबद्धता के पर्याय हो गए थे. फिल्मों में तो यह पर्यायवाची ‘छवि’ बहुतों अभिनेताओं की आजीविका का सहारा रही. यह छवि नायकों के साथ ऐसी जुड़ी रही कि वे ट्रेजिडी किंग, ही-मैन या सुपरस्टार जैसे अलग अलग संज्ञाओं से पुकारे जाते रहे हैं.

हमारे आसपास इस क्षमता के साथ कोई व्यक्तित्व जमकर मुखरित हो रहे हैं तो वे चिन्तक, विचारक, लेखक, राजनीतिक प्रवक्ता व पूर्व महाधिवक्ता कनक तिवारी हैं. वे एक कुशल उद्भट वक्ता के रूप में जाने पहचाने जाते हैं- बड़े अच्छे ओरेटर हैं, डेबेटर हैं ऐसा उनके बारे में कहीं भी सुना जा सकता है. वे वाककौशल के पर्याय हैं. जैसे ही कनक तिवारी का नाम आता है सामने वाला बोल पड़ता है “नो डाउट .. वे बोलते अच्छा हैं. बोलना, वक्तव्य देना, विषयगत तैयारी के साथ गंभीरता से अपने व्याख्यान को प्रस्तुत करना कोई उनसे सीखे.” ये नसीहत भी लोग देने से नहीं चूकते. कुछ विवाद भले हों पर निर्विवाद रूप से मान्य वे एक श्रेष्ठ वक्ता है.”

विचार और साहित्य की दुनियां में वे वादी और प्रतिवादी दोनों हैं. संभवतः उनके इसी वाककौशल ने उन्हें बेहद सफल वकील भी बनाया होगा और जिस तरह अपने विद्यार्थी जीवन में वाद-विवाद प्रतियोगिता के पक्ष और विपक्ष दोनों में अपने दमदार तर्कों से जीत हासिल कर लेते थे. वैसे ही वकालत की दुनियां में किसी वादी या प्रतिवादी के साथ वे पूरे परिश्रम और मंनोयोग के साथ खड़े हो सकते हैं. एक ऐसे वाद-विवादी मंचों के कवि डॉ.सुरेन्द्र दुबे हुए, ने अपने प्रमाणपत्रों का पुलंदा दिखाते हुए कहा कि “विश्वविद्यालयीन वादविवाद प्रतियोगिताओं में सबसे ज्यादा प्रमाणपत्र पाने वालों में मैं दूसरे स्थान पर रहा.”

“तब पहले स्थान पर कौन?”

“पहले स्थान पर कनक तिवारी. तिवारी जी के पास पहले से ही लगभग ११० पुरस्कार और प्रमाणपत्र हैं. उनसे बाजी कोई नहीं मार सकता.”… और आज भी ज्यादातर बाजी उन्हीं के हाथों में है. वरिष्ठ कवि और तिवारी जी के लम्बे समय के साथी रवि श्रीवास्तव जब तब कह उठते हैं “कनक तिवारी को कोई नहीं पा सकता. कनक जी जैसी शख्सियत का किसी शहर में होना उस शहर की उपलब्धि है.” साहित्य जगत में स्वयं अच्छे वक्ता के रूप में स्थापित प्रगतिशील लेखक डॉ.रमाकांत श्रीवास्तव भी उनकी वाक कला के आत्मीय प्रशंसक हैं. कथाकार परदेशीराम वर्मा ने एक बार नवभारत में आलेख लिखा था ‘शब्दों के जादूगर कनक तिवारी.’ कथाकार सतीश जायसवाल कहते हैं कि ‘न केवल बोलने में बल्कि बड़े से बड़ा कार्यक्रम हो कनक तिवारी, ललित सुरजन जैसा आयोजन कौशल कितनों के पास है?’ एक अन्य कथाकार गुलबीर सिंघ भाटिया तो उन्हें देखते हैं तो बोल उठते हैं “तिवारी जी नेहरू जी की तरह लगते हैं.” इस तरह अपने अपने क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचे कई लोगों ने सह्रदयता से कनक तिवारी के ‘नायकत्व’ को स्वीकारा है.

हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ में उनका अधिकार है. उनका अध्ययन विशाल है. लेखकीय पोटेंशियल इतना अधिक है कि विचारों का एक सैलाब-सा आता है. वे इतना लिखते हैं फिर भी भीतर रीता नहीं होता. सृजन का एक ज्वार-सा उठता है. वे लगातार अपनी रचनात्मकता को उलीचते रहते हैं. थकते नहीं हैं. हर तरह की मीडिया का जमकर दोहन करते हैं. कई अख़बारों में साप्ताहिक स्तम्भ लिखते हैं. अंग्रेजी के भी कॉलम राइटर हैं. इस ८१ वर्ष की उम्र में जब आदमी आराम तलब हो रहा होता है उनके भीतर लेखकीय छटपटाहट और विचारों की कौंध है. हर रोज मुखरण और अभिव्यक्ति का सहारा चाहिए. वे सोशल मीडिया पर आ जाते हैं. जिस फेसबुक का लोग उपहास भी उड़ा देते हैं उसका वे भरपूर रचनात्मक इस्तेमाल कर उसे वे लोकशिक्षण का प्रमुख साधन बना देते हैं… और अपने फालोवर्स को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर देते हैं. अपनी वैचारिक गहमागहमी में वे फेसबुक जैसे माध्यम को परम उपयोगी बना देते हैं. यहां भी वे रचना और विचार सम्प्रेषण की अहमियत को जता जाते हैं. साथ ही यह भी कि कोई भी माध्यम सतही नहीं होता बनिस्बत लेखक मीडिया के मानदंड के अनुसार किसी दबाव में लेखन न करे.. वे माध्यमों के साथ कोई समझौता नहीं करते. उन्हें जो कहना है वे अपने दम के साथ कहते हैं भले ही ऐसा करते समय टकराहट की स्थिति आ जाए और कोई नुकसान भी उठा लें लेकिन अपनी बात रखने से वे चूकते नहीं हैं. कनक तिवारी की लेखनी भी उनके वक्तव्यों की तरह ओज और धार लिए होती है. उन्हें पढ़ते समय उन्हें सुने जाने जैसा अहसास उनके पाठकों को होता होगा. पाठकों को उनके लेखन में उनके वाककौशल की अनुगूँज सुनाई देती होगी.

बोलते समय वे पूरी तन्मयता के साथ बड़े आवेग (flame) में होते हैं. उनके एक प्रिय लेखक जो अंग्रेजी के लीजेंडरी राइटर हैं टी.एस.इलिएट कहते हैं कि “The purpose of literature is to turn blood into ink. जिसे मुक्तिबोध दूसरे ढंग से कहते हैं कि “एक अच्छी कविता लिखते समय एक पौंड खून जलाना पड़ता है.” कनक जी की आवेगपूर्ण वाणी में उनके मसौदे की आग को चीन्हा जा सकता है. उनके भीतर से कोई धुंआ सा उठता है. जिन लोगों ने उन्हें भगतसिंह पर एक घंटे सुना हो उन्होंने यह भी महसूस किया होगा कि उनके वक्तव्य में ऐसा ताप होता है जैसे किसी क्रान्तिकारी ने असेम्बली में बम फेंकने के बाद अदालत में मुंसिफ के सामने बयान दिया होगा.

कनक जी के लेखन में ‘विट’ की गुंजाइश होती है. विनोद प्रियता उनमें है और उनकी लेखन शैली व्यंग्यात्मक हो उठती है. लगता है अगर वे साहित्य की किसी एक विधा को साध रहे होते तो वे हिंदी के एक उल्लेखनीय व्यंग्यकार हो सकते थे. वे परसाई और शरद जोशी से बड़े प्रभावित रहे. जब शरद जोशी व्यंग्य की अपनी वाचिक परंपरा में धूम मचा रहे थे १९७५ में तिवारी जी ने उन्हें दुर्ग लाया भी था. एक बार परसाई के एक संग्रह को मुझसे पढने लिए और आधी रात तक पढ़ लिए. सुबह मुझे लौटाते हुए बोले कि ‘परसाई का कॉन्फिडेंस इस ऊंचाई पर होता है कि उनके पाठकों को बेवकूफ होने का भान होता है.” उनके बोलने में उपहास या परिहास कब आ जाए कहा नहीं जा सकता. इससे संभवतः वे स्वयं भी भिज्ञ नहीं होते. यह तोप के गोले की तरह अनायास निकलता है. मुझसे भी कनक जी का जो थोडा-बहुत जुडाव है वह शायद मेरे व्यंग्य लेखक होने की वजह से हो. वे कह भी उठते हैं कि “मैं और विनोद एक जैसा सोचते हैं.”

पिछले दिनों मेरे जन्मदिवस पर फेसबुक में मेरी कुछ पोस्ट (टिप्पणियों) को लेकर तुरत फुरत में मेरी व्यंग्य चेतना पर कनक जी ने एक ऐसा आलेख लिख दिया जिसे मुझ पर पी.एच.डी. करने वाली शोधार्थी लड़कियां ले उड़ीं. संभव है कि कनक जी की किस्सागोई की राह पर उनकी अध्ययन शीलता या उनका वैचारिक चौकन्नापन आड़े आया हो और वे स्वतंत्र रूप से व्यंग्यकार या निबंधकार नहीं बनना चाहें या साहित्य की सीमाओं में वे बंधना न चाहे हों. क्योंकि उनके लेखन में उनका चिंतन पक्ष हावी रहा. वे विश्लेषण परक लेखन में लगे रहे जिनमें उनके विलक्षण गद्य की कई रचनाएं जो निबंध-सा अहसास कराती थीं उन्हें आलोचक प्रमोद वर्मा ने ‘प्रसन्न गद्य’ की रचनाएँ कहा था.

