January 30, 2025
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परसो शाम ही देखी बासु चैटर्जी की सारा आकाश। रजनी गंधा, सारा आकाश, नदिया के पार, बालिका बधू, देवदास, परिणीता, स्वामी या वे सारी फिल्में जिनका आधार कोई साहित्यिक कृति है हमेशा मेरे लिये विशिष्ट रही हैं।

अक्सर यूँ होता है कि मूल कृति से तुलना के चलते इनके लिये हम हिंदी वाले थोड़ा जजमेंटल हो जाते हैं। ये दिखाया, वो बदल दिया वगैरह वगैरह इसलिये मैंने तय किया कि चूँकि फ़िल्म एक अलग माध्यम या विधा है तो उसकी सीमाओं या मापदंडों के चलते एक दर्शक के रूप में थोड़ा उदार हुए बिना काम नहीं चलेगा। वरना ये क्यों होता कि सारा आकाश जो राजेन्द्र यादव के इसी शीर्षक से लिखे गए उपन्यास और नदिया के पार जो कि केशव प्रसाद मिश्र जी के उपन्यास ‘कोहबर की शर्त’ पर आधारित है, दोनों के अंत बदलकर दुखांत से सुखांत कर दिए गए।

ऐसा इसलिये कि पाठक और दर्शक में फ़र्क होता है। एक पाठक की मनोस्थिति और तैयारी में अंत के प्रति एक स्वाभाविक समझ शामिल होती है जबकि सिनेमा के दर्शकों की सोच, समझ और अपेक्षा भिन्न होती है। लाखों रुपये लगाकर एक प्रोडक्ट की तरह जिस फ़िल्म की निर्मिति होती है उसके लिये मनोरंजन पहली शर्त होती है और उसी से जुड़ी होती है फ़िल्म की बॉक्स ऑफिस पर सफलता।

सारा आकाश फ़िल्म को अगर एक पंक्ति में समेट दिया जाए तो वह होगा, एक पुरुष का अहम और मध्यमवर्गीय पारिवारिक संरचना में स्त्री का शोषण दोनों के बीच गहरा संबंध है। जब पुरुष अपने अहम के चलते स्त्री को सम्मान नहीं देता तो उसे दोतरफ़ा शोषण का शिकार होना पड़ता है। यूँ कहने को इतनी सी कहानी और इतना सा फसाना लेकिन हमेशा की तरह फिर कहना होगा कि किसी भी कृति के मूल्यांकन की कसौटी उसके काल को नजरअंदाज करके करेंगे तो यह अन्याय होगा। समय की सापेक्षता का ध्यान रखे बिना यह बिल्कुल तर्कसंगत न होगा कि इस उपन्यास या फ़िल्म को यूँ एक पंक्ति में निपटा दिया जाए।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि 1951 में लिखे गए उपन्यास पर बनकर 1969 में फ़िल्म रिलीज हुई। इस श्वेत श्याम फ़िल्म के क्रेडिट्स में कैमरा बहुत तेज़ी से उस दौर के आगरा शहर, उसके बाज़ार और गलियों में घूमता है। बीच में दो बार ताजमहल भी आता है अंत में कैमरा पुनः ताजमहल पर जाकर स्थिर हो जाता है और हम देखते हैं कि आगरा की गलियों में फ़िल्म के नायक समर (राकेश पांडे) की बारात निकल रही है। आगे वधु बनी प्रभा (मधु चक्रवर्ती) के साथ वरमाला का दृश्य है। साथ में बड़े भाई के रूप में खड़े मणि कौल उन्हें निर्देश दे रहे हैं पर नायक में मन में गूंज रही हैं दोस्तों की बातें, ताने और हम जानते हैं कि हमारे आदर्शवादी नायक के जीवन के और कुछ बड़े उद्देश्य है और शादी उसमें सबसे बड़ी रुकावट है। छात्र जीवन में ही अभिभावकों की मर्जी से शादी तय हो जाना उस दौर में एकदम स्वाभाविक था।

नायक में मन में इस विवाह के निर्णय के प्रति जो नाराज़गी है वह क्रोधाग्नि में बदल जाती है जब उसकी भाभी (तरला मेहता) घड़ी घड़ी आग में घी डालती रहती है। उस दौर की घरेलू स्त्रियों के पास रसोई, बुनाई, कढ़ाई आदि के पास सबसे फेवरेट टाइमपास होता होगा ये सब लगाई बुझाई जो समर और प्रभा के बीच की दीवार को इतना बड़ा करती चली जाती है कि अपने अहम और नासमझी के चलते उस घर में भाभी और माँ (दीना पाठक, फ़िल्म क्रेडिट में नाम दीना गांधी) द्वारा प्रभा के उत्पीड़न को भी नहीं देख पाता। प्रभा के मौन और संकोच को अवज्ञा और अपमान मानकर वह भी अनजाने ही उस उत्पीड़न में शामिल हो जाता है। यहाँ तक कि उस पर हाथ भी उठा देता है। अलबत्ता उसकी बहन के रोल में नन्दिता ठाकुर जरूर एक सकारात्मक किरदार है।

अंत में नायक को अपने दोस्त (जलाल आगा) और उसकी पत्नी के प्रेमिल सम्बन्ध को देखकर और बहन की बात को यादकर अपनी गलती का अहसास होता है। फ़िल्म का अंत सकारात्मक है और यह इस मायने में विशिष्ट है कि यहाँ पारिवारिक संरचना में के स्त्री के शोषण और उत्पीड़न को संस्कृति मानकर उसका महिमामंडन करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। उस दौर में उन परिस्थितियों से गुज़र रहे किसी युवक ने इस फ़िल्म को देखा होगा तो जरूर उसके पास अपनी पत्नी के मन और स्थिति को समझकर अपने अहम के खोल से बाहर निकलकर उसकी ओर कदम बढ़ाने और उसे उस चक्रव्यूह से हाथ थामकर बाहर निकलने की समझाइश जरूर मिली होगी और यही फ़िल्म का मंतव्य भी है।

गुस्सैल नासमझ नवयुवक के रोल में राकेश पांडेय और संकोची प्रभा के रोल में मधु चक्रवर्ती का काम अच्छा है। ‘शंकर हुसै’ फ़िल्म में मधु चंदा के नाम से भी उनका काम मुझे अच्छा लगा था। समर के पिता के रोल में ए के हंगल का काम हमेशा के जैसा है और धर्मेंद्र के साथ ‘शोला और शबनम’ में नायिका का रोल निभा चुकी तरला मेहता (वास्तविक जीवन में दीना पाठक की छोटी बहन) यहाँ लालाजी लालाजी कहते हुए शातिर भाभी के रोल में खूब जमी हैं। दीना पाठक के मुँह से जो लोकल तानों और लोकोक्तियों की बारिश होती है वह मजेदार है। मणि कौल और नन्दिता ठाकुर का काम स्वाभाविक है। फ़िल्म के हर फ्रेम पर बासु चैटर्जी की छाप मन को गहरी संतुष्टि देती है। हाँ, उपन्यास की अवसादजनित परिस्थितियों का प्रभाव फ़िल्म में भी उतना डिप्रेसिंग बन पड़ा है और मन को गहरी बेचैनी और उदासी की ओर बढ़ाता है। छोटे छोटे सीन, छोटी छोटी बातें हैं जो मन को छू जाती हैं।

फ़िल्म को मैंने यूट्यूब पर देखा। आप भी चाहें तो देख सकते हैं। प्रिंट पुराना है पर दर्शनीय है।
अंजू शर्मा

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