November 21, 2024

“ सूरज ऊपर चढ़ आया और यह लड़की अब तक सोई पड़ी है, रुक ! ऐसे नहीं मानेगी ।“
गुस्से में उफनती ‘मुइ’ ने सोती यालेक के कूल्हों पर जोरदार लातें जमाईं । उनका जगाने का यही पुराना तरीका था । यालेक मुँह फाड़े सो रही थी, मुँह के किनारे से टपकती लार से तकिया गीली हो गई । इस अचानक मार से यालेक हड़बड़ाकर उठी ।
“ मुँह साफ करो अपना ।“
‘मुइ’ चीखकर बोली ।
मुँह का बहता लार गले को भी भिगो दिया था, यालेक ने उबासी लेते हुए हाथ से मुँह और गला को पोंछकर साफ किया । अपनी अलसाई आँखों को मलने के बाद ‘मुइ’ से आँखें मिलाईं…उनकी आँखें क्रोध में अंगारे बरसा रही थी-
“ क्या देख रही हो ! एकदम ढीठ हो तुम, अपने नाम के अनुरूप !”
यालेक बुदबुदाई-
“ फिर शुरू कर दिया अपना तकिया-कलाम..”
“ फुसफुसा क्या रही हो ? जो कहना है जोर से कहो । मुझे मालूम है, जरूर तुम गाली बक रही होंगी ।“
यालेक ने कोई जवाब नहीं दिया, वह अब भी नींद में थी ।
“ स्कूल से दो बार बुलावा आ चुका है । तुजुम सार ने दो-दो बार लड़कियाँ भेजा, पता लगाने के लिए तुम जगी हो कि नहीं ।“
‘मुइ’ के इस विचित्र उच्चारण से यालेक को हँसी आई, सारी नींद उड़नछू हो गई । वह खीं-खीं कर हँसने लगी । इस दफा बुदबुदाई नहीं, भरपूर मुँह खोलकर उनको सुधारते हुए कहा-
“ सार नहीं, सर । तुजुम सर ।“
‘मुइ’ को बुरा लगा, इस तरह सुधारे जाने पर-
“ सर…सार जो भी हो ! ‘न्यीपाक आगोम’ हम क्या जाने !”
यालेक ने अपनी बची-खुची नींद को जम्हाई में उड़ाती हुई, सूखा बाँस का लट्ठा चूल्हे के आग में ठूँस दिया । ‘मुइ’ ने फटाक से ‘मसाप’ उठाकर उसके हाथों पर दे मारा-
“ क्या कर रही हो तुम ? आलसी लड़की…अभी भी नींद में हो ? तुझे मालूम नहीं सूखा बाँस जोर से फटता है । बच्चे जाग जायेंगे ।“
यालेक तुनककर बोली-
“ अच्छा मुझे तो सोने नहीं दिया, क्या मैं बच्ची नहीं हूँ ??”
हैरानी से उसे देखती हुई ‘मुइ’ ने कहा-
“ तुम कहाँ बच्ची रही ! अपनी छाती देख, उभार आ रहा है । शरम करो । पहले वाला जमाना रहा होता तो तुम्हारी शादी हो चुकी होती ।“
“ यह तो और भी अच्छा होता !”
यालेक को कोई उत्तर सूझा नहीं, उत्तर देने के खातिर उत्तर दे दिया ।
“ क्या अच्छा होता…! देख जो बच्चे सुस्त होते हैं न, उसे अपने माँ-बाप तक भी पसंद नहीं करतें, ससुराल की तो भूल ही जाओ ।“
यालेक ने दरवाजे की तरफ मुँह फेर लिया, मानो जता रही हो मुझे आपकी नसीहतों, हिदायतों की परवाह नहीं । ‘मुइ’ स्वर में थोड़ी कोमलता लाते हुए-
“ मुझसे जबान लड़ाने से बेहतर है, तैयार हो जाओ और स्कूल भागो ।“
यालेक मन ही मन ही झींक रही थी, बाकी बच्चे दिन चढ़ने तक सोते रहें, उन्हें माफी है । लेकिन मुझे सोने की इजाजत नहीं, सबसे बड़ी होने की यहीं सजा है !

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प्रकृति के अनंत, शाश्वत, पुरातन रागों से बँधा एक शांत और उनींदा कस्बा- रागा । इसका ज़र्रा-ज़र्रा रागमय ! कमलअ की बहती कल-कल निनाद में उन्मत्त राग, शरद ऋतु में ‘गुत’ पक्षी के कंठ से फूटता सुरीला राग, अम्बर से स्पर्धा करता ‘मोयिर-मुद’ के शिखरों से घर्षण खाती हवा की सरसराहटों में भीगा राग !
इसी महीने के शुरूआती सप्ताह में, यह पुनीत धरा और भी संगीत से सज उठी..जब प्रदेश के मुख्यमंत्री दौरे पर आये थें । यहाँ के बाशिंदों ने अपने कलाप्रेमी मुख्यमंत्री का गीतों से स्वागत किया और नृत्यों से अपनी श्रद्धा अर्पित कीं । महिलाओं की टोली ‘पुनु’ नाच रही थी तो लड़कियों की टोली ‘जाजिन’ !
