“चंदैनी-गोंदा के संस्थापक – दाऊ रामचंद्र देशमुख की पुण्यतिथि पर शत शत नमन”
(25 अक्टूबर 1916 – 13 जनवरी 1998)
जब सागर की गहराई में करुणा की एक बूँद सीप में बन्द रहकर उचित समय की प्रतीक्षा करती है तब वह “मोती” बन जाती है। जब कोई हरा भरा वृक्ष बरसों भू-गर्भ में दबा रह कर अन्तर्ज्वाला में साधनारत रह कर उचित समय की प्रतीक्षा करता है तब वह “हीरा” बन जाता है। इस तरह से प्राप्त प्राकृतिक मोती और हीरे ही अनमोल होते हैं अन्यथा फैक्ट्रियों में अब मोती और हीरे भी बनने लगे हैं जिन्हें कोई भी खरीद सकता है। इसी तरह से जब कोई छटपटाहट, मन के किसी कोने में चिन्तन की तपिश को सहती हुई उचित समय की प्रतीक्षा करती है तब वह “चंदैनी-गोंदा” बन कर एक क्रांति ले आती है।
दाऊ रामचंद्र देशमुख के मन में चंदैनी-गोंदा के बीज ने कब जन्म लिया ? इस प्रश्न का उत्तर तो शायद दाऊ जी के पास भी नहीं रहा होगा। उनके उद्गारों तथा साक्षात्कार में कही गयी बातों से हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। उन्हीं के शब्दों में : “बात स्वराज के दिनों की है – 1948 की जब मुझे पृथ्वीराज कपूर का नाटक दीवार देखने का मौका मिला। उसके पहले ही दृश्य में एक लोकनृत्य था, बड़ा सुरुचिपूर्ण। मैंने अपने यहाँ प्रचलित लोकनृत्य से उसका मिलान किया तो पाया कि अपने यहाँ नाचा में हल्कापन, फूहड़पन का पूरा पूरा बोलबाला था। और तो और उसमें उद्देश्यहीनता घर कर गयी थी। दीवार नाटक से नाचा को परिष्कृत करने, राष्ट्रीयता से जोड़ने और सार्थक बनाने की दृष्टि और दिशा मिली मुझे”। परिणामस्वरूप ‘छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल’ अस्तित्व में आया।
एक श्रावणी रात में मैले-कुचैले वस्त्रों में घर के दरवाजे पर हाथ में कटोरा और अधरों पर सिसकियाँ लिए चाँद बी नामक नन्हीं सी बच्ची में दाऊ जी को छत्तीसगढ़ के दर्शन हो गए और इस दयनीयता को मिटाने का संकल्प मन में जाग उठा।
दिनांक 22 फरवरी 1969 को छत्तीसगढ़ के स्वप्नदृष्टा और दाऊ रामचंद्र देशमुख के श्वसुर जी डॉ. खूबचन्द बघेल का अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पूर्व लिखा उनके नाम लिखा गया पत्र “हमको हर हाल में छत्तीसगढ़ को जगाना है और आपकी नाटकीय प्रतिभा की बहुत जरूरत है”। डॉक्टर साहब के ये पंक्तियां दाऊ जी को सतत झकझोरते रहीं और वे छत्तीसगढ़ में जागरण लाने के विषय में निरंतर चिन्तन करते रहे।
आकाशवाणी द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार के दौरान चंदैनी गोंदा के लिए प्रेरणा कहाँ से मिली, प्रश्न के प्रत्युत्तर में दाऊ जी के शब्द थे – “आपको स्मरण होगा कि भारतीय स्वतंत्रता की चौबीसवीं वर्षगाँठ पर 15 अगस्त 1971 को राष्ट्रपति महोदय ने देश के नाम अपने संदेश में कहा था कि गेहूँ के इलाकों में तो हरित क्रांति हो चुकी लेकिन धान के इलाकों में नहीं हो पायी। यह एक बहुत बड़ा सत्य है और भारत का धान उपजाने वाला हर औसत किसान इसकी पुष्टि करेगा। गेहूँ और धान के इलाकों के भूगोल पर मैं नहीं जाता। उपलब्ध सुविधाओं पर मुझे कुछ नहीं कहना है लेकिन इतना तो अवश्य है कि स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के पश्चात धान के इलाकों का किसान जहाँ का तहाँ है। अभी भी उसके शोषण का चक्र जारी है। उसके अनेक अवतार हैं। चंदैनी गोंदा में यदा-कदा प्रसंगवश हरित क्रांति के उद्घोषकों के स्वार्थ, कुचक्र और अदूरदर्शिता पर व्यंग्य किया गया है। इसके पीछे एक औसत किसान की व्यथा ही कर्मशील है। तो, राष्ट्रपति के भाषण का अंश के चंदैनी गोंदा की प्रेरणा भूमि है”।
