फ़िल्म ‘खंडहर’ : मृणाल सेन (1984)

खंडहर में एक वीरानी होती है, अकेलापन होता है। मानो अस्तित्व और अनस्तित्व के बीच की स्थिति! मगर खंडहर यह भी बताता है कि कभी वहाँ आबादी थी, चहल -पहल थी। खंडहर सामान्यतः जर्जर होते जाता है और एक दिन उसका अस्तित्व भी मिट जाता है।मगर उसके दिन फिर भी सकते हैं। किसी निगाहें -करम से उसकी वीरानी मिट भी सकती है।मगर…. एक मगर जुड़ा ही रहता है!
फ़िल्म ‘खंडहर’ की जामिनी की ज़िंदगी भी जैसे खंडहर हो गई है।एक अशक्त बीमार,दृष्टिहीन माँ है जिसकी मानो एकमात्र इच्छा बांकी रह गई है कि किसी तरह बेटी का विवाह हो जाए।जामिनी भी युवा है स्वभाविक है उसकी जीवन-इच्छाएं हैं, मगर परिस्थितियां एकदम विपरीत हैं।रिश्तेदार सब अपने-अपने जीवन में मस्त दूर जा चुकें हैं, एक चचेरा भाई दीपू है वह दो -तीन सालों में आ जाता है। उसके पास भी केवल सहानुभूति है।दीदी-जीजा खर्च के लिए कुछ पैसे भेज देते हैं, अपने पास बुलाते भी हैं मगर माँ का वही सामंती जीवन मूल्य कि बेटी के यहाँ नहीं जायेंगे, कुटुंब का मोह, आड़े आ जाता है।भले ही वह ‘कुटुंब’ जर्जर खंडहर हो चूका है।
जामिनी और उसकी माँ उस खंडहर में अकेले हैं। विशाल खंडहर उनके एकाकीपन और बढ़ा देता है। कभी निरंजन नामक दूर रिश्ते का एक युवक जामिनी से विवाह करने की बात कहकर गया था। जामिनी की माँ आज भी उसका इन्तिज़ार कर रही है, जबकि जामिनी को पता है उसने विवाह कर लिया है, मगर माँ की हालत देखकर वह उसे बताती नहीं। मगर वह इस अभिनय से तंग आ गई है। एक तरफ उसका अपना दुःख उस पर माँ की बेकरारी उसे और चोट पहुँचाती है और अक्सर एक चिड़चिड़ापन से बहस का अंत होता है।
परिस्थिति वश दीपू का दोस्त सुभाष जामिनी की माँ के भरम को कायम रखते ख़ुद को निरंजन की तरह पेश करता है। जाहिर है उद्देश्य कुछ समय उसे तकलीफ से दूर रखना था, मगर इसके कारण कहानी में एक मोड़ आ जाता है। सुभाष फोटोग्राफर है, कैमरा हमेशा साथ रहता है। वह केवल व्यावसायिक नहीं कलात्मक फोटो खींचने में भी रूचि रखता है। खंडहर की निरवता, एकांतता उसे आकर्षित करती है, इसलिए वह उसका अलग-अलग कोणों से तस्वीर लेते रहता है।
इस घटना से सुभाष थोड़ा द्वंद्वग्रस्त हो जाता है। अनजाने ही जामिनी की तरफ थोड़ा आकर्षित दिखाई पड़ता है।जामिनी की मरती इच्छाओं में थोड़ी जान आती दिखाई पड़ती है। मगर यह ’यथार्थ’ महज छलावा साबित होता है। सुभाष का आकर्षण में एक संवेदनात्मक तटस्थता है। जामिनी के प्रति उसमें सहानुभूति है मगर प्रेम नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका मन शहरी मध्यमवर्गीय ’हिसाबी –किताबी ’ है। वह जामिनी की तरफ एक कदम आगे नहीं बढ़ाता। उसकी मुख्य चिंता जामिनी नहीं उसकी तस्वीर है, इसलिए गांव से जाने के वक्त भी वह सटीक पोज में जामिनी की फोटो खींचने के लिए लालायित रहता है,और उसमें सफल भी हो जाता है। सुभाष बुरा नहीं है मगर उस तरह ’अच्छा ’भी नहीं है जैसा प्रारंभ में दर्शक को लगता है।
कुल मिलाकर इस विडंबना से जामिनी का जीवन मुक्त नहीं हो पाता। उसका पूरा जीवन जैसे खंडहर हो गया है। जीवन में जैसे कोई सुख,कोई दुख नहीं,बस चल रहा है। वातावरण में बेचारगी है मगर उसका व्यक्तित्व उदात्त है, वह अपना दुख प्रकट नहीं करती,उसे पी जाती है। उसे अपनी माँ की अक्षमता का बोध है और उसे अकेले छोड़ नहीं सकती। माँ भी जैसे उसकी शादी के लिए ही जिंदा है,उसे अपनी अक्षमता का बोध है मगर बेटी की शादी न होना सबसे बड़ा दुख है। अपनी खीझता निकालने के लिए एक–दूसरे के अलावा कोई नहीं है।
यह कहा जा सकता है कि जामिनी में दीनता नहीं है मगर उसके व्यक्तित्व में विद्रोह भी नहीं है।वह परिस्थितियों के आगे जैसे समर्पण कर चुकी है,उसे कभी बदलने का प्रयास नहीं करती। अवश्य यह भाव दर्शक को कचोटती है मगर जटिल सामाजिक तानेबाने,आर्थिक–सामाजिक परिस्थितियों में ऐसा सोचना शायद जितना आसान है उसका होना उतना नहीं।
फिल्म का दृश्यांकन शीर्षक अनुरूप एक खंडहर में किया गया है जो परिस्थिति के तनाव को उभारने में सहायक होता है। फिल्म प्रेमेंद्र मित्रा की बंगाली लघु कहानी ’तेलेनापोता अबिष्कार’पर आधारित है।
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★अजय चंद्रवंशी, कवर्धा, (छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320