गद्‌गद्‌ मुख्यमंत्री ने लालकोट का युनिफॉर्म पहने ‘गाँवबूढ़ा’ को अपने पास बुलाकर उनकी पीठ थपथपाईं । जाते-जाते वे यह घोषणा कर चले गयें कि इस बार दिल्ली के गणतंत्र दिवस में सांस्कृतिक प्रस्तुति के लिए अरुणाचल से जो टीम जायेगी, वह यहीं रागा से होगी । इस घोषणा से जहाँ गाँव के जवाँ लड़के-लड़कियाँ मस्ती से झूम उठें, वहीं बड़े-बुजुर्गों के पाँव हर्ष से थिरकने लगें ।
मुख्यमंत्री जी कस्बा को अभूतपूर्व इज्जत नवाजकर चले गयें, मगर गाँवबूढ़ा के माथे पर चिंता के मारे बल पड़ गया । खुश तो बहुत था, लेकिन चिंता भी सता रहा था । चिंता लाजमी भी थी । यह केवल कस्बे की मान-प्रतिष्ठा की बात नहीं रह गई थी, पूरे प्रदेश की साख दाँव पर लगा हुआ था ।
अच्छी तरह से सोच-समझकर, नर्तक दल का गठन करना होगा । अगर नौसिखियों को दिल्ली भेज दिया और वहाँ शहरी ताम-झाम से चकित और हक्के-बक्के होकर नाचने के लिए पग नहीं उठा सकें तो सब गड़बड़ ! किसी भी कीमत पर प्रदेश की छवि धूमिल नहीं होनी चाहिए । यह बड़ी जिम्मेदारी का काम है । किसी गैर जिम्मेदार इंसान को नहीं सौंप सकता । सबसे पहले नर्तक दल का गठन…फिर दल के लीडर का चुनाव, काम बहुत है । यह सोच-सोचते गाँवबूढ़ा के सिर में खुजली पैदा हो गई ।
ऐसा अक्सर होता है ! काम की अधिकता के तनाव में उनके सिर में खुजलाहट होने लगती थी । बंदरों के माफिक जब सिर को खुजाते, लोग समझ जाते गाँवबूढ़ा जरूर किसी परेशानी में हैं । वे सिर को खुजाये जा रहे थें । अगर इस वक्त कोई नया व्यक्ति, किसी अपरिचित ने उन्हें देख लिया होता तो सीधा उसे ग़लतफहमी हो जाता कि गाँवबूढ़ा के सिर में रूसी का भंडार है या उनको चर्मरोग है ।
वे तेजी से सिर को खुजलाते हुए सोचने लगा, टीम का लीडर कोई पढ़ा-लिखा आदमी हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा…जो अपनी अगुवाई में टीम को सुरक्षित दिल्ली ले जाये और वापस लेकर भी आये ।
उन्हें हेडमास्टर तिवारी सर का ख्याल आया ।
मैदानी आदमी है, मैदानों की जानकारी है । लेकिन है बड़ा धूर्त..! एक-एक पैसा दाँत से पकड़कर रखता है, बिल्कुल हिसाबी इंसान है । हमेशा नफा-नुक्सान तौलने वाला, बिना किसी स्वार्थ के कोई काम नहीं करता । स्कूल के मरम्मत और रखरखाव के लिए जो फंड आया था, उसमें भी घपला कर रखा है । इसे टीम लीडर बनाकर दिल्ली भेजना सही नहीं रहेगा, यात्रा-खर्च में भी ग़बन करेगा है । अपना जेब भरने के फिराक में बेचारी नर्तकियों को भूखा मार देगा । बिल्कुल विश्वास के लायक नहीं ।
कोई अपना आदमी हो तो ज्यादा माकूल होगा । तुजुम सर…तुजुम सर कैसा रहेगा ? हाँ उसके पास बड़े शहरों का अनुभव नहीं, तो क्या हुआ ? है तो बहुत सीधा-सादा ! निष्कपट आदमी है । अब तक उसको जो भी काम सौंपा, पूरी सच्चाई और ईमानदारी से निभाया । विश्वास तो कर ही सकते है । तो इस तरह काफी माथापच्ची के बाद दिल्ली जाने का प्रस्ताव तुजुम सर को गया ।
देश की राजधानी दिल्ली का अपना रोब है, आकर्षण है । भला उस जगह को देख आने की चाहत किसके मन में न हो, कौन वहाँ जाने से मना करता । इधर गाँवबूढ़ा के मुँह से प्रस्ताव उगला नहीं कि उधर तुजुम सर झट से तैयार हो गया ।
डील-डौल शरीर, गोल-मटोल चेहरा और खुश-खुश रहने वाला तुजुम सर..कस्बा का एकलौता एम.ए. डिग्री होल्डर था । अरुणाचल युनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. पास करते ही, इधर कस्बा में उनकी नौकरी लग गई । उन दिनों अरुणाचली युवाओं को नौकरी के लिए ऑफिसों के धक्के नहीं खाने पड़ते थें । आहा हा हा ! क्या स्वर्णिम दौर था ! एक हाथ में डिग्री की सर्टिफिकेट क्या मिली कि, दूसरे हाथ में नौकरी का अपॉइनमेंट लैटर थम जाया करता था ।
यहीं कस्बे में ही तुजुम सर का जन्म हुआ, इसी की मिट्टी में लोट-लोटकर बड़ा हुआ । इसलिए दिल में एक कसक थी, नौकरी के बहाने अरुणाचल के दूसरे इलाके का कोना-कोना घूम आयेंगे । एम.ए. की पढ़ाई भी प्रदेश से बाहर जाकर पूरी करना चाहता था, मगर घोर आर्थिक तंगी के चलते यह मुमकिन न हुआ..सपना ही बनकर रह गया ।
उनकी मास्टर्स की शिक्षा भी जैसे-तैसे, बहुत मुश्किलात में संपन्न हुई । सरकार की ओर से जो छात्रवृत्ति मिलती थी, कभी उसका बेजा खर्च नहीं किया । पर होस्टल में उनके अन्य साथी लोग शराब और महंगी सिगरेटों में इस सरकारी सहायता को फूंक डालते थें । अपना तुजुम सर सदा बुरी लत और ग़लत संगत से एक किलोमिटर की दूरी बनाकर रखता । गुलच्छर्रे उड़ाने के लिए न समय था, न पैसा । फ़ाकामस्ती में पढ़ाई समाप्त किया ।
जब नौकरी लगी, सोचा था वह पुरानी हूक पूरी हो जायेगी । बाहर न सही कम से कम अपने प्रदेश का दूसरा कोना झांक आऊँ । लेकिन नौकरी लगी भी तो अपने ही कस्बे में । खैर, इससे तुजुम सर को कोई शिकायत नहीं थी । वह सभी से खुश रहने वाला…नहीं, नहीं, बल्कि अपने आप से खुश रहने वाला इंसान था । स्कूल में नियुक्ति के दिन से ही बच्चों को खूब मन लगाकर पढ़ाने लगा ।
सिर्फ़ एक समस्या थी !
