ईंट निर्मित लक्ष्मण मंदिर सिरपुर
छत्तीसगढ़ के इतिहास में सिरपुर का विशिष्ट स्थान है। यहां जितने व्यापक स्तर पर पुरातत्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं, अन्यत्र नहीं मिले हैं, और ऐसा माना जाता है कि आज भी इसका बहुत बड़ा हिस्सा बसाहट के नीचे दबा पड़ा है। उत्खनन से सिरपुर की प्राचीनता असंदिग्ध है। यहां बौद्ध,जैन, वैष्णव, शैव मतों के पर्याप्त अवशेष मिले हैं। उत्खनन से स्पष्ट हुआ है कि यह व्यापार एवं वाणिज्य का बड़ा केंद्र था। स्थल मार्ग के अलावा महानदी के तट पर स्थित होने के कारण जलमार्ग से भी व्यापार अवश्य होता रहा होगा।
सिरपुर के बारे में प्रारम्भिक जानकारी व्हेनसांग के यात्रा विवरण(629-645 ई.) में मिलती है। व्हेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में जिस ‘क्यिावसलो’ का वर्णन किया है उसे अधिकांश इतिहासकार दक्षिणकोशल ही मानते है और उसकी तत्कालीन राजधानी सिरपुर(श्रीपुर) को। व्हेनसांग ने लिखा है “विधर्मी और बौद्ध दोनो यहाँ पर है जो उच्च कोटि के बुद्धिमान और विद्या-ध्ययन मे परिश्रमी है । राजा जाति का क्षत्रिय और बुध-धर्म को बड़ा मान देता है । उसके गुण और प्रेम आदि की बड़ी प्रशंसा है। कोई सौ सघाराम और दस हजार से कुछ ही कम साधु है जो सबके सब महायान सम्प्रदाय का अनुशीलन करते है। कोई बीस देवमन्दिर अनेक मत के विरोधियो से भरे हुए हैं।”
व्हेनसांग ने जिस राजा का उल्लेख किया है उसे महाशिवगुप्त बालार्जुन माना जाता है। सिरपुर में उसके कार्यकाल के ही सर्वाधिक साक्ष्य मिलते हैं।इन साक्ष्यों में बौद्ध और हिन्दू धर्म दोनो के उदाहरण मिलते हैं जिससे उसके उदार धार्मिक दृष्टिकोण का पता चलता है।
व्हेनसांग के बाद सिरपुर के बारे में बेगलर के रिपोर्ट(1873) से जानकारी मिलती है,फिर कनिंघम के रिपोर्ट(1881) से।
सिरपुर के लक्ष्मण मन्दिर का गुप्तकालीन ईंट निर्मित मंदिरों में विशिष्ट उदाहरण है।इसका नाम भीतरगांव(उ.प्र.) के विष्णु मंदिर, अहिच्छत्र (उ.प्र.)के ध्वस्त मन्दिर तथा तेर(महाराष्ट्र) के मंदिर के साथ किया जाता है।
इस मंदिर की प्रारंभिक जानकारी हमे बेगलर के रिपोर्ट में मिलती है, उसने मन्दिर स्थापत्य की जानकारी दी है तथा उसका फोटोग्राफ तैयार किया था।कनिंघम(1881) मन्दिर के बारे में लिखते हैं-
“The Lakshmana Temple is built on the same plan, and is।almost exactly of the same size as the Great Temple of Rajim. The platform on which it stands is 77 feet long by 39 feet
broad and 7 feet high. It is built of stone, and is still in excellent preservation. The temple itself of brick consisted of a sanctum and a long entrance hall, or Mandapa. The sanctum is still standing with, perhaps, three-fourths of its tower, tolerably perfect; but very little remains of the walls of the Mandapa, and the pillars and pilasters which once supported the roof are all gone. These, I believe, are now
in the Ramachandra Temple at Rajim, which is said to have been built about 250 years ago (some say 400) by Govind Sah, Kamasdar of Raypur. The pillars were all brought from Sirpur in boats. They are similar in size and style to those of the Great Rajim Temple; and, as the two buildings are of the same size, I have indicated in the accompanying plan of the temple the positions of all the pillars and pilasters according to those of the Rajim Temple.’
