गंडई का भाड़ देऊर शिव मन्दिर
भोरमदेव क्षेत्र के फणि नागवंशियों के पुरातात्विक साक्ष्य समीपवर्ती क्षेत्रों में काफी दूर तक फैले हुए हैं। ये साक्ष्य मुख्यतः मैकल पर्वत श्रेणी के समानांतर फैले हैं।भोरमदेव को केंद्र माना जाय, तो इसके उत्तर में पचराही तक, दक्षिण में घटियारी, गंडई से खैरागढ़-राजनांदगांव तक उनके शासन के अवशेष मिलते हैं। इन अवशेषों में मुख्यतः मूर्तियां,प्रस्तर खंड तथा मन्दिरों के अवशेष हैं।
गंडई-घटियारी में घटियारी का भग्न शिव मंदिर अपनी पूर्णता में भव्य रहा होगा।आस-पास के गांवो में प्रस्तर खण्ड और मूर्तियां बिखरी हुई हैं। घटियारी का मन्दिर शिल्प और स्थापत्य में 11-12वी शताब्दी का प्रतीत होता है। यह मंदिर फणि नागवंश के तत्कालीन शासक अथवा उसके किसी सामंत द्वारा बनवाया गया होगा। पास ही सहसपुर में फणि नागवंशी शासक यशोराज (जसराज)की मूर्ति प्राप्त हुई है जिससे उसके इस क्षेत्र में प्रभाव का पता चलता है।
इस मंदिर के बारे में हमे प्रारम्भिक जानकारी जेनकिन्स(1825) से मिलती है। उन्होंने अपने सर्वे में मंदिर के बारे में लिखा है ” Out of the village is a Pagoda of Mahadeo, on the gate of which, the name of the five Pandavas are engraved”.
गंडई का शिव मन्दिर शहर के भीतर टिकरी पारा में स्थित है। नागर शैली का यह मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से उच्च कोटि का है। वर्तमान में मंदिर का अधिष्ठान, विमान तथा शिखर विद्यमान है। मंदिर वास्तु से यह पंचायतन शैली का न होकर एकायतन प्रकार का प्रतिभासित होता है। मन्दिर पूर्वाभिमुख है। इस केंद्र से किरातशिव और त्रिपुरान्तक शिव की मूर्ति वर्तमान में महंत घासीदास संग्रहालय रायपुर में रखी है।इस मन्दिर का निर्माता भी फणि वंश का कोई शासक अथवा कोई प्रतिष्ठित सामन्त/अधिकारी होना चाहिए।
मंदिर स्थापत्य [डॉ सीताराम शर्मा के अनुसार]
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इस मंदिर का गर्भगृह पंचरथ प्रणाली का है। प्रक्षेपण का तरंग अधिष्ठान से लेकर आमलक तक है। भूविन्यास की दृष्टि से समूचे मंदिर की लंबाई 18 फीट और चौड़ाई 16 फीट है। भूमिसूत्रीय व्यवस्था मंदिर-अधिष्ठान पर अवलंबित है। अधिष्ठान तीन सज्जा पट्टियों से परिवेष्टित है। इसके ऊपर का भाग विभिन्न मूर्तियों से युक्त है। इनमे तीन मेखला दृष्टिगोचर होती है, जिसके अंदर प्रथम गजथार, द्वितीय हयथार और तृतीय नरथार से युक्त है। नरथार के अंतर्गत सैनिक अभियान का दृश्य अंकित है। गर्भगृह का द्वार-मुख तीन शाखाओं में विभक्त है। प्रवेश द्वार का नीचे एवं ऊपर का भाग अलंकृत मेखलाओं से युक्त है। मध्यभाग दो भागों में विभक्त किया गया है। इसमे विभिन्न देव एवं देवियों की मूर्तियां हैं।