महावीर अग्रवाल को दिए गए एक साक्षात्कार में दाऊ जी ने कहा था – “1950 में हमने छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल की स्थापना की। मैंने 1951 में नरक अउ सरग, 1952 में जनम अउ मरन, 1953 में काली माटी का मंचन किया। रायपुर में श्री हबीब तनवीर ने कहा, “दाऊ जी मैं इन कलाकारों को दिल्ली ले जाना चाहता हूँ “। तब अधिकांश कलाकार ठाकुरराम, भुलवा और लालू के साथ दिल्ली चले गए और प्रसिद्ध हुए। मैं मजबूर हो गया। 1971 में कुछ कलाकार वापस आ गए तब ‘नाचा’ को राष्ट्रीय धारा से जोड़ते हुए “चंदैनी गोंदा” की प्रस्तुति तैयार की गई”।
इन समवेत कारणों का ही प्रतिफल है “चंदैनी गोंदा”। दिल्ली से कलाकारों के वापसी ने नया उत्साह भर दिया। दाऊ जी अकेले ही अपने ड्राइवर को लेकर गाँव, शहर और कस्बों में गीत, संगीत के सिद्धहस्त कलाकारों को ढूँढने निकल जाया करते थे। उन्होंने वरिष्ठ कवियों के घर जाकर गीत इकट्ठे किये। लोक कलाकारों की आवाज अपने टेपरिकार्डर में सुरक्षित की, पारंपरिक लोकगीतों को इकट्ठा किया, वादकों की खोज की और सभी को बघेरा ग्राम में बुलाकर अपने घर में उनके ठहरने, भोजन करने और रिहर्सल करने की व्यवस्था की। कलाकारों के बघेरा पहुँचने पर उनका घर में स्वागत किया जाता था। इस कार्य में दाऊ जी की धर्मपत्नी श्रीमती राधा देवी जी ने कंधे से कंधा मिला कर भरपूर सहयोग दिया। दाऊ जी ने चूँकि सिद्धहस्त कलाकारों की खोज की थी अतः अल्प समय में ही उत्कृष्ट तैयारियाँ हुईं और 07 नवम्बर 1971 को ग्राम बघेरा में चंदैनी गोंदा का प्रथम और ऐतिहासिक मंचन सफलतापूर्वक हो गया। प्रथम प्रदर्शन के लीडिंग गायक और गीतकार रविशंकर शुक्ल थे।
इस प्रदर्शन के बाद एक दिन दाऊ जी ने आकाशवाणी रायपुर से प्रसारित कविसम्मेलन में मैं छत्तीसगढ़िया अंव कविता का प्रसारण सुना। कविता के शब्द और कवि की आवाज, दाऊ जी को अपने विजन के अनुरूप लगी उन्होंने आकाशवाणी में संपर्क करके पता किया कि यह कविता कौन सुना रहा था ? आकाशवाणी ने बताया कि इसके कवि लक्ष्मण मस्तुरिया हैं और वर्तमान में राजिम में रहते हैं। दाऊ जी ने मस्तुरिया जी को बघेरा आकर मिलने का संदेश दिया। मस्तुरिया जी के बघेरा आकर दाऊ जी से मिलने के बाद चंदैनी गोंदा का दूसरा प्रदर्शन 29 जनवरी 1972 को ग्राम पैरी में हुआ। पैरी का यह प्रदर्शन अत्यंत ही विराट प्रदर्शन रहा। लक्ष्मण मस्तुरिया के काफी गीत सम्मिलित हुए थे। इसके साथ ही लक्ष्मण मस्तुरिया चंदैनी गोंदा के विसर्जन तक मुख्य गायक और गीतकार बने रहे। उद्देश्य पूर्ण होने के बाद 22 फरवरी 1983 को दाऊ जी ने ग्राम पथरी (डॉ. खूबचन्द बघेल जी के गृहग्राम) में चंदैनी गोंदा का 99 वाँ मंचन करते हुए विसर्जन की घोषणा कर दी।
गाँव गाँव जाकर कलाकारों की खोज, छतीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवियों की कविताओं का संकलन, 63 कलाकारों को एक सूत्र में बाँधे रखना, लोकगीतों का संकलन, इतने कलाकारों को अपने घर में ठहराना, उनके भोजन की व्यवस्था करना कितना कठिन काम रहा होगा, आप कल्पना कर सकते हैं। दाऊ जी ने तमाम परेशानियों के बावजूद धैर्य के साथअपने मिशन को पूरा करने में सफलता प्राप्त की।
विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि दाऊ जी ने यह कार्य स्वयं किया, स्थानीय साहित्यकारों तथा कलाकारों का उन्हें भरपूर सहयोग मिला। चंदैनी गोंदा के वे अकेले ही संस्थापक थे। उन्होंने किसी तरह के फाउंडर मेम्बर्स की टीम नहीं बनायी थी। हाँ, लोक कलाकारों के आपसी सामंजस्य व समर्पण के कारण चंदैनी गोंदा एक बड़ा परिवार बन गया था और सारे कलाकार उस परिवार के सदस्य बन गए थे। अनुशासन देखते ही बनता था। यह देख कर बड़ा दुख होता है कि कुछ लोग अपनेआप को चंदैनी गोंदा का संस्थापक और फॉउंडर मेम्बर बताकर अनावश्यक श्रेय लेने का प्रयास करते हैं। चंदैनी गोंदा का जन्म 1971 में ही हुआ था और प्रथम प्रदर्शन 07 नवम्बर को हुआ था। दाऊ रामचंद्र देशमुख चंदैनी गोंदा के एकमात्र संस्थापक थे, हैं और रहेंगे।
आलेख – अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)