November 16, 2024

फ़िल्म ‘सद्गति’ : सत्यजीत राय(1981)

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प्रेमचंद तत्कालीन समाज के कुशल चितेरे हैं। वे समाज के अंतर्विरोधों, विडम्बनाओं से आँख नही चुराते बल्कि जोखिम की हद तक ‘नंगी सच्चाई’ को उजागर करते हैं।वे चाहते तो कइयों की तरह निजी सुख-दुख और व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक चित्रण तक सीमित रह सकते थे,लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता चुना।उनकी बहुत सी कहानियां अपने समय की सामाजिक समस्याओंऔर पाखंडों को सीधे-सीधे व्यक्त करती हैं। ज़ाहिर है यह कुछ ‘कला प्रेमियों’ को स्थूल यथार्थ अथवा उपदेशात्मक लगता है।

भारतीय समाज में जातिव्यस्था चाहे जिन सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से उत्पन्न हुई हो,कालांतर में यह समाज के लिए कोढ़ बन गई।इतिहास के एक लंबे दौर में यह उतनी धृणित रही कि एक बड़ी आबादी के साथ अपमान जनक और अमानवीय व्यवहार होता रहा। ज़ाहिर है इसके स्थायित्व के लिए एक पूरे धार्मिक-सांस्कृतिक तंत्र का विकास हुआ था जिससे शोषित को अपना शोषण ‘गलत’ नही लगता था और शोषक वर्ग इसे ‘दैव विधान’ तथा ‘कर्मो का फल’ घोषित करता था।

मगर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के नवजागरण की चेतना और स्वतंत्रता आंदोलन ने, फुले से अंबेडकर तक के हमारे नायकों के प्रयत्न से इसमे उल्लेखनीय कमी आयी। दलित वर्ग अपने अधिकार और अस्मिता के प्रति मुखर हुआ। इस क्रम में प्रगतिशील साहित्यकारों ने भी अपने ढंग से इस भेदभाव का विरोध किया है।बावजूद इनके समाज अभी भी एक कुप्रथा से पूरी तरह मुक्त नही हो सका है।

प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ जातिगत शोषण के इस घृणित व्यवस्था की भयावहता को अत्यंत मार्मिक ढंग से दिखाती है। एक दलित मजदूर ‘सुखी’ की त्रासद मौत जो वस्तुतः हत्या है समाज के सड़ांध को दिखाता है। एक तरफ पुरोहित और उसकी पत्नी हैं, जो जन्मजात ‘क्षेष्ठ’ हैं; खाना और सोना ही लगभग उनकी दिनचर्या है,किसी के घर कर्मकांड कराते भी हैं तो जैसे उसपर अहसान करते हैं। यदि व्यक्ति दलित हो तो मुफ्त बेगारी अलग!

यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि एक व्यक्ति अपनी बेटी की सगाई की ख़ुशी लिए घर से निकलता है और मर जाता है, और उसके हत्यारों के लिए यह महज एक दुर्घटना है! उस पर भी उनका दुःख मृत्यु पर नही अपनी असुविधा पर है।कमाल की ‘सांस्कृतिक महानता’ है कि एक व्यक्ति दिनभर भूखे पेट श्रम कर रहा है और एक मुफ़्तभोगी व्यक्ति उसको लताड़ रहा है!

प्रेमचंद कई रचनाओं में यथार्थ के विभत्स रूप को भी दिखाते हैं जिससे कुछ लोगों को इसमे अतिरंजना दिखाई देता है। मगर कलाकार(लेखक) यथार्थ का पुनःसृजन करता है, इसलिए ‘घटित’ और ‘चित्रित’ का सम्बन्ध द्वंद्वात्मक होता है। लेखक रचनात्मक सृजन के दौरान घटनाओं को कई मोड़ और रंग देता है जिससे पाठक तक उसमे निहित सम्वेदना मुखरता से पहुँचे।ज़ाहिर है इसकी सफलता बहुत हद तक रचनाकार के रचनात्मक क्षमता पर निर्भर करती है।

बहरहाल ‘सद्गति’ में दलित सुखी की भयावह त्रासदी का चित्रण है।कहना न सुखी एक वर्ग का प्रतीक है और पुरोहित भी।शोषण तंत्र में चित और पट दोनो शोषक के पक्ष में होते है। जो सुखी के शरीर से दूर रहते हैं, उनका घर उसके बेगार से कुछ नही होता। सुखी एक जगहअपनी पत्नी से कहता है “तू तो कभी कभी ऐसी बात कह देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले। भला, खटिया कौन देगा! हमारे उपले, सेंठे, भूसा, लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा के जाएँ।” उनके सामान का उपभोग मगर उनके शरीर से दूरी! पाखंड की हद है।

हिन्दू धार्मिक मान्यता में ‘सद्गति’ का अर्थ मृत्यु की सही गति अर्थात ‘मोक्ष’ प्राप्ति से है। कहानी का शीर्षक इससे बेहतर क्या हो सकता था! शीर्षक से ही विडम्बना पूरे शिद्दत से उभर आती है। प्रेमचंद शीर्षक से इस पूरे ‘सांस्कृतिक मूल्य’ पर व्यंग्य करते हैं, जिसमे एक भूख और अत्याचार से मरे व्यक्ति, जिसकी हत्या पुरोहितवाद ने की है, को ‘सद्गति’ का दर्जा दे दिया जाता है।

फ़िल्म ‘सद्गति’ कहानी के अनुरूप लगभग पचास मिनटों की छोटी फ़िल्म है। कथा के मुख्य पात्रों का अभिनय ओम पुरी, स्मिता पाटिल , मोहन अगाशे, गीता सिद्धार्थ ने किया है। फ़िल्म में कहानी की सम्वेदना को और तीव्र बनाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास किये गए हैं। मसलन सुखी की तबियत ख़राब होना दिखाया गया है जिससे उसकी मृत्यु की यथार्थता बढ़ जाती है। सुखी पुरोहित के घर बेगार कर रहा तो ज़ाहिर है उधर उसकी पत्नी और बेटी सगाई की तैयारी करते रहे होंगे। फ़िल्म में इस प्रसंग को भी जोड़ा गया है।फ़िल्म के अंत मे दुखी की पत्नी झुरिया का पुरोहित के दरवाजे पर विलाप भी सम्वेदना को झकझोरती है।पुरोहित का गले के आते तक भोजन करना और डकार लेना दुखी के भूखे होने की विडम्बना को और मुखरता से प्रकट करता है।

कुल मिलाकर सत्यजीत राय के कुशल निर्देशन ने कथा की सम्वेदना को और तीव्र और सहज बनाने में मदद की है।वैसे भी दृश्य माध्यम के अपने अतिरिक्त आयाम होते हैं जिससे पाठक/दर्शक कहानी को न केवल सुनता है अपितु देखता भी है,जिससे कथा को ग्रहण करने उसकी क्षमता और बढ़ जाती है।अवश्य इसमे प्रस्तुतिकरण का विशेष महत्व होता है, और सत्यजीत राय जैसे समर्थ निर्देशक इसे सार्थक ढंग से करते रहे हैं।

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[2021]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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