बच्चे उसे गंभीरता से नहीं लेते थें । बच्चों का भी स्वभाव अनोखा ! जहाँ बाकी कड़क मिजाज टीचर से खौफजदा रहतें, वही सदा मुस्कुराने वाला टीचर तुजुम सर से एकदम बेखौफ हो जातें । उनके पीरियड में जमकर हुड़दंग मचाते थें । बच्चों ने कभी उन्हें गुस्साते नहीं देखा ।
यह बात नहीं थी कि तुजुम सर को गुस्सा नहीं आता, उनको गुस्सा चढ़ता था…लेकिन बच्चों को यकीन ही नहीं होता कि उनको गुस्सा चढ़ रहा है । वह अपनी शक्ल को संजीदा बनाकर, जोर से ऊँची आवाज में डाँटता मगर बच्चों को रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता । उल्टा उन्हें लगता, तुजुम सर तो अभी हँस पड़ेंगे । जिस चेहरे पर सदैव हँसी का भाव सजा रहता हो, उस पर रोष या क्रोध जैसा अन्य भाव जँचता नहीं था । सो बच्चे सोचतें कि उनके चेहरे पर उपजा यह अजनबी भाव अभी छू-मंतर हुआ..!!
तो कुछ इस तरह से था हमारा तुजुम सर !
इन दिनों खुशदिल तुजुम सर की खुशी में खुश होने का एक और कारण जुड़ गया-दिल्ली की सैर ! उनके पाँव आजकल जमीन पर नहीं पड़ रहे थें । घूमने का पुराना सपना सच होने जा रहा था । दिल्ली के ख्याल से ही मन मतवाला होकर झूमने लगा । उनकी हसरतों ने उनको पंख पहनाकर, अब तक दसियों बार दिल्ली लिवा आ चुकी थीं । दिल्ली की खुमारी में वह इस कदर चूर कि राह में जो भी मिलता, सबसे दिल्ली की चर्चा करता । दिल्ली में लाल किला है, दिल्ली में कुतुब मिनार है…वगैरह..वगैरह ।
बेचारा अपढ़, मामूली देहाती किसान लोग ये नाम पहली दफा सुन रहे होतें…वे अचरज में पूछतें-
“ क्या ये दिल्ली के बाजारों नाम हैं ?”
तुजुम सर गर्व से अपने सिर को झाड़ते हुए कहता-
“ छोड़ो जाने दो, यह हाई लेबल बातें हैं !”
घर पर भी उनकी इस सनक के शिकार सब !! बेटी से बोलकर नीला ‘तांगो’ को बीसियों बार धुलवाई । पत्नी से आसमानी रंगों वाला ‘लुरुम’ के बीच-बीच में लाल और सफेद मनके टँकवाई । जंगली सुअरों के बालों से विभूषित ‘बोपा’ को खुद अच्छी तरह से धो-पोंछकर धूप दिखा दिया ।
तुजुम सर ने डांस टीम में अधिकांश उन महिलाओं को चुना, जो कभी किसी रोज अरुणाचल से बाहर गई हो । जिसे बाहरी दुनिया के सफ़र का हल्का अनुभव हो । इससे तुजुम सर को भी यात्रा में थोड़ी सहूलियत हो जाती ।
टीम की एक महिला के बच्चा को ख़सरा हो गया । बीमार बच्चा को छोड़कर, इतनी दूर यात्रा और वह भी लम्बे समय के लिए..! आखिर माँ का दिल था, मानता कैसे । इसलिए मजबूरी में उसे टीम से अलग होना पड़ा । उसके बदले टीम में यालेक को रख लिया गया । भारी शरीर के कारण, किशोर उम्र की यालेक अपनी उम्र से काफी बड़ी दीखती थी । वह तो जब बात करने के लिए वह अपना मुँह खोलती, तब उसके लड़कपन का अंदाजा होता । वर्ना ‘डग्ला’ में वह बिल्कुल प्रौढ़ा दीखती ।

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रोजाना स्कूल के फील्ड पर डांस का अभ्यास होता था । आज अभ्यास का अंतिम दिन था । यालेक हाँफती हुई स्कूल पहुँची । उस पर नज़र पड़ते ही तुजुम सर की त्यौरी चढ़ गई-
“ तुम्हें शरम आना चाहिए, सबसे छोटी हो और सबसे देर से आती हो । ऐसा नहीं चलेगा । बल्कि बड़ों के आने के पहले छोटों को हाजिर हो जाना चाहिए ।“
“ चलिए आपने तो माना कि मैं छोटी हूँ । घर में ‘मुइ’ मुझे बड़ी होने का ताना मारती रहती है ।“
छोटी कहे जाने पर यालेक को अच्छी लगी ।
“ अपनी बक-बक बंद करो, जाओ अभ्यास में लग जाओ ।“
अंतिम वाक्य बोलते-बोलते तुजुम सर की आवाज गले में ही फँस गई और उन्होंने खाँसकर गला साफ किया । यालेक की हँसी छूटते-छूटते रह गई, सोचा तुजुम सर को सही तरीके से गुस्सा जताना भी नहीं आता । काश कोई इनको ठीक ढंग से गुस्सा करना सिखाए !