The sanctum of the Lakshmana Temple is built entirely of red bricks, with the exception of the jambs and lintel of the
entrance doorway, which are of stone. The sanctum is 22;feet square outside, with a room of 9 feet 9 inches for the reception of the statue. A side view is given in the accom- panying plate from a photograph by Mr. Beglar. It is still about 45 feet in height above the platform. The entrance
was from the sides at the extreme end of the Mandapa, just as in the Great Temple at Rajim. The carvings on the jambs of the door are of the Gupta style, such as is found at Benares and Eran; and I have no doubt that the temple belongs to the same period as the inscriptions, all of which
give the name of Siva Gupta. His date I believe to have been about 475 to 500 A.D.
There is a large statue of Vishnu lying outside the temple, which I think must have belonged to it. The accompanying
plate gives a good view of this figure from one of Mr. Beglar’s photographs. It is of the same style as the Gupta statues at Eran, and I have no doubt that it belongs to about the same period. The temple was certainly dedicated to Vishnu, as his Avataras are carved on the door jambs, and there is a
Varaha figure on one of the broken pilasters. One square slab of the roof of the Mandapa still remains to show that
the roof was closed in by retreating squares. Six broken pilasters are lying about,each 22 inches broad. Each has
the remains of some figure upon it. A large figure of Vishnu is laying amongst the ruins.”
मंदिर स्थापत्य
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मन्दिर पूर्वाभिमुख पत्थर के ऊँचे अधिष्ठान पर निर्मित है। अधिष्ठान की माप 77×39×7 फीट है।मन्दिर में वर्तमान में केवल गर्भगृह और उसका शिखर ही सुरक्षित है।शिखर का भी कुछ हिस्सा ध्वस्त हो चुका है। गर्भगृह के सामने छोटा अंतराल है। अंतराल के आगे का मंडप ध्वस्त हो चुका है, केवल पार्श्व दीवारें कुछ आगे बढ़ी हुई हैं जिससे उसके होने की पुष्टि होती है। बेगलर और कनिंघम के समय मंडप के अवशेष काफी थे,स्तम्भों के चिह्न अभी भी हैं। कनिंघम अनुमान प्रकट करते हैं कि राजिम के रामचन्द्र मंदिर के स्तम्भ यहीं के हो सकते हैं। बेगलर ने मन्दिर योजना का जो चित्र निर्मित किया है उसके अनुसार मंडप 28 स्तंभों का रहा होगा। मंडप प्रवेश के लिए पूर्व उत्तर और दक्षिणी पार्श्व में सीढ़िया रही होंगी।बेगलर के अनुसार मंडप 36′.3″×17′.7″ माप का रहा होगा।
एक अनुमान यह भी लगाया जाता है कि मन्दिर के मंडप का निर्माण बाद के दौर में हुआ होगा, क्योंकि प्रारम्भिक ईंट निर्मित मंदिरों जैसे ‘भीतरगांव’ के मन्दिर में मंडप का निर्माण नहीं हुआ था; केवल गर्भगृह से थोड़ा आगे उभार निकला हुआ था।
गर्भगृह 9’9″×9’9″ वर्गफीट है। गर्भगृह में पाँच फणों से युक्त शेषनाग की प्रतिमा है। पास ही विष्णु एवं कृष्ण लीला की लघु प्रतिमा है।
गर्भगृह का बह्यभाग पंचरथ शैली में निर्मित है जिसके ऊपर का आमलक एवं कलश क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। जगती से ऊपर पहुँचने के लिए उत्तर तथा दक्षिण से सोपान बने हैं।
मंडप की बाह्य भित्तियां सुंदर आम्र पल्लवों से सुशोभित की गई थी। भित्तियों के बाह्य भाग में कूट वातायन इसकी शोभा में वृद्धि करते थे।
