लघुकथा: भीतर कुछ दरकता सा…
ये क्या आधी रात तुम लाइट जलाकर कर सबका नींद खराब करती रहती हो…?”:”
झल्लाकर,,, समीर ने सुधा को कहा…।
सुधा जी बस थोड़ी देर और…!
बस करो यार सुधा ये पागलों जैसी हरकत करना प्लीज़… “”
दो चार लघुकथा,कविताएं, कहानी क्या पेपर में छप गयी तुम तो खुद को बहुत बड़ी लेखिका समझने लगी हो ।
और रात को ही क्या है ये सब दिन भर क्या करती रहती हो…??
रात को तो चैन से सोने दिया करो… “”
और समीर ने लाइट आॅफ कर दी ।
सुधा को दिन भर घर के कामों से फुर्सत नहीं मिलती जो भी विचार मन में कौधतें वो रात को बेचैन हो उठती उन्हें लिखने।
—“”ये रोज की दिनचर्या बन गयी थी जब भी सुधा लिखने बैठती किसी न किसी बहाने से समीर उसे रोकता ।
“”शायद वह कहीं न कहीं सुधा को मिली नयी पहचान से जलने लगा था। “”
वो नहीं चाहता था कि उससे विलग सुधा की कोई अपनी पहचान हो…।
तभी तो उसने उसे आगे बढ़ाने की कभी कोशिश नहीं की जब भी वो बढ़ना चाहती कुछ करना चाहती वो उसे नयी जिम्मेदारियों में उलझा देता और वह भी सब भूल अपने कर्त्तव्य को पूरा करने में लग जाती बिना किसी शिकायत के।
बरसो बीत गये उसने खुद के लिए जीना छोड़ दिया था मगर एक चीज़ चाहकर भी नहीं छोड़ पाती थी—– “”डायरी में कविता कहानी लिखना ।””
स्कूल कालेज की लत है जो समय के साथ बढ़ती चली गयी ।
कई सालो बाद किसी के कहने पर वो इन्हें प्रकाशित करवाने लगी… धीरे-धीरे बहुत से लोंग उससे जुड़ने लगे जानने लगे और इसी बीच अचानक एक प्रतिभावान वरिष्ठ साहित्यकार की नज़र उस पर पड़ी जिसके कहने पर सुधा ने अपनी कविता, कहानी को घर बैठे ही छपवाना शुरू किया साथ स्वयं की किताब भी छपवाईं।
“”ये बात समीर को खलने लगी थी वो सामने तो सुधा को प्रोत्साहित करता मगर कही न कही उसको आगे बढ़ने से भी रोकता…ये बात सुधा भी महसुस करने लगी थी मगर पारिवारिक कलह से डरती थी सोचती थी कहीं उनके रिश्ते में दरार न आ जाये…। “”
—-उसके अंदर एक अजीब सी हलचल होने लगी थी शायद बाहर रिश्तों की तुरपाई करते हुए “”भीतर कुछ दरकनें””लगा था और जिसे शायद वह अपने शब्द रुपी मलहम से भरना चाहती थी मगर असमर्थ थी…??
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दिलशाद सैफी
रायपुर, छत्तीसगढ़