November 21, 2024

मेघा के बरसे अउ महतारी के परोसे : कहावतों का लोक सन्दर्भ

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लोकोक्तियाँ मनुष्य के सामाजिक जीवन के दीर्घकालीन अनुभव के परिणामस्वरूप सृजित होती हैं।इस अनुभव क्षेत्र का दायरा काफी विस्तृत होता है,इसलिए सामाजिक जीवन का शायद ही कोई पहलू होगा जिससे सम्बंधित कहावतें(लोकोक्तियाँ) न हो। कहावतें अमूमन सुबोध होती हैं,मगर उतनी ही ‘मारक’।सुबोधता का कारण आम-जन जीवन से सम्बंधित होना रहा है जिनका परिवेश लंबे समय तक शिक्षा विहीन रहा है।

कहावतें अशिक्षित जन-जीवन से भले काफी हद तक सम्बंधित रही हों मगर ये किसी ‘दार्शनिक उक्ति’ से कम प्रभाव नहीं रखतीं। एक तरह से ये जीवनानुभव के निचोड़ हैं। हालांकि ये जीवनानुभव हमेशा वस्तुनिष्ठ नहीं रहे हैं, इन पर समाज के वर्गीय और लैंगिक भिन्नता का प्रभाव पड़ता रहा है। इसलिए कहावतों में उल्लेखित ‘जातीय लक्षण’ को सामान्यीकृत के रूप में ही लिया जा सकता है, अनिवार्य ‘सत्य’ के रूप में नहीं।एक खास तरह का परिवेश, एक खास तरह का काम विशिष्ट व्यवहार की जरूरत पैदा करता है, जिसे अमूमन ‘जातीय लक्षण’ कह दिया जाता रहा है। इधर बदलते परिवेश ने व्यावसायिक एकाधिकार को भी काफी हद तक भंग कर दिया है ,इसलिए आज एक ही काम को भिन्न जातीय समूह के लोग करते दिखाई पड़ने लगे हैं।

लंबे सामंती दौर में समाज मुख्यतः पितृसत्तात्मक रहा है।ग्रामीण लोकजीवन में भी जहां स्त्रियां पुरुषों के बराबर श्रमरत रही हैं, वहां भी सामाजिक मूल्य पितृसत्तात्मक ही रहे हैं। इसलिए कहावतों में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इसलिए स्त्री पर अविश्वास, यौन अतिरंजना,शारीरिक टिप्पणी से सम्बंधित कहावतें देखी जा सकती हैं। लेकिन कहावतों में बख़्शा किसी को नहीं गया है। स्त्री-पुरुष, राजा-प्रजा,बूढ़ा-जवान,’अवर्ण-स्वर्ण’ सब के ‘कमियों’, ‘विचलनों’, ‘प्रवृत्तियों’ पर कहावतें मिलती हैं।

कहावतें ठेठ होती हैं, इसलिए एक अर्थ में कई भदेस भी होती हैं।पूर्व-आधुनिक समाजों में प्रचलित, तत्कालीन समाजिक नैतिक-अनैतिक मानदंडो से प्रभावित इन कहावतों में कई आज ‘अश्लील’ साबित होंगे।यों भी पहले यौनिकता के अतिरंजना की प्रवृत्ति रही है। इधर आधुनिक-उत्तरआधुनिक समाजों में इनका क्षरण हुआ है और चीजों को सहजता में लिया जाने लगा है फिर भी इनके अवशेष देखे जा सकते हैं।बदलते परिवेश में कई कहावतों का प्रचलन कम हुआ है कुछ नयी कहावते भी बनती रही हैं।यह सतत प्रक्रिया है। कहावतें-मुहावरे भाषा की व्यंजना शक्ति को बढ़ाते हैं, इसलिए किसी भाषा में इनका होना अच्छा माना जाता है।