अभ्यास बहुत देर तक चला नहीं । भोले-भाले लोगों की सहज, सरल, सीधी नृत्य मुद्राएँ थीं । मन जैसा मुद्राएँ वैसी !! जटिल मुद्राओं को साधने में न वक्त लगता ।
महिलाएँ आराम फरमाने के मकसद से, वहीं मैदान पर पैरों को पसारकर बैठ गईं । तुजुम सर उनके बीच आकर खड़ा हुआ और जोशीले स्वर में कुछ इस तरह आह्‌वान करते हुए कहा, मानो कोई योद्धा अपने लड़ाकूओं को करता हो-
“ आप सब ध्यान से सुनिए । हमारा दिल्ली कूच करने का समय आ गया है । इतने दिनों से हमें जिस घड़ी की प्रतीक्षा थीं, आखिरकार वह आ गई है । सब अपना कमर कस लो, हमें वहाँ अपने कला का जौहर दिखाना होगा । मुझे मालूम है, आप लोग पहली बार दिल्ली जा रहे हैं । चिंता वाली कोई बात नहीं, मैं भी पहली बार जा रहा हूँ । लेकिन हमें वहाँ इस तरह दिखाना होगा, जैसे हम दस-पंद्रह बार दिल्ली आ चुके हैं । दिल्ली वालों को कहीं से भी यह नहीं लगना चाहिए कि हम देहाती हैं, हम गँवार हैं । याद रखो हमारे प्रदेश का मान-सम्मान हमारे हाथों हैं । वहाँ आप लोग ऐसे नाचेंगे कि दिल्ली वाले, आपके साथ थिरकने को विवश हो जाय । घबराइए नहीं, वहाँ जीत हमारी ही होगी । दिल्ली वालों को हम धूल चटाकर आयेंगे ।
जिला मुख्यालय जीरो से, हमें लेने के लिए राज्य परिवहन की बस यहाँ पहुँच चुकी है । कल सुबह हम सबको निकलना है । बस हमें दोपहर तक लखीमपुर पहुँचा देंगी । शाम को लखीमपुर से ट्रेन है । अब आप लोग घर जाइए, आज रात अच्छी नींद लीजिए । कल सवेरे मुलाकात होगी ।“
देश की राजधानी दिल्ली की अहमियत को महिलाएँ कितना जानती थीं या नहीं, मालूम नहीं…लेकिन तुजुम सर का जोश, ओज और उतावलापन देखकर महिलाएँ उत्साहित तो जरूर हुईं । यानि जोश को जोश मिला । उनके ओजस्वी भाषण की समाप्ति पर महिलाओं ने खूब टालियाँ भाँजीं । और तुजुम सर सिर तानकर क्लास की ओर मुड़ गया, मानो दिल्ली वाला जंग इधर स्कूल के मैदान में फ़तह कर लिया हो ।
वह रात तुजुम सर ने बड़ी बेचैनी में काटा । अपनी टीम को अच्छी नींद लेने को कहकर, खुद पूरी रात करवटें बदल-बदलकर गुजारा । कब सुबह होगी, कब दिल्ली के लिए रवाना होगा…यहीं सोचता रहा । रात बहुत काली और लम्बी जान पड़ रही थी । दरवाजा खोलकर पूरब की दिशा में टकटकी लगाता, कब पर्वतों के पीछे से झांकता हुआ सूरज का दर्शन होगा । जंगल से कोई अनाम जानवर चिंघारता, तो वहम हो जाता कि मुर्गे ने बाँग दे दिया । हाथ में बंधी घड़ी को कान के समीप लाकर, यह ताकीद करता कि चल रही है या नहीं । वह तो परेशान था ही, साथ में पत्नी भी परेशान-
“ सो जाओ, सुबह होने में अभी बहुत वक्त है ।“
“ फूहड़ औरत ! पति दूर सफ़र पर निकल रहा है । यह भी न सोचा सही-सलामत लौट आने के लिए थोड़ी दुआ भी माँग लिया जाय । बस सोने की पड़ी है ।“
सुबह होना, सो हुई ! सूरज को अपने नियत समय पर उगना, सो उग आया ।
स्कूल के मैदान पर गाँवबूढ़ा के साथ पूरा गाँव पहुँच गया, तुजुम सर की टीम को विदाई देने । गाँवबूढ़ा अपने साथ ‘न्यीब’ को भी लेता आया था । निर्विघ्न यात्रा के लिए ‘न्यीब’ ने मंत्र-पाठ करके टीम के हरेक सदस्य के ऊपर फूँक मारा ।
तुजुम सर ने खास तौर पर ‘न्यीब’ से इसरार किया कि राज्य परिवहन की जर्जर, चरमराती…चिर-परिचित नीली रंग की बस पर भी कुछ मंत्र झाड़ दें । शायद उनको यह उम्मीद जगी हो, ‘न्यीब’ के मंत्रोच्चार से खटारा बस फर्राटे से दौड़ लगाती हुई, समय से मंजिल पर पहुँचा देगी । वर्ना यह बस समय पर किसी सवारी को गंतव्य तक नहीं पहुँचाने के लिए कुख्यात है ।
और महिलाओं को विश्वास था पहाड़ों के सर्पीली रास्तों के खतरनाक मोड़ों पर मंत्र उनके लिए रक्षा कवच का काम करेगा । आज तक का रिकॉर्ड बतलाता है, यह बस चलती कम…पहाड़ी खड्डों में लुढ़कती ज्यादा थी ।
जैसे ही टीम बस पर चढ़कर, सीटों पर जम गईं । काले-काले धूँए का बादल उड़ाती हुई चल पड़ी बस । डीजल से गंधाता सारा सीट ! सीट तो केवल कहने भर के लिए था, लोहे की हड्डियों का ढाँचा कहना ज्यादा मुफ़ीद होगा । चंद मिनट के लिए भी, इन सीटों पर बैठे रहने का मतलब था…शरीर के कल-पुर्जों का टूटकर-फूटकर अपने जगह से खिसक गिर पड़ना..!
तुजुम सर बीच-बीच में अपने सीट से उठकर सबका हाल-चाल पूछ रहा था । यालेक का मन उचटा हुआ था । अभी से ही घर की याद सताने लगी । घर पर ‘मुइ’ का गाली और फटकार सुनकर सौ बार घर छोड़ भाग जाने की कसमें खाई थी । मगर अब उसी ‘मुइ’ की सबसे ज्यादा याद आ रही थी । उसका खिन्न मुँह देखकर तुजुम सर उसके बगल में बैठ गया-
“ न इस तरह उदास नहीं होते, बताओ क्या हुआ ?”
लरजती आवाज में यालेक बोली-
“ घर की याद आ रही है…”
“ तुम पहली बार कस्बे से बाहर जा रही हो न, इसलिए । पर तुम अकेली कहाँ हो ! देखो हम सब हैं । सारे लोग तुम्हारा खास ख्याल रखेंगे । आखिर तुम सबसे छोटी जो हो !”