गर्भगृह के बाह्यभित्ति के कोने की ऊर्ध्व पंक्ति कर्णरथ एवं उसके पार्श्व की पंक्ति अनुरथ कहलाती है।इन्हें आम्र पल्लव, चैत्य गवाक्ष, कूट वातायन, कीर्तिमुख, गजमुख एवं कर्ण आमलक से सुसज्जित किया गया है। मध्य भाग के कर्णरथ व अनुरथ भी चैत्य गवाक्षों, कूट वातायन, भार वाहक गण व अन्य प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं।
मध्य रथ के आधार भाग में हम आम्र पल्लव देख सकते हैं। तत्पश्चात चैत्य गवाक्ष एवं मन्दिर के जंघा भाग में कूट वातायन अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रहा है।
शिखर भाग में अनेक सुंदर गवाक्ष उत्कीर्ण है।
प्राचीन काल में ईंटो की भित्तियों के ऊपर चुने की परत का लेप जिनमे से कुछ भाग आज भी अवशेष के रूप में मध्य में हम देख सकते हैं।
मध्यरथ में कूट वातायन के ऊपर भारवाहक गणों की एक पंक्ति प्रदर्शित है।
गर्भगृह की दक्षिणी, पश्चिमी एवं उत्तरी बाह्यभित्ति इसी प्रकार सुसज्जित है।
प्रवेशद्वार
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द्वारशाखा मुख्यतः त्रिशाख प्रकार का है। परंतु यदि कर्ण शाखों को गिने तो पंच शाखित कह सकते हैं। इसके बाह्य शाखा में भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों एवं उनके लीला कथाओं से सम्बंधित विविध दृश्यों का अंकन है।
मध्य शाखा में विविध कामुक मुद्राओं में अनेक युगल प्रतिमाओं एवं विविध जीव-जंतुओं का अंकन है।मान्यता यह है कि भगवान तक पहुँचना है तो इसे बाहर रखना है।
अन्तरशाखा में पुष्पित कमल सहित विविध पत्र पुष्पों एवं लता वल्लरियों का अंकन है।
द्वारशाखा की बह्यतम शाखा हमारे स्थूल जगत को प्रतिबिंबित करता है, जिससे हमारा स्थूल शरीर सम्बंधित होता है।इसी स्थूल शरीर में भगवान विविध अवसरों पर अवतार लेते हैं एवं अपने विविध लीलाओं को यहाँ सम्पन्न करते हैं।
द्वारशाखा की मध्य शाखा हमारे सूक्ष्म जगत को प्रतिबिंबित करता है,जिससे हमारा सूक्ष्म शरीर अथवा हमारा मन सम्बंधित होता है।
अंतरतम शाखा जान शरीर से सम्बंधित होता है जो हमारे चेतना के जाग्रत स्तर को प्रतिबिंबित करता है।
प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से(तोरण) में ब्रम्हा के नाभि से सम्बद्ध शेषशायी विष्णु का सुंदर अंकन है।
मन्दिर नामकरण
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मन्दिर प्रांगण से प्राप्त महारानी वासटा के अभिलेख एवं प्रवेश द्वार एवं तोरण में विष्णु और उसके अवतारों के अंकन से स्पष्टतः मन्दिर के विष्णु मंदिर के होने का पता चलता है। वर्तमान में इसे लक्ष्मण मन्दिर कहे जाने का कारण इसके गर्भगृह में शेषनाग की मूर्ति के होने को माना जाता है, क्योंकि लक्ष्मण को शेषनाग का अवतार माना जाता है,अतः इसका नाम लक्षण मन्दिर हो गया होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में गर्भगृह में विष्णु की मूर्ति रही होगी जो बाद के दौर में किसी कारण वश वहाँ से हटा दी गई होगी। कनिंघम ने मन्दिर प्रांगण में विष्णु मूर्ति होने का उल्लेख भी किया है।
एक संभावना यह भी हो सकती है कि लोकमानस में युग्म मंदिरों को पौराणिक अथवा लोकप्रचलित नाम देने की परंपरा रही है। जैसे, देवरानी-जेठानी, सास-बहू, मामा-भाचा आदि। लक्ष्मण मन्दिर के सामने एक ध्वस्त राम मंदिर होने का जिक्र बेगलर एवं कनिंघम ने किया है। सम्भव है पूर्व में दोनो मंदिरों को क्रमशः राम एवं लक्ष्मण मन्दिर कहा जाता रहा हो। बहरहाल यह शोध का विषय है।
मंदिर निर्माता
