कैलेंडर की काया में कविता पोस्टर
ईश्वर सिंह दोस्त
रंगकर्मी और चित्रकार अरुण काठोटे के बनाए कविता पोस्टरों का एक शानदार कैलेंडर जारी हुआ है। इसे प्रकाशित किया है रायपुर के दैनिक आज की जनधारा ने। कल जनधारा के संपादक सुभाष मिश्र और अरुण की मौजूदगी में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इसका विमोचन किया। कार्यक्रम में मैं भी शरीक था।
आज कविता पोस्टर कला की एक संश्लेषी विधा के रूप में मान्य हो गया है। इसकी प्रदर्शनियां होती हैं। साहित्यिक कार्यक्रमों में इसकी उपस्थिति किसी कोने में ही, मगर जरूरी जैसी है। पंकज जैसे चित्रकार हमारे बीच हैं, जिन्होंने इसे अपनी अभिव्यक्ति के मुख्य माध्यम के रूप में चुना है। अनिल करमेले हैं। कभी-कभी यशवंत स्वामी हैं।
हालांकि अब भी एक कला के रूप में कविता पोस्टर की उपस्थिति वैसी ही है, जैसी कि साहित्य में व्यंग्य की। बकौल परसाईं जी व्यंग्य साहित्यिक पदानुक्रम में शूद्र माना जाता है। जो कविता पोस्टर का ऊँचा आकलन करना चाहते हैं, वे मीडियम और मैसेज की प्रचलित मान्यताओं में उलझ जाते हैं। चित्र और शब्द की ज्ञानात्मक फांक हावी रही आती है। मजेदार यह भी है कि जिन लोगों ने अपना वैचारिक चाल-चलन उत्तर-आधुनिकता के चलन के माकूल बिठाने की भरसक कोशिश की, वे सारे भी आधुनिक कला के ऊंचे पायदान से उतर कर नया स्वाद लेने कविता पोस्टर तक नहीं आ पाते।
जिन लोगों को नाटक के पहले लगा नुक्कड़ नहीं जमता हो, उन्हें कविता के बाद लगा पोस्टर भी वि-चित्र लग सकता है। मगर आज की डिजिटल संस्कृति के आभासी दृश्य संसार में कविताओं को पोस्टरों ने नए पंख दिए हैं, यह मानने में शायद किसी को हिचक न हो।
अरुण काठोटे का नाम मेरी स्मृति में एक अलग ढंग से भी दर्ज है। जब 1981 में पिथौरा के अपने स्कूल से निकल कॉलेज पढ़ने रायपुर आया तो एक दिन जयस्तंभ चौक पर “कविता चौराहे” के नाम से लगे पोस्टर से मेरा मुकम्मल आमना-सामना हुआ। मैं बहुत देर तक इस मुठभेड़ के सम्मोहन में रहा था। जहाँ तक मुझे याद है कि ‘सिलसिला’ की इस पेशकश का सिलसिला कुछ महीने लगातार चला। हर हफ्ते एक नया कविता पोस्टर जमीं पर उतरता था। और हम लोग साइंस कॉलेज के हॉस्टल से साइकिल चलाते हुए यहां तक पहुंचते थे। बाद में ये पोस्टर देशबंधु के अवकाश अंक में छपने लगे।
मुझे नहीं पता कि हिंदी में कविता पोस्टर किसने शुरू किए। शायद यह प्रयोग महाराष्ट्र या बंगाल में पहले हुआ हो। मगर अरुण काठोटे हिंदी के कविता पोस्टर के महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ जनों में हैं, यह पक्का है। अरुण पहले रंगों और कूची से कविता पोस्टर रचते थे। बाद में डिजिटल युग में वे तस्वीरों के जरिए कोलाज भी बनाने लगे। मुझे अब भी उनके चित्र वाले पोस्टर ज्यादा याद आते हैं।
“कविता चौराहे पर” नब्बे के शुरुआती दशक में प्रतिरोध का एक एलान भी था। अब वह जादू फिर हो पाएगा, पता नहीं। पोस्टर का शरीर छवि बन पहले ही छपे हुए संसार में चला गया था। अब डिजिटल में कहीं चौराहा नहीं है या हर जगह इतना ज्यादा चौराहा है कि आप देर तक कहीं खड़े नहीं हो सकते। ऐसे वक्त में सुभाष के जरिए कैलेंडर के रूप में कविता पोस्टर का एक और कायांतरण हुआ है।
(साथ में पूरा कैलेंडर लगाने की जगह सिर्फ जनवरी का महीना लगा रहा हूं।)