मन्दिर का शिखर नागर शैली का है। गर्भगृह की दीवार सादी है। उसकी दीवार अतिछादन शैली में बनी है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार तीन शाखाओं से बना है, प्रथम शाखा के ललाटबिम्ब पर गणेश की आकृति है। मध्य में शिव का अर्धनारीश्वर रूप अंकित किया गया है। तृतीय शाखा में पंच पांडवों को प्रदर्शित किया गया है। साथ ही द्रोपदी और कुंती को भी अंकित किया गया है। ये सभी शिवलिंग की अर्चना करते हुए दिखाये गए हैं। यहां महत्वपूर्ण दृश्य यह है कि शिवलिंग को महिष के पृष्टभाग में अधिष्ठित किया गया है। पूरे पांडव परिवार का नाम तत्कालीन देवनागरी लिपि में उत्कीर्ण है। लिपि की शैली 12 वी सदी की है। सम्भवतया मंदिर निर्माण का काल उक्त तिथि होनी चाहिए। मन्दिर का आंतरिक गर्भगृह तथा बाहरी प्रांगण भी मंदिर वास्तु के परिचायक हैं। गर्भगृह निरांधार है। इसके अंदर केवल जलहरी विद्यमान है। अंदर की दीवारों में कोई आले नही बने हैं और कमरे का आभास मिलता है। मन्दिर का प्रांगण सपाट है। कोई स्तंभ या अन्य अवशेष प्राप्त न होने से इसके प्रांगण का स्वरूप क्या रहा होगा, इसे स्पष्ट करना कठिन है।
मंदिर स्थापत्य [डॉ पीसीलाल यादव के अनुसार]
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डॉ सीताराम शर्मा ने जो बातें संक्षिप्त और संश्लिष्ट भाषा में कही है, उसे डॉ पीसीलाल यादव ने सरलीकृत ढंग से किंचित विस्तार से कही है।
मंदिर की निर्माण शैली व स्थापत्य की दृष्टि से पुरातत्ववेत्ताओं ने इस मन्दिर को कलचुरी काल में 11वी 12वी शताब्दी में निर्मित माना है। यह मंदिर भोरमदेव मन्दिर का समकालीन है तथा भोरमदेव मन्दिर की तरह भव्य एवं मूर्तिकला की दृष्टि से समुन्नत है। नागर शैली में निर्मित यह पंचरथ प्रकार का व पूर्वाभिमुखी है। इस मन्दिर में महामंडप नही है, किंतु अंतराल का कुछ भाग सुरक्षित है। इससे यह प्रमाणित होता है कि मन्दिर का महामंडप व अंतराल भी भव्य और अलंकरण युक्त रहा होगा। मन्दिर के सम्मुख नंदी की अलंकारिक पश्चिमाभिमुख प्रतिमा स्थापित है। आंशिक रूप से सुरक्षित अंतराल के ऊपर पृथक शिखर स्थापित है। इस शिखर में ज्यामितीय आकृतियां व पुष्प वल्लरियों के साथ नारी मूर्तियां विद्यमान है। शीर्ष में गर्जन की मुद्रा में सिंह विराजमान है, जिसकी भव्यता कला प्रेमियों को सम्मोहित करती है।
ललौहे पत्थर से निर्मित मंदिर का प्रवेश द्वार सर्वाधिक अलंकृत है।प्रवेश द्वार के अधोभाग में प्रस्तर खण्डों पर उत्कीर्ण वादन रत व नृत्य रत नर-नारियों की मूर्तियां हैं। चौखट के चारो ओर सूक्ष्म रूप से उत्कीर्ण लता-वल्लरियाँ अंकित हैं। खड़े चौखटों पर नृत्यरत मयूर शोभायमान है। अधोभाग में गणेश जी व सरस्वती की छोटी किंतु सजीव मूर्तियां हैं।