तुजुम सर के स्वर में रूई की सी नम्यता थी । आत्मीयता के दो बोल से यालेक की घबराहट शनै: शनै: पिघलने लगी । जंग खाई खिड़की का शीशा खोलने में तुजुम सर ने मदद किया, यालेक बाहर के नज़ारों में खो गई । पेड़, टीलें, पहाड़, झरनें सब गाड़ी की उल्टी दिशा की ओर भागे जा रहे थें । ज्यों-ज्यों कस्बा पीछे छूटता जा रहा था, त्यों-त्यों यालेक की पीड़ा घनीभूत हो रही थी ।

जिस बात का डर था, वहीं हुआ ।
किमिन पहुँचने से पहले ही बस में खराबी आ गई । अब तनाव के मारे तुजुम सर का ब्लड-फ्रेशर हाई..!! जी घबराया, माथा चकराने लगा, आँखों के आगे अंधेरा छा गया । समय पर नहीं पहुँचे तो ट्रेन हाथ से निकल जायेगी, फिर दिल्ली यात्रा का क्या होगा ?? घूमने का सपना क्या कभी फलीभूत नहीं होगा ? खैर ! किसी तरह से अपने आपको संभालते हुए ड्राइवर से मिन्नतें किया-
“ कुछ भी करके हमें समय से पहुँचा दो ।“
मगर गाड़ी एक बार बैठ गई तो बैठ गई, मानो कोई बिगड़ैल खूसट बुढ़िया हो…जो सिर्फ़ अपनी सुनती हो दूसरों की नहीं । लाख जतन के बाद भी स्टार्ट नहीं हो रही थी । इंतजार की घड़ी लम्बी खींचने लगी, तो तुजुम सर की मिन्नतें गुस्से में बदल गया-
“ सफर के शुरू में एक बार गाड़ी की हालत तो जाँच लेनी चाहिए थी, तब गड़बड़ी का पता चल जाता तो वहाँ जीरो के गैरेज में ठोंक-पिटवा लेतें । नाकारा ड्राइवर कहीं का..!”
ड्राइवर ने पलटकर वह जवाब दिया कि पल भर के लिए, तुजुम सर लाजवाब हो गया-
“ गाड़ी बीस साल पुरानी है । सरकार अगर नीलामी भी करेगी न, कोई कबाड़ वाला भी इसको हाथ लगाना पसंद नहीं करेगा । यह तो मैं हूँ, जो गढ्ढों भरी पहाड़ के जोखिम रास्तों में बरसों से दौड़ा रहा हूँ ।“
तुजुम सर को जैसे सांप सूंघ गया हो, उसकी चुप से ड्राइवर की हिम्मत और बढ़ी-
“ देखिए सर, खस्ताहाल गाड़ी की कल-पुर्जें टूटते और जुड़ते रहते हैं । यह कोई निराली बात नहीं है ।“
“ अभी कौन सा पुर्जा टूटा है ?”
“ छोड़िए सर, आपसे क्या मैकेनिकगिरी करायेंगे ! टूटा है न जुड़ जायेगा ।“
“ इतनी आसानी से कह दिया ! अपने बड़े साहब से शिकायत क्यों नहीं करते, यह तो सवारियों के जिंदगी के साथ खिलवाड़ है ।“
“ क्या बात कही ! शिकायत करके हमें नौकरी से थोड़ी बाहर होना है । वैसे आप तो पढ़े-लिखे है, आप क्यों नहीं अर्ज़ी डालते नयी गाड़ी के लिए ?”
ड्राइवर का तेवर और साहस, दोनों बढ़ता जा रहा था ।
“ बात तो तुम सही कर रहे है, लेकिन यह वक्त बहस का नहीं है । कोई उपाय सोचो ।“
“ अब इस जंगल में कहाँ से कोई उपाय मिलेगा, हाँ एक उपाय है…”
“ क्या..?
“ इंतजार ! इंतजार के सिवा उपाय नहीं । इंतजार करें, कोशिश तो मैं कर ही रहा हूँ ।“
ड्राइवर ने बेरूखी में कहा ।
गाड़ी के मरम्मत से हाथों में कालिख पुत गया था, उसने मैली चिथड़ानुमा गमछा से हाथों को पोंछा । उसी गमछा से अपने पूरे बदन को जोर-जोर से झाड़ा, जैसे शरीर की सारी थकान झाड़ रहा हो ! बीड़ी सुलगाकर तीन-चार लम्बा कश खींचा और अपने को फिर मरम्मत के काम में वापस झोंक दिया ।
ड्राइवर पर उसके गुस्से का कुछ असर नहीं हुआ, इस बात से तुजुम सर दिल ही दिल में झल्ला रहा था…बेकार अपना खून जलाया !! वैसे तुजुम सर गुस्सा कहाँ होते है, वह तो मात्र गुस्सा होने का नाटक करते है । एकाएक वह आवाज आई, जिससे सुनने के लिए उसका कान तरस रहा था । गड़गड़ाहट के साथ गाड़ी स्टार्ट हो गई । तुजुम सर कल्वर्ट पर चढ़ा बैठा था, सुनते ही अति उत्साह में कल्वर्ट से खाई की ओर कूदने वाला था । वह तो भला हो ड्राइवर का, जिसने उसे ऐन समय पर रोक लिया ।
टीम की महिलाएँ टहलती हुई, कुछ दूर निकल गई थीं…पहाड़ी झरना में हाथ-मुँह धोकर तरोताज़ा होने । उन लोगों को वापस बुलाने के लिए तुजुम सर, उल्टे पाँव दौड़ पड़ा ।

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यात्रियों के स्वागत में ऊंघता और झपकी मारता, लखीमपुर का सादा और छोटा सा रेलवे जंक्शन । ट्रेन पटरी पर लग चुकी थी । गनीमत थी कि खंडहरनुमा बस ने वक्त रहते, तुजुम सर की टीम को मंजिल पर पहुँचा दिया । उन्होंने सारी महिलाओं को सीटों पर बिठाने के बाद दम साधा । वर्ना ट्रेन छूट जाने के डर से, पूरी बस यात्रा के दौरान…उसका प्राण सूख रहा था । अब जाकर विश्वास हुआ, आखिरकार ट्रेन पर पूरी टीम लद गई । वह ट्रेन के बर्थ को इस तरह छू-छूकर देख रहा था, जैसे कोई खोया हुआ वस्तु सालों की प्रतीक्षा के बाद मिली हो ।
दरवाजे के बिल्कुल नज़दीक तुजुम सर और यालेक का सीट था ।
सीटी बजी और ट्रेन ने आहिस्ता-आहिस्ता रफ़्तार पकड़ी । तभी अचानक दरवाजा पर एक जवान हड़बड़ाता, भागा-भागा कूदता हुआ चढ़ा । इस अफ़रा-तफ़री में उसका पैर पिसल सकता, लेकिन तुजुम सर ने उसका बाह पकड़कर अंदर खींच लिया था ।
उसके हाथ में छोटा सूटकेस था । हुलिया बता रहा था आर्मी का जवान है, क्योंकि बदन पर आर्मी का युनिफॉर्म था । सिर पर सुंदर कलफदार पगड़ी, भूरी..उद्दीप्त..नूरानी आँखें, सुडोल नुकीली-ऊँची नाक, पतली गलियों सी होंठों के ऊपर बिछी काली, घनेरी मूँछें ! करीने से सँवारी मूँछों के बाल होंठों के किनारों से ऊपर की तरफ मुड़ा हुआ था । मूँछों की कटाई-छटाँई यानि की बनावट में ग़जब का सम्मोहन और आकर्षण था ! मूँछें चमकदार थी, शायद तेल-वेल मला हो ।
वह दरवाजे के सामने वाले साइड लोअर सीट के नीचे, सूटकेस को भीतर सरकाने के बाद सीट पर बैठ गया । ट्रेन की गति बढ़ती जा रही थी । तुजुम सर अपने सीट पर बैठ कम, उठ ज्यादा रहा था । महिलाओं की छोटी-मोटी दिक्कतों को सुलझाकर, वापस सीट पर लौट आ जाता । इस वज़ह से आर्मी जवान को शायद ग़लतफहमी हुआ कि तुजुम सर का कोई स्थायी सीट नहीं है-
“ क्या यह आपका सीट नहीं है ?”