युवा कथाकार किशन लाल का उपन्यास ‘मेघा के बरसे अउ महतारी के परोसे’ नामानरूप मुहावरों-लोकोक्तियों पर आधारित है।इसमे केन्द्रीयता कहावतों की ही है,किसी ‘कथा’ की नहीं। इस दृष्टि से यह अनोखा उपन्यास है।कम से कम मेरे देखे कोई दूसरा ऐसा उपन्यास नहीं है।उपन्यास का परिवेश छत्तीसगढ़ का ग्रामीण लोकजीवन है इसलिए कहावतें मुख्यतः छत्तीसगढ़ी की है,मगर हिंदी-छत्तीसगढ़ी की निकटता के कारण हिंदी के पाठकों के लिए भी सहज है। कहीं कहीं ऐसे शब्द और सन्दर्भ भी आए हैं जिनकी व्याख्या की जरूरत महसूस हुई है तो लेखक ने संवाद में ही उसे वहां दे दिया है।

उपन्यास में कहानी सिर्फ इतनी है कि एक व्यक्ति जो पेशे से शिक्षक है अपनी पत्नी और बेटी के साथ ग्रीष्मावकाश में शहर से अपने पैतृक गांव जाता है,जहां उसका छोटा भाई,बहु और उसके दादा जी रहते हैं।इस अवधि में शिक्षक पोता और दादा के बीच संवाद होता है, जो मुख्यतः कहावतों पर आधारित होता है। दादा ‘बिंदास’ ग्रामीण बुजुर्ग है,जितनी अधिक उनकी उम्र है उतना ही उनका अनुभवपरक ज्ञान। उसकी बातें मुहावरों-कहावतों से लबरेज है इसलिए पोता का उनकी बातों के प्रति आकर्षण और बढ़ जाता है और इस तरह दोनो के बीच विभिन्न प्रसंगों को लेकर संवाद होते रहता है और इसी क्रम में कहावतों का प्रयोग होते जाता है,जो इस उपन्यास का केंद्रीय ‘कथ्य’ है।

संवाद इतना सहज और स्वाभाविक है कि कहावतों के प्रयोग आरोपित नहीं लगते। इस दृष्टि से दादा का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसे बिंदास व्यक्तिव वाले ही इस तरह के मुहावरों के प्रयोग सहजता से करते हैं। इनमें से कई ऐसे भी होते हैं जिन्हें ‘अश्लीलता’ की श्रेणी में रखा जा सकता है,मगर आज भी ग्रामीण परिवेश में ऐसे बुजुर्ग मिल जाते हैं,जिनके लिए यह असहज नहीं है।

कहावतों के अतिरिक्त उपन्यास में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश के लोकजीवन का अच्छा चित्रण है।ग्रामीण संस्कृति,खान-पान, लोक व्यवहार, फिर बदलते समय में उसमे आ रहे परिवर्तन का लेखक ने अच्छा चित्रण किया है।उपन्यास के पात्र दलित वर्ग से हैं इसलिए इसमे दलित चेतना के स्वर भी देखे जा सकते हैं, मगर उपन्यास में उसकी स्थिति द्वितीयक ही कही जा सकती है।वैसे देखा जाय तो एक हद तक कहावतें भी अभिजात्य के प्रतिपक्ष होती हैं और वंचित वर्ग इस बहाने भी अपनी भड़ास निकाल लेता है।

इस तरह किशन लाल जी का यह उपन्यास जितना मनोरंजक है उतना ही ज्ञानवर्धक भी।कथारस के साथ मुहावरों के अध्ययन का यह अभिनव प्रयोग है,इसलिए यह न केवल साहित्यिक पाठकों अपितु लोकसंस्कृति और लोकसमाज के अध्ययन में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए भी उपयोगी है।

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कृति- मेघा के बरसे अउ महतारी के परोसे(उपन्यास)
लेखक- किशन लाल
प्रकाशन- सर्वप्रिय प्रकाशन, दिल्ली
कीमत- ₹250/-
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#अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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