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लक्ष्मण मन्दिर के मंडप के मलबा से प्राप्त शिलालेख से स्प्ष्ट है कि इस मंदिर का निर्माण महाशिवगुप्त बालार्जुन माता राजमाता वासटा ने अपने पति हर्षगुप्त की पुण्य स्मृति में हरि(विष्णु) के इस मंदिर का निर्माण कराया था।
अभिलेख में मन्दिर निर्माण के कारीगर ‘केदार’ का भी उल्लेख है।
निर्माण काल
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अभिलेख महाशिवगुप्त के शासनकाल का है और उसके गुणों का बखान है,इसलिए मंदिर निर्माण का समय उसके शासनकाल का मानना चाहिए।चूंकि अभिलेख में किसी भी प्रकार के सम्वत का उल्लेख नहीं है। इसलिए इसका काल निर्धारण मन्दिर स्थापत्य था अभिलेख की लिपि के आधार पर किया जाता है।
लिपि छठी शती ईस्वी में प्रचलित कुटिल अक्षरों वाली नागरी है।
महारानी वासटा का मंदिर अभिलेख
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इस अभिलेख का प्रथम सम्पादन राय बहादुर हीरालाल ने ‘एपिग्राफीका इंडिका,वॉल. ग्यारह’ (1911-12)में किया है जिसमे अभिलेख का पाठ, अनुवाद और विश्लेषण है। अभिलेख लाल बलुआ पत्थर पर उत्कीर्ण है जिसकी चौड़ाई 114 से. मी. और ऊंचाई 68 से. मी. है। अभिलेख 26 पंक्तियों में है जिसमे 42 श्लोक है। अभिलेख की भाषा संस्कृत और लिपि तत्कालीन(छठी-आठवी शताब्दी)कुटिल नागरी है। अभिलेख तिथि विहीन है, मगर चूंकि यह महाशिवगुप्त बालार्जुन के कार्यकाल है, जिसकी माता ‘वासटा’ ने अपने पति ‘हर्षगुप्त’ की स्मृति में विष्णु मंदिर का निर्माण कराया था। यह प्रशस्ति उसी उपलक्ष में लिखा गया था। महाशिव गुप्त बालार्जुन का कार्यकाल में मतभेद है।इसका कार्यकाल 595 ई. से 655 ई. (श्रीराम नेमा), 725 से 785 ई.(डॉ पी.एल मिश्रा) 740 से 800 ई.( डॉ ऋषिराज पांडेय)के लगभग माना जाता है, इसलिए मंदिर निर्माण का समय इसी बीच का होना चाहिए। राय बहादुर हीरालाल ने अभिलेख को आठवी- नवमी शताब्दी के लगभग माना है।
अभिलेख के कुछ बिंदु
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(1) प्रारम्भ में विष्णु की स्तुति है[मंदिर विष्णु मंदिर है]
(2) चन्द्रवंश में चन्द्रगुप्त नामक राजा हुआ।
(3) आगे चन्द्रगुप्त के किसी बड़े भाई का उल्लेख है, लेकिन उसका नाम नही दिया है। अभिलेख के कुछ अक्षर नष्ट हो गए हैं। सम्भवतः चन्द्रगुप्त किसी समय तक पुत्र विहीन रहा, उस समय अपने भाई पर काफी निर्भर रहा। बालचंद जैन के अनुसार उसका भाई सम्भवतः ‘तीवर देव’ रहा होगा।
(4) चन्द्रगुप्त का बेटा हर्षगुप्त हुआ।
(5)हर्षगुप्त का बेटा ‘महाशिवगुप्त राज’ हुआ। महाशिवगुप्त का छोटा भाई ‘रणकेशरी’ था। दोनो ने मिलकर युद्ध जीते(राज्य विस्तार किया)
(6) शस्त्र विद्या में कुशल होने के कारण महाशिवगुप्त को ‘बालार्जुन’ कहा गया है।
(7) उसकी (महाशिवगुप्त) माता ‘वासटा’ थी। वह मगध कुल के सूर्यवर्मा की बेटी थी। पति(हर्षगुप्त) के स्वर्गवास होने पर वह सात्विक जीवन जीने लगी। वे दोनो विष्णु के उपासक थे।
(8)अपने पति के विष्णु भक्ति की स्मृति में उसमे विष्णुधाम(मंदिर) बनवाया।यह मंदिर लक्ष्मण मंदिर ही होना चाहिए क्योकिं अभिलेख यहीं से प्राप्त हुआ है।
(9) इस अभिलेख का प्रशस्तिकार कवि ‘चिंतातुरांक ईशान’ है।
(10)आगे मंदिर के लिए ग्राम दान का जिक्र है। तोडंकण, मधुबेढ़, नालीपद्र, कुरुपद्र, वाणपद्र ये पाँच गाँव मंदिर को दिए गए। इन गाँवो के आय के तीन चौथाई भाग(75%) को तीन समान भाग मे विभाजित करके एक भाग सत्र(सामूहिक भोजन), एक भाग मंदिर के मरम्मत, और एक भाग पुजारी के लिए नियत किया गया।