…लेकिन कनक तिवारी का रचना संसार एक दूसरी मोड़ पर जा खड़ा हुआ- जहाँ एक तरफ स्वाधीनता संग्राम का उत्कर्ष काल था और दूसरी ओर भारतीय संविधान का उत्थान काल. इन दोनों ही इलाकों के वैचारिक समंदर में वे एक ऐसे तैराक निकले जिसे गोताखोरी में भी महारत हासिल होती है. और जो जितनी गहराई में जा जाकर हर तरह की मोती ले आता है. तिवारी जी का यह व्यापक उपक्रम कुछ ऐसा ही रहा और वे स्वाधीनता संग्राम के महापुरुषों, उनकी जीवन और संघर्ष गाथा, उनके अवदानों और भारतीय जनमानस पर उनका लोक-कल्याणकारी प्रभाव इन सबों पर भरपूर ऐतिहासिक तथ्यों के साथ इतने विस्तार से कई कई बार इतने व्यापक फलक पर बातें वे लिखकर और बोलकर पाठकों श्रोताओं के सामने करते रहे हैं कि यहां उन पर और विस्तार से चर्चा की आवश्यकता प्रतीत नहीं हो रही है.

उनका अधिकांश लेखन जो आजादी के पहले के भारत में उसके स्वाधीनता संग्राम पर केन्द्रित रहा वह आजादी के बाद के भारत में उसके संविधान के लोकतान्त्रिक रूप, उसके समभाव की जमकर वकालत करते हुए और उन पर किसी भी मतभेदी से जिरह करते हुए उन्हें रोज रोज देखा जा सकता है. अब जब इस बढ़ती उम्र में अदालत के कामों से वे दूर होते जा रहे हों तब विभिन्न मीडिया में लिखता बोलता वकालत खिलाफत करता उनका रूप हमारे सामने है. पिछले एक दशक में सत्ता के बदलते चेहरे और तेवर के खिलाफ मुखरित होते कनक तिवारी को उनकी जन पक्षधरता के साथ कहीं भी पढ़ा जा सकता है, सुना जा सकता है.

हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी के भी एक समर्थ लेखक होने के कारण कनक जी के व्यक्तित्व में पाश्चात्य बौद्धिकता और भारतीय अंतरात्मा का मिश्रण-सा दिखता है. संभवतः यह प्रभाव पूरे नेहरुवादियों में रहा है. आचार-विचार, पहनाव-ओढाव, भाषण देने की कला में और स्वतंत्र भारत के प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य संस्कृति में नेहरू जी की कार्य शैली और उनकी जूझ पड़ने की अदा का बड़ा प्रभाव रहा. नेहरू की इस योग्यता क्षमता को गाँधी जी ने भांप लिया था और इस महानायक को स्वतंत्र भारत की सत्ता का भार सौंप दिया था. कनक जी कहते हैं कि ‘नेहरू का आशिक तो मैं हमेशा से रहा हूँ पर सैद्धांतिक-वैचारिक दृष्टि से जब जब गाँधी नेहरू में मतभेद दिखेगा मैं गाँधी जी की ओर जाना चाहूँगा.”

कनक तिवारी दो बार मध्यप्रदेश सरकार में कैबिनेट रैंक के पदों पर आसीन हुए. तब उन्होंने गाँधी, नेहरू, बख्शी जी पर देश भर में कई कार्यक्रम करवाए… और शासन से मिलने वाले संसाधनों का साहित्य और विचार जगत में सार्थक उपयोग किया. साहित्यकारों पत्रकारों को जोड़ा. अपने आसपास की प्रतिभाओं का सम्मान किया पर स्वयं सम्मान करवाने से बचे रहे. उनमें सम्मान को लेकर वैसी कोई आकांक्षा नहीं दिखी जो बहुत से लोगों की कमजोरी होती है. वे रहते दुर्ग में हैं. पर वे कला, साहित्य, विचार और संस्कृति की नगरी राजनांदगांव के होनहार सपूत हैं. इसलिए विगत दिनों वहां की समाजसेवी संस्था ‘उदयाचल’ ने उनका नागरिक अभिनंदन किया. तब पचास मिनट तक सभागार में उनकी ओजस्वी वाणी गूंजती रही. राजनांदगांव की समृद्ध सांस्कृतिक थाती और खुशनुमा अतीत भरे उनके जज्बातों को नांदगांव की जनता अभिभूत होकर सुनती रही. इस लम्बे वक्तव्य में यह प्रमाणित होता रहा कि यह सिद्ध वक्ता ‘वाककौशल का दूसरा नाम कनक तिवारी है’.

उनके सुदीर्घ रचनात्मक और यशस्वी जीवन को हम सबका सलाम.
०००
– विनोद साव

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