“ नहीं..नहीं..सीट मेरा ही है । असल में मेरे साथ पूरी टीम है । टीम का लीडर हूँ न, इसलिए किसी को कठिनाई न हो, उठकर बार-बार देखना पड़ता है ।“
“ अच्छा, अच्छा !”
आर्मी जवान ने पूरे माज़रे को समझने के बाद कहा । उसने महसूस किया, इस अल्प बातचीत के दौरान दो आँखें उसे फाड़-फाड़कर देख रही थीं । तुजुम सर से नज़रें हटाकर, उन छोटी-छोटी घूरतीं आँखों की ओर नज़रें मिलाईं । दो जोड़ी आँखें परस्पर टकरा उठीं..!! यालेक एकदम ताज्जुब हो गई । उसकी अचकचाहट को भाँपकर आर्मी जवान ने नज़रें फेर लिया ।
चायवाला चाय की हाँक लगाता हुआ, डिब्बे में घुसा । आर्मी जवान ने चायवाला को पास बुला लिया । उसको चाय दिया, चाय का मोल लेकर चायवाला चलता बना । गर्म भाप उड़ाती चाय को अपनी महीन लकीर सरीखी होंठों से फूंककर वह हलक के नीचे उतारने लगा ।
यालेक ने अपनी नीची नज़रों को चुपके से उठाकर, आर्मी जवान की कमीज़ के जेब के ऊपर टंगा नेमप्लेट की ओर ताका । नेमप्लेट पर सुस्पष्ट और सुलेख अक्षरों में एक नाम गुदा हुआ था । यालेक ने नेमप्लेट पर लिखे नाम को तीन हिस्सों में तोड़कर पढ़ा-
पर..मिन्..दर !
दूसरी कोशिश में पूरा पढ़ गई-
‘परमिंदर..’
अच्छा तो इसका नाम ‘परमिंदर’ है !
परमिंदर यालेक की नज़रों की करतूत से अनजान, सिर को हल्का झुकाए बैठा था । कुछ अपनी लम्बाई और कुछ पगड़ी के कारण, कमर को सीधा तानकर बैठने में समस्या आ रही थी । बहुत संभलकर बैठने के बाद भी सिर ऊपर के बर्थ से टकरा जाता ।
चाय खत्म करके, दोनों हाथों को फैलाकर परमिंदर ने जोर से अंगराई लिया और सीट पर चौड़ा होकर लेट गया । तुजुम सर फिर उठकर चला गया । कोई यात्री उसे ट्रेन में भटकती आत्मा का खिताब दे भी दे, कोई ग़लत नहीं होगा ।
परमिंदर छत की शून्यता को बेफिक्री में निहार रहा था, मगर यह बेफिक्री ज्यादा देर तक टिक नहीं पाई । लगातार दो आँखें उसे कनखियों से देखे जा रही थीं, इस अहसास से परमिंदर जरा असहज हुआ । उसने अपने आपसे सवाल किया-
“ क्या मेरी शक्लों-सूरत किसी से मिलती है ? शायद उस लड़की के किसी जान-पहचान से ? क्या मेरे चेहरे में वह किसी अपने को तलाश रही है ? मुमकिन है..दुनिया में काफी लोगों की शक्लें मिलती हैं । रब भी इंसान बनाते-बनाते, हू-ब-हू वहीं नैन..नाक-नक्श किसी और को बख्श दिया हो ! रब के कारखाने का एक पीस मैं हूँ, हो सकता दूसरा पीस इस लड़की ने कहीं देखा हो । चंगी बात है..!”
इसी उधेड़बुन में उसकी नज़रें छत से फिसल खाती हुईं, यालेक के नज़रों से भिड़ गईं । यालेक एक बार फिर बुरी तरह सकपका गई, मानो किसी ने दबे पाँव आकर पीछे से दबोच लिया हो ! अपनी झेंप दूर करने के लिए उसने शॉल से मुँह ढक लिया । तुजुम सर अपनी गश्ती से लौट आया था । उनको वापस सीट पर देखकर परमिंदर बोला-
” ठीक हैं सब ?”
” हाँ..हाँ, सब सो गईं ।”
” अब तो थोड़ा सुस्ता लें आप ।”
परमिंदर ने सलाह देते हुए कहा ।
” बिल्कुल, बिल्कुल ! अच्छा आप जा कहाँ रहे है ?”
” रंगिया ।”
” ओह ! रंगिया तो पास ही है, मैं टीम को लेकर दिल्ली जा रहा हूँ ।”
तुजुम सर ने जानबूझकर दिल्ली शब्द पर जोर डाला ।
“ वैसे मैं चंडीगढ़ जा रहा हूँ, रंगिया से अगली ट्रेन पकड़नी है ।“
“ ओह आई सी ! वण्डरफुल !”