प्रवेश द्वार के दोनो भाग में भगवान शिव का मानुषी रूप हाथ में त्रिशूल, डमरू, सर्प के साथ प्रदर्शित है। नीचे नंदी विराजित है। अन्य मंदिरों की तरह द्वारपाल के रूप में मकर वाहिनी गंगा तथा कूर्म वाहिनी यमुना का सुंदर सजीव अंकन है। इसी स्थान पर सात-सात की संख्या में नाग कन्याओं की अतिसूक्ष्म आकृतियां अंकित हैं, जो परस्पर प्रत्येक के पृच्छ भाग से गुंफित हैं। द्वार शाखा के सिरदल के मध्य नृत्यरत गणेश उत्खचित है। प्रवेश द्वार के ऊपर की ओर क्रमशः लक्ष्मी, दुर्गा व सरस्वती की मूर्तियां शोभायमान हैं। प्रवेश द्वार के ऊपर भाग में पांडव परिवार द्वारा शिवपूजन का शिल्पांकन अप्रतिम है। महाभारत में स्वर्गारोहण के पूर्व पांडवों द्वारा महादेव के पूजन का प्रसंग मिलता है।पांडव की मूर्तियों के मध्य महिष की पीठ पर शिवलिंग की स्थापना है। दोनों पार्श्व में ऋषिगण पूजा की मुद्रा में हैं। पांडव भ्राता अपने आयुधों के साथ अंकित हैं। यहां देवी द्रोपदी व माता कुंती भी उपस्थित है। नीचे पट्टिका में इनका नामोल्लेख है। माता कुंती का नाम यहां “कोतमा” अंकित है। यहां विचारणीय तथ्य यह है कि कुछ पुरातत्ववेताओं ने महिष मूर्ति को नन्दी माना है। जबकि यह मूर्ति स्पष्टतः महिष की ही परिलक्षित हो रही है। महिष की पीठ पर शिवलिंग की स्थापना और पांडव परिवार द्वारा उसकी पूजा-प्रतिष्ठा कब की गई? यह अन्वेषण का विषय है।
मन्दिर के गर्भगृह में ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित बड़ी जलहरी है, जिसमे शिवलिंग स्थापित है। परंतु यह शिवलिंग मूल प्रतीत नही होता। क्योंकि इसकी आकृति जलहरी के अनुरूप स्वाभाविक नही लगती। शिवलिंग की जलप्रवाहिका उत्तर की ओर है। गर्भगृह की दीवारें सादी, अलंकार विहीन हैं। गर्भगृह की पश्चिमी भित्ति पर आले में करबद्ध नारी प्रतिमा है। लोग जिसकी पूजा पार्वती के रूप में करते हैं। गर्भगृह के चारो कोनो में अलंकृत स्तंभ हैं। तीन भित्तियों पर छः भारवाहकों की प्रतिमाएं हैं। ऊपर का शीर्ष भाग पांच वृत्ताकार भागो में विभक्त है। जो शीर्ष की ओर क्रमशः संकीर्ण होते गए हैं। गर्भगृह के केंद्रीय शीर्ष पर पूर्ण विकसित कमल का अलंकरण है।
मंदिर का अधिष्ठान, जंघा, शिखर व आमलक अत्यंत ही अलंकृत हैं। मन्दिर की जगती भूमि पर ही निर्मित है। अधिष्ठान के प्रथम भाग में ताड़ पत्रों व पत्रावलियों का अलंकरण है। द्वितीय भाग में प्रथम गजरथ है; जिसमें हाथियों को गतिशील मुद्रा में अंकित किया गया है।कहीं हाथी युद्ध की मुद्रा में हैं तो कहीं तरु-पल्लवों के साथ क्रीड़ारत। कुछ दृश्यों में शिकारियों द्वारा हाथियों के शिकार का दृश्य है। गजथर के ठीक ऊपर हय अर्थात अश्वथर है। इस थर में विभिन्न मुद्राओं में अश्वारोहियों को अंकित किया गया है। अश्वारोही हाथ में तीर-कमान, तलवार, भाला आदि धारण किये हुए हैं। अश्वथर में कुछ मिथुन मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। अश्वथर के ऊपर नरथर है। नरथर में स्त्री-पुरुष की विभिन्न भाव भंगिमाओं के साथ-साथ रामायण व कृष्ण लीला से सम्बंधित दृश्यों का शिल्पांकन है। दक्षिण दिशा में कृष्ण द्वारा कालिया नाग का मर्दन, गोवर्धन पर्वत का धारण तथा त्रिभंग मुद्रा में बंशीवादन की मनोहारी दृश्यवालियां है। कुछ मिथुन मूर्तियां भी हैं। पश्चिम दिशा के नरथर में मैथुन क्रिया में रत मिथुन मूर्तियां तथा मल्ल युद्ध आदि का अंकन है। उत्तर दिशा में रामलीला से सम्बंधित चित्रण है। बालि-सुग्रीव युद्ध, बालि-वध, अशोक वाटिका में शोकमग्न सीता, स्फटिक शीला पर बैठे राम लक्ष्मण के सम्मुख करबद्ध हनुमान तथा वानरों का नृत्य संगीत आदि का सहज शिल्पांकन है।
