लघुकथा : माँ – बेटा
“हमारे पूर्वज जंगलों में रहा करते थे; और वही अच्छा था।” एक लम्बी साँस लेते हुए माँ ने कहा।
“वो कैसे माँ…? बेटे ने प्रश्न किया- तो हम यहाँ कैसे आये ?”
“बेटा ! आदमी नाम का प्राणी हमें यहाँ ले आया।” माँ ने जवाब दिया।
“हम वहाँ कैसे अच्छे थे… आदमी हमें क्यों ले आया ?” बेटा अपनी माँ के और करीब गया, और बोला।
“बेटा ! हमें जंगलों में स्वतंत्रता थी। हम वहाँ निर्भीक होकर विचरण करते थे। अपने तरीके से रहते थे खुली हवाओं में। पर आदमी अपने स्वार्थ के लिए यहाँ ले आया और हमें पाल लिया अपने मतलब के लिए।” माँ ने रुँधे स्वर में कहा।
“माँ ! मैं समझा नहीं।” बेटे ने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की।
“हाँ बेटा, आदमी ने हमसे अपना काम ले लिया; और अपने घर से हमें निकाल दिया। बड़ा मतलबी होता है आदमी। अब उसने हमें लावारिस नाम तक दे दिया। माँ की आँखें जरा गीली हो गयी- बेटा, हमें जंगलों में भर पेट भोजन मिलता था। शुद्ध-ताजी हवा मिलती थी साँस लेने के लिए। हरे-भरे वृक्षों के नीचे हमारे दिन गुजरते थे। पर्याप्त धूप मिलती थी। वर्षा का भी अपना अलग ही मजा था। हमारा जीवन तो जंगलों में ही बेहतर था।”
“हाँ माँ…! तुम ठीक कह रही हो। बेटे ने आहें भरी- अब इसे ही जंगल समझो माँ; एक कंक्रीट का जंगल, बंजर कोलतार सड़कों का जंगल। कारखाने, चिमनी, इमारतें, टावर्स आदि रूखे-सूखे पेड़-पौधे हैं। कागज, पाॅलीथिन, प्लास्टिक ने हरी-भरी घास का स्थान ले लिया है। गंदी हवाओं में हमें जीना है, और मरना है कंक्रीट की इस रूखी जमीं पर।” बेटे की सिसकती आवाज सुनकर माँ ने उसे चुप कराया।
राह चलते गाय-बछड़े को बतियाते देख मैंने अपनी आँखें बंद कर ली। सच, मुझे बहुत लज्जा आ रही थी।
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@ टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”
घोटिया-बालोद (छत्तीसगढ़)
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