तुजुम सर ने एक फीकी खुशी व्यक्त किया ।
“ अच्छा..आप लोग दिल्ली किस काम से जा रहे हैं ?”
“ सेंट्रल गवर्न्मेंट हेज इन्वाइटेड अस फॉर कल्चरल प्रेजेंटेशन ऑन रिपब्लिक डे । दैट्स वाई वी आर गोइंग ।“
“ बहुत बढ़िया, मुबारका !”
“ यू नो इट्स अ ह्युज रेस्पोंसबिलिटी, अवर स्टेट्स रेप्युटेशन इज एट स्टेक !”
“ मैं समझ सकता हूँ, ऑल द बेस्ट !”
“ थैंक्यू..थैंक्यू, वी विल परफॉर्म अवर बेस्ट ।“
तुजुम सर विश्वास से भरकर बोला ।
यालेक तुजुम सर की अंग्रेजी सुनकर मन के अंदर मुस्कुरा रही थी । अंग्रेजी के टीचर होते हुए, तुजुम सर क्लास में कहाँ अंग्रेजी बोल पाता था । बच्चे अंग्रेजी समझते ही नहीं, अंग्रेजी उनके लिए दूर की कोड़ी थी । अपनी ओर से तुजुम सर ने बच्चों को अंग्रेजी सिखाने का भरसक प्रयास किया जरूर, मगर बच्चे उनसे जरूरत से ज्यादा हिले-मिले थें, इसलिए उनके पाठ को तवज्जो नहीं देते थें ।
मजबूर होकर अंग्रेजी विषय को अपनी बोली में पढ़ाना-समझाना पड़ता था और जो गैर स्थानीय बच्चे थें उनको हिंदी में समझा-बुझाकर काम चला लेता । कोई दूसरा टीचर होता तो डंडे की चोट पर अंग्रेजी सिखला देते, संभव है बच्चे मार के डर से सीख भी जाते ।
पर तुजुम सर और डंडा..नहीं..नहीं ! अपना तुजुम सर तो अहिंसक ठहरा । भले ही बच्चे ए फॉर एप्पल के बजाय ए फॉर आइसक्रीम कह दे, तुजुम सर कभी हाथ नहीं उठायेगा । हाँ..अधिक से अधिक बच्चे को झिड़क सकता था । वैसे भी उनका पाला बड़े बच्चों से पड़ता था, छोटों से नहीं ।
यहाँ ट्रेन में अंग्रेजी झाड़ने का जब मौका मिल रहा था, तो तुजुम सर अपना मन का भड़ास मन में क्यों रखने लगा । इसलिए दिल खोलकर अंग्रेजी बघार रहा था, बहुत मुमकिन है…अपना अंग्रेजदाँ मन को तसल्ली पहुँचा रहा हो..!

ट्रेन एक बियाबान जगह पर रूक गई । शायद ट्रेक बदलने वाली थी । ट्रेन रूकी रही । लगता है जिस ट्रेक पर चढ़ना हो, वहाँ पहले से कोई दूसरी ट्रेन चली आ रही हो । इसका मतलब दूसरी ट्रेन के रास्ता देने के बाद ही यह ट्रेन आगे बढ़ेगी ।
परमिंदर दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया । ठंड हवा बह रही थी । चाँद के शीतल बारीक उजाले में, उसकी मूँछों के बाल और सघन हो गया । परमिंदर ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला, और कुछ सोचता हुआ सिगरेट जलाया । एक सुट्ठा खींचकर धुँआ को आसमान की तरफ उछाला ।
आसमान पर टँगा चाँद हौले-हौले हवा के संग डोल रहा था । चाँद के चारों ओर इंद्रधनुषी घेरा बना था । जादुई नज़ारा..! सफेद गोल-गोल चंदा और उसके बहुरंगी झालर ! हाँलाकि दिन में ये सातों रंग प्रखर रूप में दिखलाई पड़ता है, रात को तो मात्र झलक भर मिल रहा था । रात की नीरवता का लुफ़्त उठाते हुए परमिंदर ने सोचा, क्या वह अब भी देख रही होगी ! चोर आँखों से उसने एक बार यालेक को देखा । हाँ बेशक…खुलकर न सही, मगर दबी आँखों से वह उसे ही देख रही थी । वापस देखने का साहस न हुआ…क्योंकि परमिंदर जानता था, ऐसा करने पर वह घबड़ा जायेगी ।
हल्के धक्के के साथ ट्रेन स्टार्ट हुई ।
ट्रेन के स्पीड पकड़ने से, हवा का मंद बहाव तेज हो गया । परमिंदर थोड़ी देर और दरवाजे के करीब खड़ा रहना चाहता था, पर सर्द हवा सूई बनकर बदन को चुभो रही थी । डिब्बे के भीतर निरंतर अपने ऊपर चिपकी दो आँखों से, उसे बेचैनी हो रहा था । उधर अंदर दम घुटा-घुटा सा महसूस होता था, इधर द्वार पर खुला-खुला और उन्मुक्ति का एहसास था । पर यहाँ खड़ा रहने का भी क्या फायदा..! नज़रें तो यहाँ तक पीछा नहीं छोड़ रहीं । बाहर खड़ा होने का जब कोई तुक हाथ नहीं लगा, वह भीतर सीट पर लौट आया ।
तुजुम सर ने आत्मीयता भरा स्वर में कहा-
“ वाई डोंट यू स्लीप फॉर अ वाइल ? ट्रेन स्लो है ।“
इस पर परमिंदर ने सवाल किया-
“ आपकी टीम के सारे लोग तो सो गये होंगे ?”
“ यस..यस..लॉन्ग बिफॉर ।
अब असल सवाल पर आते हुए परमिंदर पूछा-
“ ओके..आपकी साथ वाली लड़की क्यों नहीं सो रही ? क्या उसको नींद नहीं आ रही ?”
तुजुम सर हँसकर-
“ ओह यू मीन यालेक ! वह आज बस में बहुत सोई, सो नाउ शी इज नॉट स्लीपी एट ऑल ।“
हम्म ! तो यालेक नाम है लड़की का । परमिंदर के भीतर उत्साह का हल्का सा लावा फूटा ।
“ वॉट आर यू थींकिंग सो सीरियसली ?”