मंदिर के जंघा भाग में स्तंभाकृतियाँ नौ-नौ भागो में विभक्त है। इस भाग में अनेक देवी-देवताओं, दशावतार, जीवन-जगत से जुड़े पहलुओं जैसे- नवयौवना, स्तनपान कराती माता, प्रेमालाप करते नर-नारी, गदाधारी व धनुषधारी सैनिकों की सुंदर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। जंघा में आलों का भी निर्माण हुआ है। जिसमे केवल तीन आलों में काल भैरव, सती स्तंभ व महिषासुर मर्दनी की भव्य मूर्तियां हैं।
मंदिर के शिखर भाग भी अनेक अलंकरणों से परिपूर्ण है। शिखर के निचले भाग में तीनों दिशाओं उत्तर, पश्चिम व दक्षिण में एक-एक मंदिर का शिरांग आमलक कलश निर्मित है; जिनमे मूर्तियों के तीन थार है। अश्वारोही थर, नरथर में कृष्ण की बंशीवादन की तीन मूर्तियां व तृतीय थर में नायिका की दो मूर्तियां है। शिखर के शीर्ष भाग में चारो कोनो में देवपुरुष उत्कीर्ण है। शीश पर पगड़ी बांधे गंभीर भाव लिए ये मूर्तियां भव्य हैं। इसके साथ ही शिखर में ज्यामितीय आकृतियों की बहुलता है। आमलक के ऊपर क्रमशः पांच लघु आमलकों की श्रृंखला के पश्चात प्रस्तर कलश स्थापित है।
डॉ सीताराम शर्मा और डॉ पीसीलाल यादव के आकलन में एक भिन्नता का बिंदु यह है कि, सीताराम शर्मा मन्दिर में सभा मंडप होने की सम्भवना पर जोर नही देते क्योंकि मन्दिर प्रांगण में उसके कोई अवशेष नही दिखाई देते। पीसीलाल यादव मन्दिर ‘अंतराल’ की उपस्थिति के आधार पर सभामण्डप पूर्व में होने पर बल देते हैं।अंतराल में पृथक शिखर होना भी इस पक्ष में एक तर्क है।वैसे बिना मंडप का मंदिर उस क्षेत्र में देवरबीजा में भी है और इस तरह के मंदिर की भी परंपरा रही है,अतः स्प्ष्ट: कह पाना कठिन है कि मंडप रहा ही होगा।
नामकरण
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‘भांड़ देऊर’ में देऊर तो स्पष्टतः देवालय है।’ भांड़’ डॉ पीसीलाल यादव के अनुसार छत्तीसगढ़ी ‘भठ’ से व्युत्प्न्न है, जिसका अर्थ भग्न या गिरा हुआ होगा। इस तरह ऐसा देवालय जो भग्न हो। प्रसंगवश आरंग के भग्न जैन मंदिर को भी ‘ भांड़ देऊर’ कहा जाता है। इस तरह यह लोक परंपरा जनित नामकरण है।
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संदर्भ-
[1] भोरमदेव क्षेत्र :पश्चिम दक्षिण कोशल की कला- डॉ सीताराम शर्मा ,1990
[2] जहां पाषाण बोलते हैं- डॉ पीसीलाल यादव,2008
[3] Asiatic Researches vol.15 -Jenkins (1825)
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#अजय चन्द्रवंशी, राजा फुलवारी चौक, कवर्धा (छ.ग.)
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