(11) जो एक चौथाई भाग(25%) बच गया, उसके पंद्रह भाग किये गए। ये भाग ब्राम्हणों को उनके ‘वेदाध्ययन’ के हिसाब से दिए गए (अ) चार भाग उत्तम ऋग्वेदी को। ये हैं- ब्राम्हण त्रिविक्रम, अर्क, विष्णुदेव, महिरदेव (ब) चार भाग यजुर्वेदी को। ये हैं- उपाध्याय कपर्द, भास्कर, मधुसूदन, वेदगर्भ (स) चार भाग सामवेद के ज्ञात को। ये हैं- भास्कर देव, उपाध्याय स्थिर, त्रैलोक्यहंस, मोउत्ठ।
(12)शेष तीन भाग में एक भाग स्वस्तिपाठ करने वाले ब्राम्हण वासवनन्दी को, दो भाग भागवत ब्राम्हण ‘वामन’ और ‘श्रीधर’ को।
(13) आगे ये अधिकार उनके पुत्र-पौत्रों के लिए भी नियत किया गया है मगर उसके साथ कुछ शर्त रखी गई है। वे अग्निहोत्री हों, छह अंग युक्त हों, जुआ वेश्यागमन से दूर हों, वर्णशंकर न हों, किसी की चाकरी न करते हों। जो इन शर्तों का पालन न करे अथवा पुत्रहीन मर जाए तो उनके हिस्से में अन्य पूर्वोक्त गुणवान ब्राम्हण को शामिल किया जा सकता था। वह व्यक्ति विद्यावान हो, वयोवृद्ध हो, उसका रिश्तेदार हो। और इसका चुनाव इन्ही लोगों के सम्मति से होगा न कि राजाज्ञा से।
(14) ये पन्द्रह अंग न तो बेचे जा सकते हैं न गहन (गिरवी) रखे जा सकते हैं।
(15) वर्गुल्लक नाम का गांव भगवान के बलि, चरु, नैवेद्य के सत्र की सामग्री(खर्च) के लिये अलग से दिया गया। इसका प्राधिकार पुजारियों और सभी मुख्य ब्राम्हणों के सहमति से होगा।
(16) आगे भविष्य के राजाओं को इस नियम को बनाये रखने की सलाह दी गई है।
(17) केदार नामक कारीगर ने इस मंदिर को बनाया। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि सामान्यतः अभिलेखों में मंदिर निर्माता कारीगर(मुख्य) का उल्लेख नही मिलता।
(18) आगे शिवगुप्त(महाशिवगुप्त) द्वारा आर्य गोष्ण नामक ब्राम्हण को सम्भवतः किसी ग्राम दान का उल्लेख है, मगर अभिलेख क्षतिग्रस्त है। इसमे भी एक भाग ब्राम्हणों के भोजन प्रबन्ध को देने का का जिक्र है।
(19) इस अभिलेख में इतिहास सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचना यह मिलती है पांडुवंशी हर्षगुप्त का मगध के वर्मा राजवंश से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होना। रानी वासटा मगध के सम्राट सूर्यवर्मा की बेटी थी।
(20) अभिलेखों में जो भौगोलिक नाम मिलते हैं उनमे मगध तो चर्चित है। कुरुपद्र सिरपुर से 24 कि.मी. दूर कुलपदर हो सकता है। वर्गुल्लक सिरपुर के निकट का गुल्लू है। कुलपदर के निकट का स्थित तुरेंगा गांव तोंडकण हो सकता है। सिरपुर के पास का मधुबन गांव मधुवेढ़ हो सकता है। नालीपद्र और वाणपद्र का पता नही चल पाया है।
(21) अभिलेख से तत्कालीन समय में मंदिर संचालन व्यवस्था की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। राज्य में ब्राम्हण पुरोहितों के विशिष्टाधिकार, राज्याश्रय की जानकारी मिलती है। अवश्य उनके लिए नैतिक शुचिता के नियम भी निर्धारित थे।
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संदर्भ
(1) उत्कीर्ण लेख(1961)- बालचंद जैन
(2) एपिग्राफीका इंडिका, वॉल ग्यारह(1911-12)- राय बहादुर हीरालाल
(3) छत्तीसगढ़ का इतिहास- डॉ रामकुमार बेहार(2014 द्वितीय संस्कण
(4)छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल के कलचुरी(2008)- डॉ ऋषिराज पांडेय
(5) आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भाग 17(1881-82)- अलेक्जेंडर कनिंघम
(6)आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया वॉल 07-जे.डी बेगलर(1873-74)
(7) भारतीय स्थापत्य एवं कला-डॉ उदयनारायण उपाध्याय, प्रो. गौतम तिवारी(2015)
(8) लक्ष्मण मन्दिर सिरपुर- यू ट्यूब (त्रिनाथ राणा)
(9) मन्दिर फोटोग्राफ- गूगल से साभार
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