तुजुम सर के इस प्रश्न से वह धीरे से चौंक पड़ा, ऐसा लगा कुछ चुराते हुए पकड़ा गया हो ।
हकलाकर कहा-
“ ए..ए..एक्चुली दिज नेम्स आर बिट स्ट्रेंज फॉर मी । इसलिए नाम याद रखने की कोशिश कर रहा हूँ ।“
तुजुम सर ने तरकीब सुझाने के लहजे में कहा-
“ ओके नॉट अ बिग प्रॉब्लम ! नाम याद रखने का सबसे आसान तरीका, मैं बतलाता हूँ । नाम का मीनिंग याद कर लो, नाम खुद-ब-खुद याद आ जायेगा । यालेक का मतलब होता है..जिद्दी ! नाउ यू विल नॉट फर्गेट, आई होप सो ।“
परमिंदर रजामंदी में-
“ नो..नो..नेवर !”
अपने बारे में चर्चा किए जाने पर, यालेक शर्मा उठी । गोरे-गोरे गालों पर सुर्खियाँ छा रही थी । जिसे छुपाने के लिए अपनी जुल्फ़ों को ओढ़नी बनाकर गालों से लपेट लिया । पर गालों की लालिमा, परमिंदर से छुपी नहीं थी, उसने हया का सुर्ख रंग देख ही लिया ।
“ एक्सक्युज मी” कहकर परमिंदर टॉयलेट जाने के लिए उठा ।

टॉयलेट का दरवाजा, उसने अतिरिक्त सावधानी से बंद किया । दो-तीन दफा चटखनी अच्छी तरह से लगाया, लेकिन तब भी एक आशंका मन में बनी रही । वापस दोबारा-तिबारा चटखनी को चेक करता रहा । उसे वहम होने लगा, वे टोह लेती आँखें दरवाजे के सुराख से देख न रही हो ।
टॉयलेट से लौटकर थोड़ा झपकी लेने के इरादे से, वह सीट पर लेट गया । मुँदी आँखों में फिर वहीं उसकी सुगबुगाती, झिलमिलाती, हँसती, शरारती आँखें दीखीं । चंचल, नटखट, सवालिया नज़रें कुछ पूछना चाहती हों..कुछ बोलना चाहती हों ! लेकिन क्या, क्या कहना चाहती हैं ??
दो प्यारी-प्यारी आँखें परमिंदर के नज़रों के रास्ते दाखिल होती हुईं, उसके दिल-दिमाग़ और समूचे वजूद पर चिपक गईं । बेबस परमिंदर पूरी तरह इन आँखों के वश में, गिरफ़्त में था । थरथराते लबों से परमिंदर बस इतना ही बोल पाया-
“ तुम्हारे नाम की तरह, तुम्हारी आँखें भी बहुत जिद्दी हैं !!”
उसके बाद धीमी खर्राहटों का स्वर गूंजा, परमिंदर सो गया था ।

तुजुम सर ने परमिंदर को जगाते हुए बोला-
“ रंगिया आने वाला है, कम ऑन गेट अप ।“
परमिंदर मधुर नींद से जगा और सीट के नीचे से सूटकेस को निकाला । अपनी पगड़ी ठीक किया, उसके बाद सूटकेस लेकर दरवाजे के नज़दीक खड़ा हो गया । तुजुम सर गुडबाय कहने के लिए उसके पास आया-
“ आप उतर जाय, इससे पहले आपसे कुछ जरूरी बात करना चाहता हूँ । यालेक ने कहा…उसके कारण आपको असुविधा हुई हो, दैन शी इज वैरी सॉरी फॉर दैट । मुझे पता है जब से आप ट्रेन पर चढ़ा, यालेक आपको अपलक घूरे जा जा रही थी, मैंने पूछा भी…”
“ क्या कहा उसने ??”
परमिंदर ने अधीर होकर पूछा । अपनी अधीरता पर थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुआ ।
“ वह बोली आपकी जैसी सुंदर मूँछें, उसने पहले कभी नहीं देखा । एक्चुली हम जिस समाज से आते हैं, वहाँ आमतौर पर मर्दों की इस तरह की मूँछें नहीं होतीं । लम्बी ढाढ़ी रखते हैं, या फिर बिल्कुल छोटी मूँछें ! आपकी जैसी लम्बी और सजीली मूँछें नहीं । ऐसी मूँछें यालेक ने टी.वी. पर सिर्फ़ फिल्मी हीरो के देखे है ।“
अब शर्माने की बारी परमिंदर की थी ।
“ प्लीज यू से गुडबाय टू हर ।“
कहता हुआ तुजुम सर अंदर से यालेक को ले आया । यालेक सकुचाकर उसके कान में फुसफुसाती हुई कुछ बोली । तुजुम सर ठठाकर हँस पड़ा । इससे पहले परमिंदर कुछ समझ पाता, तुजुम सर ने कहा-
“ इफ यू डोंट माइंड, यह आपकी मूँछ एक बार छूकर देखना चाहती है ।
“ माई प्लेजर..!”
परमिंदर ने इजाजत दिया ।
यालेक ने लाज भरी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों को परमिंदर की मूँछों पर फेरा । मूँछों को सहलाया, धीरे से खींचा ! मूँछों के कड़क बालों को ऊँगलियों में दबाकर थोड़ा सहलायी और रगड़ा भी । उसकी आँखें आनंदारितेक में अपने आप बंद हो गईं-
“ नम रसाप !”
“ क्या बोली ??”
पूछ बैठा परमिंदर ।
यालेक ने शब्दों को दोहरायी-
“ नम रसाप..”
इस सवाल-जवाब के बीच, तुजुम सर से उत्तर आया-
“ नम रसाप का अर्थ है, घनी मूँछों वाला..!”

ट्रेन पुन: रूकी । टी.टी.ई. ऊँचे सुर में यात्रियों से कह रहा था…’रोंगिया पाइसे, रोंगिया पाइसे’ । परमिंदर सूटकेस थामकर उतर गया । आखिरी बार यालेक को भरी-भरी नज़र से देखा । जिस हाथ में सूटकेस नहीं था, उस हाथ से अपनी मूँछों को ऊपर ऐंठा और यात्रियों के भीड़ में अंतर्धान हो गया ।

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