नालंदा को देखकर
किसी भी भाषा की किसी किताब को
एक ही स्वाद से खाते हैं
दीमक,चूहे और तिलचट्टे।
नष्ट होते अक्षर, शब्द, इबारतें और पृष्ठ
सहते हैं जुल्म उनका होकर निश्शब्द।
यह जाते हैैं शेष कुछ नष्ट/कुछ भ्रष्ट
किताबों के अवशेष।
मगर इसके उलट
किसी लेखक की लायब्रेरी
चीन्ह-चीन्ह जलाते हैं
असहमत लोग।
उसका नामोनिशान मिट जाने तक
बजा देते हैं उसके मकान की ईंट से ईंट
जब तक वह जमींदोज नहीं हो जाता।
पहले से ही पकी
उस मकान की दीवार की कोई भी ईंट
उस ज्ञान-विज्ञान के शत्रु
अनपढ़ के हाथ लगने के बजाय
चटक और छिटक जानी चाहती है
और कर देती है पद्मिनी की तरह
जौहर दिखा अपने आपको
उसी अग्नि के हवाले।
ज्ञान-विज्ञान के केन्द्र
विश्व विद्यालयों के खड़े हैं यों
बुद्ध और महावीर की धरती पर
जैसे अहिंसा पूछ रही हो बार-बार
कि कब तक चलेगा उसकी छाती पर
हिंसा और प्रतिहिंसा का भयावह खेल।
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+++ वीरेंद्र प्रधान+++
जयराम नगर कालोनी
शिव नगर,
रजाखेड़ी, सागर (म प्र)